Monday, September 5, 2016

शिक्षक दिवश पर एक नजर

शिक्षक दिवस पर आज थोड़ी उत्तराखंड की शिक्षा प्रणाली पर भी कर लें।
उत्तराखंड की सरकारी स्कूलों पर नजर दौड़ाने की आवश्यकता है। एक दौर था जब दो या चार कोष की दुरी पर स्कुल के लिए पैदल जाना होता था। गांव से बच्चों का झुण्ड का झुण्ड निकलता था। सरकारी स्कूलों में इतनी भीड़ होती थी कि टीचर्स के लिए बच्चों का ध्यान रखना बहुत ही मुश्किल होता था। प्राइमरी के स्कूलों में बच्चों का रोना। उन्हें थामना शिक्षकों के लिए भरी पड़ता था।
स्कूलों में बच्चों की भीड़ उस समय यह साबित करती थी कि वह व्यवसाय नहीं है बल्कि शिक्षा का मंदिर है। बाद में सरकारों ने यह निर्णय लिया कि हर गांव में स्कूल हो। स्कुल इतने खोल दिए कि बच्चों व् शिक्षकों की संख्या घटने लगे। एक स्कुल में कक्षा एक से लेकर पांचवी कक्षा तक 10 या पंद्रह बच्चे होने लगे। इतने बच्चों को पढ़ाने के लिए एक शिक्षक। उस शिक्षक हो स्कुल भी खोलना था उसी को कागजी काम भी करने थे उसी को  ही ब्लॉक व् जिला अधिकारी के दिशा निर्देश पर अन्य काम भी करने थे। भला एक शिक्षक 10 काम कैसे कर सकता है यह सोचने वाली बात है।
फिर दौर चला व्यपारिक शिक्षा व्यवस्था का । जो कि खकरीदी और बेचीं जाती है। वह है प्राइवेट स्कूलों का दबदबा । इन स्कूलों न पढाई के साथ साथ सुविधाएं भी दी। पर इन स्कूलों के चलते उन सरकारी स्कूलों की मौजूदा हालात जर्जर स्थिति में पहुँच गयी हैं। आज उन स्कूलों का यह है क़ि एक शिक्षक और दो बच्चे। यह कक्षा एक से पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों का लेखा जोखा है। उत्तराखंड की शिक्षा व्यवस्था को देखकर तो यही लगता है कि वह भी ICU में भर्ती है। लाखों करोड़ों का बजट बनने के बाद भी वह खटिया पर दम तोड़ने के लिये तैयार है। हालात इतने बिगाड़ चुके है कि सरकारी स्कूलों का जिन्दा रहना नामुमकिन सा हो गया है। अब तो ऊपर वाले की दुआ से ही कुछ चमत्कार हो सकता है।  क्योंकि सरकारी दुआ और दवा दोनों ही ठेकेदारों कीजेबों में है।-भस्कार जोशी "पगल'

गेवाड़ घाटी