Saturday, April 27, 2013

समझे गाँधी को ?

लो भाई सभी चल दिए
गाँधी बनने को
आज गाँधी बनना
कितना आसान हो चला है प्यारे

आज सभी गाँधी बन बैठे
सर पर टोपी पहने बैठे
सत्य अहिंसा का पाठ पढ़ने
कितना आसान हो चला है प्यारे

जिस किसी को देखें
वह सत्य, अहिंसा की बात करता है
जो कभी सत्य को जाना
जो कभी अहिंसा के मूल को पहचाना
फिर भी गाँधी बन बैठा है प्यारे

मैं जानना चाहता हूँ -
क्या समझ गये गाँधी को
कितना समझे सत्य, अहिंसक गाँधी को
गाँधी की राजनीति करना
सत्य, अहिंसा के अभिनय से लोगों को ठगना
ये तो गाँधी नहीं है प्यारे

मन में द्वेष, छल-कपट भरा है
जन भावनाओं से खेल रहा है
हिंसा से मैला तन-मन फैला रहा है
फिर भी अपने को गाँधी कह रहा है
क्या यही गाँधी है ? प्यारे

बंधू, गाँधी तो वह आंधी है
जो सत्य के मार्ग पर चलता हो
अहिंसा पर विश्वास करता हो
जन समूह का शैलब ले खड़ा हो
वही आंधी, गाँधी है प्यारे

जो बना गरीबों का मसीहा
किया जिसने क़र्ज़ अदा माँ धरती का
वही "" से गगन "" से धरती से गाँधी बना
जो लय बनाकर गगन और धरती के साथ चला
उसी का नाम गाँधी है प्यारे

आज यदि सच में गाँधी जी होते
रक्त के अश्रु छलक उठते गाँधी के
सायद फिर गाँधी ये कभी नहीं कहते
मैं गाँधी हूँ प्यारे
मैं गाँधी हूँ प्यारे

Saturday, April 6, 2013

बिखरे बिखरे से


(1) अफशोस है अपने लब्जों से मुझे
      जाने  कितनों के दिल दुखाये होंगे मैंने ।
      जो भी अल्फाज निकले जुबां से मेरे
      जड़ बनकर उगल दिए सारे मैंने ।

(2)   सब लोग  भूल गये हमें जाने कहाँ चले दिए  हम,
       थे तो भू-धरा पर ही फिर भी अनजान हो गये हम ।


(3)  चल रे मुशाफिर चलता जा
      पल भर का आनंद लेताजा
      दुःख- सुख, जीवन का है पहिया
     जिन्दगी की डगर पर हँसते-गाते चलता जा।

(4)- जाते जाते हमें भूल मत जाना
       अगले मोड़ पर हम ही मिलंगे |

(5)    कह कर गए थे वो हमसे 'फिर' मिलते रहेंगे
        अब लगता है कि वो हमें 'फिर' में ही टाल गये।

(6) याद याद आती है उनकी अक्षर गायब रहते हैं
     फिर भी उनके आने का इंतजार हर वक्त करते हैं


(7)  जब कभी भी देखता हूँ उन्हें चेहरे पर मुश्कान खिल उठती है
       देखते हैं वो हमें तिरछी नज़रों से, और  हम  घायल..............।

(8)  मैं जहाँ कहीं भी रहूँ आपको पकड़ क्र रखूँगा
       छुट गये गर आप हमसे फिर आप जैसा न मिलेगा हमें ।

(9)  वो दुपके से आकर कान में कुछ कह गये हमसे
      प्यारी सी अंगडाई ली और हम नींद से जाग गये ।

(10) बहुत हुआ अब तो आ भी जाओ ,
        और कितना तडपाओगे हमको।
        दिन  बीत गया अँखियाँ तरस रही है तुम से
       कब तक यूँ ही आंख मिचोली खेलोगे हमसे ।

(11) अगर मगर की दुनियां ने हमें खूब दिया नाचय
      वाह रे निंदक संवारे हम पर ही खेल आजमाय ।

(12)  दुनियां की इस रेस में, हम भी शामिल हो गये
         हम भागे क्यूँ थे अब भी इस से अनजान है ।

(13) एहसास था हमें तुम लौटकर आओगे जरुर
       मगर आने में तुमने बहुत देर कर दी

(14)  राहों पर चलते चलते
       अक्सर ठोकर लग ही जाती है
       सभल गये तो दुनियां चल पड़ी
      गिर गये तो ये दुनिया और गिर देती है

(15)  वर्षों से ढुंढ रहा हूँ तुम्हें
        बड़ी सिद्दत के बाद दीखे  हो
         बस अब एक कदम दूर हूँ तुमसे ।

(16) सिर्फ एक बार हंसकर, कहकर तो देखा होता
       मैं अपनी जिन्दगी का जीवन, तुम्हारे नाम कर देता  ।

(17 ) बस जाऊं तुम्हारे मदमस्त निहारे इन नैनन में
        फिर एक नीर की बूंद भी टपकने न दूँ इन नैनन से ।

(18) तब लूटकर ले गये भारत की अमुल्य खजाने को लुटेरे
       यह प्रचालन आज भी जारी रखा है इन सफ़ेद सौदागरों ने
        करोड़ों की पूंजी विदेशी सरजमी में जमा कर डाला
        न थके सौदागर भारत के संपत्ति को बेचते-बेचते ।

(19) गरीबी की मार से बिलखता देख उस युवा पीढ़ी को,
        जो दो वक्त की रोटी के लिए दर बदर की सीढ़ी चढ़ता रहा ।
        फिर भी नशीब में न मिलती दो वक्त की रोटी  भूख मिटाने को,
       वहीँ देश के सौदागर नेता चले बयानों से भूख मिटने को।।

(20)  देश के भ्रष्ट नेता चले, भ्रष्टाचार का तलवार लिए । 
      गरीबों की गरीबी मिटा न सके, तो गरीब ही मिटने चले । 

Monday, April 1, 2013

मेरे पहाड़ की वेदना ।

देखता हूँ अपने पहाड़ को
आंखे झलक उठती हैं
मानो ऐसा प्रतीत होता है
कि मेरा पहाड़ मुझ से कहना चाहता है
जो कभी मैं अपने
प्रकृति सौन्दर्य पर
न्योंछावर होती थी
कभी कोयल की
मधुर आवाज से
संगीत का मधुर
गुन गान करती थी
आज वही पहाड़
वीरान पड़ा है
वे बंजर घर जो कभी घर हुआ करते थे
जिसमें बसते थे दर्जन भर लोग
घर में गूंज उठती थी किलकारियां
उन घरों की खिडकियों  से
आवाजें आया करती थी
इस बाखली से उस बाखली तक
अपने घरों की खिडकियों से
आवाज लगाकर
पड़ोसियों से बात किया  करते थे
आज वही घर वही बाखलियाँ बंजर पड़े हैं
मानो ऐसा प्रतीत होता है
आज हमारा पहाड़ रो रो कर
ये एहसास दिल रहा रहा है
तुम बिन में सुना सुना हूँ
तुम हो तो मैं भी हूँ
तुम नही तो मैं कैसे ?
अब भी वक्त है प्यारे
सवांर दे इस पहाड़ को
फिर से हरा भरा बना दे
बस तू ही तो एक सहारा है
अब सहन नही होता
ये वीरान और  सूनापन
अब सब कुछ
तुझपे ही निर्भर करता है
बस बहुत हुआ अब
आ अब लौट भी आ
संवार दे मुझको
फिर से मैं खिल उठूँ
फिर से मधुर स्वर गुन गुना सकूँ
बस यही चाहत है मेरी
अब लौट भी आ
आ अब लौट भी आ ।

गेवाड़ घाटी