Wednesday, March 22, 2017

बखत ख़राब छ्

दाज्यू के झन काया
बखत ख़राब छ्
न होय कया न ना कया
दाज्यू बखत ख़राब छ्।

य द्वी दिने पराणी
जसि तसि काटि जया
त नेतु रनकार हैं
न भल बुलाया न नौक बुलाया
दाज्यू बखत ख़राब छ्

दलाल ऊनि ब्लट, मुशो लिबेर
स्यार, गध्यार भीड़ उधेड़ लिजानी
ख्वार मुण मुणे करिबेर हिटने रया
उथाणि न देखिया न के कया
दाज्यू बखत ख़राब छ्

भिकुदा कुणोछी
भुला जमान पैली जस नी रै गोय
जब गों गाड़क एक-ठो है जांछि
अब पौर वाल लै  सुख दुःख देखि बेर जलनेईं
दाज्यू बखत ख़राब छ्।
भास्कर जोशी 

Monday, March 20, 2017

"अनुपम" पर्यावरण



अनुपम भाई जी का जाना, गांधी शांति प्रतिष्ठान के साथ-साथ हम जैसे युवा साथियों के लिए भी सबसे बड़ी क्षति रही है।  उनकी चर्चित पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब, हमारा पर्यावरण, राजस्थान की रजत बूँदें व अन्य पुस्तकों की बातें हमेशा से होती रही हैं और होती रहेंगी, लेकिन अनुपम जी का पर्यावरण कितना शुद्ध रहा है यह बात सोचने और समझने की है।

हिंदी गांधी मार्ग पत्रिका में उनका पर्यावरण इसका गवाह है। उसकी साज सज्जा से लेकर उसकी भाषा तक, एकदम साफ़ व स्वच्छ। अनुपम भाई जी को एक बार मंच से पत्रकारिता के विषय में बोलते हुए सुना था। भाषा जितनी सरल व सुरुचि पूर्ण हो, पाठक उतने ही सहजता से पढ़ता है। भाषा को आज के परिवेश को देखते हुए ही, अपने क़लम द्वारा उपयोग करना चाहिए ताकि पाठक उसे समझ सके और लेखक अपनी बात सहजता से उन तक पहुंचा सके। यह तो बात थी उनकी भाषा साहित्य की। अब ज़रा अनुपम भाई के काम करने के छोटे छोटे तौर तरीक़ों पर नज़र दौड़कर देखते हैं। उनके काम करने में भी उनका पर्यावरण झलकता है।

मुझे गांधी शांति प्रतिष्ठान के परिवार में जुड़ने का अवसर 2010 के सितम्बर माह में मिला। मुझे पुस्तकालय में डाटा इंट्री का काम सौंपा गया। आए दिन अनुपम भाई जो को पुस्तकों की आवश्यकता पड़ती रहती थी। उन्हें पुस्तकें देना और उनमें से ज़रूरत के पृष्ठों की फोटोकापी करवाना मुझे ही जाना पड़ता। फोटोकापी करवाने से पहले ही अनुपम भाई जी यह ज़रूर बताते की फोटोकापी कैसे करवाकर लानी है।

एक बार उन्हें गांधी विचार का एक कोटेशन 6"X8" के पृष्ठ को ए3 साईज में चाहिए था जो उन्हें किसी को भेंट में करनी थी। हमेशा की तरह फोटोकापी के लिए उन्होंने मुझे बुलाया और कहा- मुझे इस पेज की लार्ज में फ़ोटो कापी चाहिए। और यह भी ध्यान रहे कि इसके लिए आपको अपने प्रतिष्ठान से बाहर भी न जाना पड़े। मैंने कह भाई जी अपने पास तो छोटा ही फ़ोटो कापी मशीन है इसके लिए तो कनाटप्लेस जाना पड़ेगा। क्योंकि अपने पास न ही इतना बड़ा पेज है और न ही मशीन।

अनुपम भाई जी का जवाब मिला-इसे आप पहले एक रफ़ पेज पर फ़ोटोकॉपी निकल लें फिर उसे चार हिस्सों में बाँट दे। उन हिस्सों को आप ए4 साइज जितना लार्ज और साफ़ दिखाई दे उतना करके मुझे दीजिए बाक़ी मैं देखता हूँ।जैसे जैसे अनुपम भाई जी ने कहा ठीक वैसा ही कर एक पृष्ठ का चार पृष्ठों में फोटोकापी कर लाया।

जब अनुपम भाई जी को वे चार पृष्ठ सौंपे तो उन्होंने अपने पास ही बिठा लिया,और कहा - आप बैठकर देखो इसे कैसे सुंदर और उपहार देने लायक बनाया जाता है। मैं पास के कुर्सी पर बैठे बैठे भाई जी को देख रहा था। अनुपम भाई जी ने उन पृष्ठों के सभी कोने हाथ से आड़ा तिरछा फ़ाड़ा, और फाडे गये छोटे छोटे टुकड़ों को अलग संभाल कर रख दिया। बाकि के पृष्ठों को बड़ी सावधानी से गोंद लगाकर उन्हें जोड़ दिया। जोड़ने के पश्चात् ऐसा लगता है कि वे पृष्ठ आपस में जुड़े हुए हैं ऐसा न दिखने के लिए भाई जी ने रंगीन पैन की मदद से उसमें आड़ी तिरछी डिजाइन उकेर दी । अब वह कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा था कि वे चार पृष्ठों को जोड़कर एक कर दिया हो। उस बड़े से पृष्ठ को भाई जी ने एक बड़े से गत्ते पर गोंद से, बहुत ही सुविधाजनक तरीके से चिपका दिया, और उसे एक फ्रेम का रूप दे दिया। अब वह गांधी विचार का कोटेशन उपहार स्वरूप देने के लिए एकदम तैयार था।

अनुपम भाई जी के साथ काम करने में कई छोटी छोटी और महत्वपूर्ण चीजें सीखने को मिलती रही हैं।  हमेशा वे हम जैसे युवा साथियों को कुछ न कुछ सीख देते रहे हैं। अनुपम भाई जी ने हमें बहुत सीखाया है उनकी सरलता , मृदुभाषिता और साथ ही उनके काम करने के तौर तरीके, हर वर्ग के लोगों ने उनसे कुछ न कुछ सीखा ही होगा।

भले ही आज अनुपम भाई जी हमारे बीच उपस्थित नहीं है परंतु वे सदैव ही हमारे दिलों में राज करते रहेंगे। साथ ही  उनके द्वारा किये गए कार्य जो वे हम सबके लिए छोड़ गए हैं उन कार्यों को हम सभी आगे बढ़ाते रहेंगे। अनुपम जी जैसे साधारण व्यक्तित्व के संरक्षण में हमें कार्य करने का अवसर मिला यह हमारे लिए गर्व की बात है। 
भास्कर जोशी

न्यों मुख मंतरी

टिक पीठ्या लगावों रे
न्यों मुख मंत्री ल्ये रोईं
शकुनाख़र गाओ
माँगेय गीत गाओ
शंख घंटी बजाओ
ढोल दमूवे थाप लगाओ
बामाण बुले बेर हवन करो
धूप दीप पाठ पुज करो
जसी तसि जस भल काव हूँ
उस काव पहाड़े लिजी कर ध्यालो धें
न नतर पाँच साल टिकनी भले
या ढाई साल में भाजनी भले
हमर उत्तराखंड कुर्सी पै
क़िल्मौड़ू कान लागि भै
चस्स चस्स बुड़ने रूनी
मुख मंत्री खसिकने रूनी
सात मुख मंत्री हमूल जम करि हाली
आठु मुख मंत्री तुम छा
तुम आपण देई द्वार भलिके भेंट आया
खिचेडि दिणियाँ क़ें खिचेडि दी आया
ईज़ बाब क़ें चान चीताने राया
ख़ूब दिन दुनि दैण क़रिया
झिटी घड़ी समय मिलो तो
देई द्वार भेंटने रैजाया
जनम भूमि, करम भूमि क़र्ज़ तारला
तो पाँच साल आजि मुख मंत्री बडला।
भास्कर जोशी

घंतर-19

घंतर -19

भिकुदा नमस्कार । इसबीच आप गांव गए थे होली पर क्या विशेष रहा?

नमस्कार जी।  आपने सच कहा गांव के होली बार त्यौहार का अनुभव हमेशा ही अद्भुत रहता है। अक्सर हम देखते हैं लोग संस्कृत बचाओ, भाषा बचाओ को लेकर धरना आंदोलन करते रहते हैं। और यह सब होता है शहर में रहकर। मानते हैं कभी आपको समय न मिला हो पर हर बार समय न मिले यह संभव नहीं। अपनी संस्कृति सभ्यता बचाने की जिमेदारी आप और हम पर है। यदि हम लोग ही अपने परम्परा से दूर होने लगे तो भला यह संस्कृति भी कब तक बची रहेगी। धरना आंदोलनों से तो सिर्फ आपका हिंसापन ही दीखता है। और फिर गलती करें आप फिर दोषी ठहराएं सरकार को यह कहीं से भी ठीक नहीं लगता।

सत प्रतिशत सत्य कहा आपने। दूसरी बात यह कि उसबीच आपका किसी से विवाद हुवा था क्या यह सच है ?

विवाद नहीं भाई। बस यों ही थोड़ी नोक झोक बातों ही बातों में हुई थी। जो पूर्ण रूप से तर्क पूर्ण था।

भिकुदा आपके चाहने वाले जानना चाहते हैं कि किस विषय को लेकर नोकझोक हुई थी?

मुझे दुःख तब हुवा जब एक दुकान में सामान लेते वक्त दुकानदार ने प्लास्टिक की थैली देने से इंकार करते हुए  यह दुहाई दी कि प्लास्टिक की थैली रखने पर 500 का जुर्माना है। और हमने थैली रखना बंद करदिया। एक ओर बहुत अच्छा लगा की प्लास्टिक की थैली बंद कर दी। पर प्रश्न यहाँ पर उठता है ग्राहक की सुविधा हेतु थैली ही बंद क्यों ?  जबकि सभी प्रकार के प्लास्टिक बैन होने चाहिए। तमाम कम्पनियां प्लस्टिक पैकेजिंग कर हम तक पहुंचा रही हैं। क्या वह सही है ? उन कम्पनियों पर जुर्माना या बैन क्यों नहीं किया जाता।

भास्कर जोशी

गुमशुदा

सवाल कहीं गुम हो गए
जवाब सारे गुल हो गए
कलम की धार थम सी गयी
लेखक भी सत्ताभोगी हो गए ।

कुछ कहो तो देश विरोधी
कुछ लिखो तो देश विरोधी
ताले लगा लो अपने मुंह और कलम पर
क्योकि प्रमाणपत्र बाँट रहे हैं वे लोग

अब न सवाल रहा न जवाब रहा
रह गया एक मात्र विकल्प आपके पास
झुटे मुह तारीफों के पुल बांधो उनके
वरन देश से विलुप्त होने खतरा आप पर मंडरा रहा।

भास्कर जोशी

संवाद


तुममें और मुझमे बड़ा फर्क है
तुम नेता हो मैं जनता हूँ
तुम कुर्सी हो मैं फाइलें हूँ
तुम्हारे जेबों में गुंडे पलते
और हम उन गुंडों से डरते हैं।
तुममें और मुझमे यही  बड़ा फर्क है

तुम हकाली बाते करते हो
हम सुन सुन कर पक जाते हैं
तुम रोजगार को "काम" से जोड़ते हो
हम दरबदर की ठोकरें खाते हैं।
तुममें और मुझमे यही बड़ा फर्क है

तुम हवा बाजी करतब दिखाते हो
हम दर्शक बन पैसे लुटाते हैं
तुम घोटालों से जन्मे हो
हम रोटी के लिए तरसते हैं
तुममे और मुझमे यही बड़ा फर्क है।

तुम किसानों का हक भी छीन लेते हो
हम अपने  हक  का भी ख़ुशी दे बैठते हैं
तुम गरीबों का भी खा लेते हो
हम पेड़ों पर लटके हुए मिलते हैं
तुममें और मुझमें यही बहुत बड़ा फर्क है।
भास्कर जोशी ।

Monday, March 6, 2017

एक शिक्षा एक स्वास्थ्य व्यवस्था



बल भिकुदा आजकल हमारी शिक्षा और स्वास्थ व्यवस्था एकदम निक्कमी हो गयी है।

ना भुला यह निक्कमी नहीं हुई है बल्कि हमारी सरकारी  शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्ता आई सी यु के वेंटिलेटर पर आखरी सांस गीन रही है। हालत ऐसी है कि अब दम तोडूं या तब दम तोडूं। स्कूलों व हॉस्पिटलों की जर जर हालत है। अगर किसी को भर्ती करवाएं तो न जाने वे हॉस्पिटल या स्कूल कब सर पर टूट गिरे। घर से निकले तो थे शिक्षा या इलाज करवाने पर खुद ही ऊखल में सर डाल बैठे। ऐसी स्थिति है  स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था की।

बल भिकुदा कुछ तो सुधार की करने की आवश्यकता है। अगर सुधार नहीं किया गया तो उन गरीब बच्चों को क्या होगा?

हाँ यह तो है क़ि गरीब परिवार व उनके बच्चों के लिए यह सबसे बड़ी परेशानी का कारण तो है। उन्हें न तो शिक्षा सही से मिलती है न ही इलाज । उन्हें सिर्फ चुनाओं का मुद्दा बनाया जाता है। जब तक एक शिक्षा व्यवस्था और एक स्वास्थ्य व्यवस्था लागू नहीं होती तब तक इस देश में गरीबों की हालत सुधरने वाली नहीं।

बल भिकुदा समाज चारों और बटा हुवा है ऐसे में यह एक समान व्यवस्था कैसे संभव है?

हाँ भुला यहाँ आज सभी अपनी अपनी दुकान खोलकर बैठे हुए हैं । शिक्षा में अलग अलग  धर्म के लोग दूकान खोले बैठे है तो कई  बिजनेश लेकर। एक तालीम व्यवस्था पर तो कोई बात ही नहीं करता । हिंदुओं की दूकान अलग , मुस्लिमों की दूकान अलग, सिख, ईसाई, जैन , बौद्ध आदि सब दूकान खोले बैठे हैं। अगर एक व्यवस्था की बात करते हैं सभी धर्म एक दूसरे पर या सरकार पर इल्जाम लगा देते हैं कि हमारी परंपरा को सरकार नष्ट करना चाहती है। और फिर दंगे शुरू।

जब देश आजादी की मांग कर रहा था तब महात्मा गांधी ने नई तालीम शुरू की थी। जिसका मकसद यही था कि भारत में एक शिक्षा व्यवस्था हो । जिसमें धर्म आड़े न आये। यह शिक्षा व्यवस्था किसी भी धार्मिक भावना को भड़काने की नहीं थी बल्कि सभी एक शिक्षा व्यवस्था के दायरे में आये इसलिए नई तालीम शुरू की थी। नई तालीम का  भार सौंपा गया था महादेव भाई को। कई धर्म के लोगों ने इसपर तब भी उंगुलियां उठाई थी। आज भी अगर सभी धर्म जाती के लिए एक व्यवस्था करें तो कई धर्म गुरुओं को मिर्च लग सकती है एसा सम्भव है। यदि भारत देश सच में गरीबों की उन्नति चाहता है विकास करना चाहता है तो देश में एक शिक्षा एक स्वास्थ्य पर काम करने की जरूरत है।

बल भिकुदा स्वास्थ्य व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था तो आज कॉरपोरेट का रूप ले रही है ऐसे में यह कैसा संभव है?

बिकुल मैं जब आज छोटे छोटे बच्चों को देखता हूँ तो उनका बचपन देखकर बड़ा दुःख होता है कहीं न कहीं लगता है कि उन बच्चों का बचपन अन्धकार में हैं वे किताबों के बोझ तले दबे हुए हैं। अभी कुछ दिन की ही बात है मेरे दोस्त का बेटा अभी  दो साल का है। एल केजी में एड्मिशन दिलाने ले गया था पर जब वह स्कुल में गया तो उसके हाथ पांव सरग लग गए। स्कूल की फीस और स्कुल की शर्तें देख भौंचक्का रह गया। दो साल का बच्चा क्या पढ़ेगा उसे कितनी समझ होगी। पर जब एड्मिशन की फीस 30000 (तीस हजार ) बताई तो हाथ पांव फूल ही जायेंगे । उसके बाद से स्कुल की शर्त । शर्त यह थी कि माँ पिता को टेस्ट देना होगा। ताकि जब होमवर्क दिया जाय तो माँ बाबा हल करके देंगे। अगर सब माँ बाप को ही करना है तो स्कुल में शिक्षक क्या करेंगे । उन्हें किस बात की इतनी फ़ीस।

वहीँ स्वास्थ्य की बात करें तो अभी दो हप्ते पहले हमारे साथी का पूरा परिवार दुर्घटना ग्रस्त हो गया। जिसमें काफी जानमाल का नुकसान हुवा पर जो बच गए उन्हें एक हॉस्पिटल ने बड़ा ही अच्छा खासा चुना लगा दिया। दुर्घटना ग्रस्त लोगों के हाथ पांव टूटने पर सिर्फ पट्टी बाँधी और एक आदमी का बिल बना दिया दो लाख का जबकि प्लास्टर लगवाने के लिए दूसरे हॉस्पिटल के लिए रेफर कर दिया।

 आज शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्था बिजनेश की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं ऐसे में सरकारी शिक्षा व्यवस्था और् स्वास्थ्य व्यस्था को कोई पूछ नहीं रहा है। सरकारी व्यवस्था एकदम मरणासन की स्थिति में ।  सरकार को अगर भारत की स्थिति को सुधरना है तो उसे कॉरपोरेट जगत की कमर तोड़कर एक समान व्यवस्था करनी होगी।

बिलकुल भिकुदा आपकी बातों में सचाई नजर आती है। अब देखते हैं कि जनता इसे किस नजर से देखती है।
भिकुदा की "एक शिक्षा एक स्वास्थ्य" नीति को आप किस नजर से देख है यह आप  पर छोड़ते हैं आप अपने विचार जरूर दें ।

पभजो

पढ़कर अच्छा लगे तो आगे शेअर जरूर करें ताकि गरीबों के उत्थान की दिशा में देश आगे बढ़ सके

Wednesday, March 1, 2017

होली पर भीकू दा से चर्चा


बल भिकुदा होली आने वाली है। होली पर आप क्या विशेष करने वाले हो?

दै भागि ! वो ज़माना था जब बसंत पंचमी से घुच्च् लगाना शुरू कर देते हैं । शाम को गांव घर में बैठकी  होली का संगत होता था । "बलमा घर आये कौन दिना" "बलमा मत छेड़ो बिदक जाऊंगी" और भी बहुत से पुराने गीत होली अपने बुबु- बड़बज्यु  लोग सुनाते थे बड़े रंगत और अदाकारी के साथ। वह क्या दिन थे।

पर भिकुदा अब ऐसा क्या हो गया। होली प्रथा को आज भी गांव के लोग बढ़ा ही रहे हैं।

बेसक भुला। अब गांव में बचे चंद लोग जैसे तैसे उस प्रथा को ढो रहे हैं। गांवों का हाल ऐसा हो गया है कि बड़े बूढ़े बुजुर्ग यह कहकर होली में नहीं जा रहे हैं कि यह युवाओं का त्यौहार है हम बुजुर्गों का क्या काम। वहीँ नई पीढ़ी के बच्चे व्हाट्सअप और फेसबुक में ब्यस्त हैं। वहीँ होली वहीँ दिवाली। अब बचे कुछ चंद लोग जो गांव रस्मो रिवाज को जैसे तैसे बचाये हुए हैं वे भी कब तक अपनी परम परागत होली को  बचा कर रख सकेंगे।

हाँ भिकुदा आपकी बात सच मालूम होती है। आज अधिकांस गांव के लौंडे मोडे शहर निकल चुके हैं ऐसे में अपनी परंपरा को बचाना मुश्किल है।

हाँ भुला। हमारा जमाना था। जब तल बाखली, मल बाखली, वौर् बाखली-पौरे बाखली, न-कुड़ बाखली में लौंडों-मौडों की भरमार थी। एकादशी के दिन  होई खाव में जब चीर बाँधी जाती थी , उस दिन से बच्चों के बीच  होलिका चीर पकड़ने के लिए तना तनी शुरू हो जाती। रंग गुलाल से सभी के मुख बंदर से लाल पिले बने रहते थे। इसमें न बच्चे छुटे रहते न ही बड़े बूढे। बांस की पिचकारी बनाते थे, होली शुरू होने से पहले ही। उस पिचकारी को पकड़ने के लिए दो लोग चाहिए होते थे। क्योंकि पानी भरते ही उसका भार उठाना और पिचकारी मारना मुश्किल होता था। तब एक पिचकारी को पकडे रखता तो दूसरा पिचकारी धक्का लगाता।

बिकुल भिकुदा। अब तो सब बाजार ने कब्ज़ा कर लिया है चाहे वह रंग हो या पिचकारी।

हाँ भुला, लेकिन अब वे सब छोटे छोटे बच्चों के लिए ही रह गए हैं । क्योंकि अबकी नयी  पीढ़ी, 15 से 30 वर्ष के लोग सोशल मीडिया में मस्त हैं  30 से 45 वर्ष के लोग शराब में मस्त हैं 45 से 60 वर्ष के कुछ गिने चुने  लोग होली में आते हैं वहीँ 60 से अंत तक अपने को बूढा समझकर घर के खटिया पर लेटे लेटे अपने दिनों को याद करते हैं ।
अगर हमारी युवा पीढ़ी व्हाट्सअप फेसबुक को छोड़ परम्परागत होली को देखे और सुने तो सायद अभी और कुछ वर्षों तक अपनी बैठकी और खड़ी होली बच सकती है।

भीकू दा से सवाल जबाव जारी है होली के बीच में भिकुदा से फिर बात करेंगे। लेकिन एक बात आप सबसे जरूर कहना चाहूंगा कि इसबार की होली मनाने अपने गांव जरूर जाएँ। अपनी परम्परागत विरासत को बचाने की जिम्मेदारी हम और आपकी है।तब तक के लिए आज्ञा दें। धन्यवाद

नमस्कार , जय उत्तराखंड , जय भारत
पभजो

भीकूदा से सीधी बात

बल भीकू दा इसबार किसकी सरकार बन रही है उत्तराखंड में ?

भुला सरकार मोदी जी की बने या ट्रम्प की मिलना तो हमें सिर्फ भाषण ही है। यदि भाषणों से पेट भर जाता तो हम भाषण खाते । भाषण पीते, भाषण ही भाषण होता पर यह भाषण नहीं बल्कि उत्तराखंड के भषाण हैं जो हजम न होकर अपच कर रहा है।

बल भीकू दा आप तो न चुनाव प्रचार में दिखे न ही किसी पार्टी के पक्ष में बोले,? जबकि 2014 के लोक सभा चुनाव में मोदी मोदी बोले थे ऐसा क्यों ?

देखो भुला आशा थी कि नई सरकार आएगी तो तो कुछ करेगी। जबकि उस समय की मौजूदा सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त थी। जहाँ देखते थे या सुनते थे फलाना घोटाला ढिम कना घोटाला ही सुनने में आता था । यही कारण था कि पूरा देश बदलाव के मूड में था जिसके झोंके में हम भी लहरा गये थे। परंतु उत्तराखंड की स्थिति बड़ी नाजुक है। यहाँ के मानुषों की देख रेख में दोनों ही पार्टियां विफल रही हैं।

बल भिकुदा लोग तो बोल रहे हैं मोदी जी न किसी को खाने देंगे न ही खुद खाएंगे ?

भुला जब किसी को न खाने देना है न खाएंगे तो शौचालय बनाने की जरुरत ही क्या है। जब कुछ खाएंगे ही नहीं तो शौचालय जाने की जरुरत ही क्यों? अब उत्तराखंड का ही गणित देख लीजिए यहाँ एक शौचालय देहरादून में बना दिया दूसरा गैरसैण में बनने जा रहा है। और यह भी कहते हुए सुना है कि छः महीने देहरादून के शौचालय में जायेंगे और छः महीने गैरसैण में । आखिर यहाँ दो शौचालय बनाने की जरूरत क्यों? क्या यह उत्तराखंड की जनता को लूटकर नहीं बनाया जायेगा ?

बल भिकुदा सभी राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्र में गैरसैण को प्रमुखता दी है?

जरूर दी होगी भुला, इसमें कोई संका नहीं। क्योंकि वह दीर्घ संका है अगर वे गैरसैण को महत्व नहीं देंगे तो पेट खराब होने पर कहाँ जायेंगे? राजनीतिक पार्टियां पहले शौचालय जाने का पूरा बंदोबस्त कर लेती हैं। वे जानते हैं शौचालय जानता के मन रखने के लिए बनाया जाता है  जबकि उसका उपयो राजनीतिक पार्टियां ही करती हैं। तो भुला जब जनता का पेट खराब हो जाए तो वे कहाँ जायेंगे ? गधेरे में ही ना !

बल भीकू दा इधर उधर न जाते हुए सीधे मुद्दे पर आते हैं । 11 मार्च को उत्तराखंड का परिणाम घोषित होने वाला है आपको क्या लगता है किसकी सरकार ?

भुला सरकार कोई भी बनाये , किसी भी पार्टी की बने , सरकार जनता की हो तो बात बने। पर ऐसा कभी होता नहीं। सरकार सिर्फ नेताओं की बनती है। उधर से काना फूसि भी हो रही कि नेताओं के बीच खरीदारी शुरू हो गयी है बल। और जीतने पर करोड़ों में बोली लग रही है। अब यह बताओ कि मंत्री संत्री बनने के बाद ये भरपाई कहाँ से करेंगे ?

भिकुदा आप राजनीतिक पार्टियों से इतने खिन्न क्यों ?

खिन्न नहीं हों तो और क्या होवें, उत्तराखंड को बने हुए 17 साल हो गए, उत्तराखंड की जनता को मिला क्या- पलायन, बेरोजगारी, ऊपर से शराब के ऑटो मोबाइल सर्विष दे डाली। जहाँ महिलाओं ने लड़ झगड़ कर ठेके बंद करवाये थे वहां चलते फिरते शराब के ठेके लगा डाले। ऐसे में सरकारों से हम क्या उम्मीद रखें ?

भिकुदा से सवाल जबाब जारी है।
बने रहे भिकुदा से
धन्यवाद
नमस्कार
पभजो

गेवाड़ घाटी