Saturday, May 28, 2016

पहाड़ का दर्द


तुमने यह क्या किया रे
कभी आपदा तो कभी आग
कभी पलायन तो कभी सूखा
इन सबका ज़िम्मेदार कौन है रे कौन है ?

जंगल तुम काटो
बाँध तुम बाँधो
उलट पलट तुम करो
भुगतना मुझे पड़ता है

पानी की बर्बादी तुम करो
सूखे के हालात तुम पैदा करो
जब मचे पानी की त्राहि त्राहि
तब भुगतना मुझे पड़ता है

चीड के पेड़ तुम लगाओ
लीसा उस से तुम कमाओ
जब लगे आग जंगलों में
तब भुगतना मुझे पड़ता है

पहाड़ छोड़कर तुम भागो
घर को खंडहर तुम बनाओ
अकेलेपन की बेचैनी से
भुगतना तो मुझे पड़ता है

कैसे मतलबि हो तुम लोग
अपने सुख से मुझे भूल जाते हो
करते, धरते सबकुछ तुम ही हो
भुगतना तो मुझे पड़ता है

मुझे तुम ज़ख़्म पर ज़ख़्म देते रहो
मैं पीड़ा से झुँझलाती रहूँ
तुम नोटों के बंडल में बेच डालो मुझे
भुगतना तो मुझे पड़ रहा है

भास्कर जोशी
9013843459

पहाड़ का दर्द


तुमने यह क्या किया रे
कभी आपदा तो कभी आग
कभी पलायन तो कभी सूखा
इन सबका ज़िम्मेदार कौन है रे कौन है ?

जंगल तुम काटो
बाँध तुम बाँधो
उलट पलट तुम करो
भुगतना मुझे पड़ता है

पानी की बर्बादी तुम करो
सूखे के हालात तुम पैदा करो
जब मचे पानी की त्राहि त्राहि
तब भुगतना मुझे पड़ता है

चीड के पेड़ तुम लगाओ
लीसा उस से तुम कमाओ
जब लगे आग जंगलों में
तब भुगतना मुझे पड़ता है

पहाड़ छोड़कर तुम भागो
घर को खंडहर तुम बनाओ
अकेलेपन की बेचैनी से
भुगतना तो मुझे पड़ता है

कैसे मतलबि हो तुम लोग
अपने सुख से मुझे भूल जाते हो
करते, धरते सबकुछ तुम ही हो
भुगतना तो मुझे पड़ता है

मुझे तुम ज़ख़्म पर ज़ख़्म देते रहो
मैं पीड़ा से झुँझलाती रहूँ
तुम नोटों के बंडल में बेच डालो मुझे
भुगतना तो मुझे पड़ रहा है

भास्कर जोशी
9013843459

खंडहर की पीड़ा

जब भी
उन खंडहर
वीरान पड़े
घरों को देखता हूँ
तो उसकी चीखें
सुनाई पड़ती है
दर्द भरी दाँसता
कानों में गूँजती है
बचा लो मुझे
बचा लो।
लड़खड़ाई उधड़ती दीवारें
ठंड गरमी की मार
साल दर साल
इंतज़ार में तुम्हारे
पुकारती, आवाज़
मेरे कानों तक
बचा लो मुझे
बचा लो।
अध मरे हालत में
कंप कँपाती हुई
दर्द के क़हर से
अपने रखवालों को
आवाज़ देती
ओ मेरे लाल
बचा लो मुझे
बचा लो।
कल तक इसी आगन में
बच्चों की किलकारियाँ थी
खेले कूदे, नाचे गाये
मौज की मस्ती थी
शादी की गूँज थी
अपनो का भरा पूरा संसार था
न जाने किस
मनहुस की नज़र लगी
मेरा दामन सूना पड़ गया
घर-घर न रहा
वीरान, सन्नाटे से भरा
बस वही एक अकेली
आवाज देती
बचा लो मुझे
बचा लो।
मेरी "धात"
क्यों किसी के कानों तक नहीं जाती
क्यों उन्हें मेरी पीड़ा का अहसास नहीं होता
मेरी फ़िक्र किसे है
कौन करे रक्षा
कौन मुझ बदनशिब की सुध लेगा
फिर भी वह इंतज़ार में है उसके
कोई तो आएगा
जो उसे संवरेगा
वह आज भी
इंतज़ार कर रही है तुम्हारा ।
तुम आओगे ना!
तुम आओगे!

भास्कर जोशी
9013843459
photo:नेट से डाउनलोड

Thursday, May 12, 2016

धूँ धूँ कर जल रहा पहाड़

लो जी आजकल हर मीडिया चैनल पर उत्तराखंड पहाड़ी क्षेत्र फिर सूर्खियों में है लेकिन इसबार राजनीतिक कारणों से नहीं बल्कि आग की वजह से है। इसबार यह आग की लपटें केंद्र सरकार तक जा पहुँची। लेकिन समझने वाली बात यह है कि पहाड़ी क्षेत्रों में यह आग कोई नई बात नहीं है। मैंने जबसे होश संभाला है तब से यह आग हर साल, इन्हीं महीनों में लगती हुई देखी है बल्कि हम उस द्वरान आग बुझाते भी थे। इस गरमी के मौसम में पहाड़ एक बार नहीं जलता बल्कि तब तक जलता है जबतक कि बारिश नहीं होती। यह आग दो या तीन दफ़े भी लग सकती है । और यह हर साल की आग है। लेकिन केंद्र सरकार को इसबर आग दिखाई दी इसबात के लिए ख़ुशी मनाऊँ या दुःख यह  आप ही तय करें।

सबसे मज़ेदार की बात तो यह है कि मीडिया को भी इसबार उत्तराखंड की आग आख़िर कार दिख ही गयी। वरना हर साल की तरह इसबर भी पहाड़ चुपके से धु धूँ कर जल रहा होता। एनडीआरएफ़ की टीम आग को बुझाने में लगी है कुछ हद तक क़ाबू करने में सफल भी रही है लेकिन अबतक आधे से अधिक पहाड़ का हिस्सा जलकर राख हो चुका है। वन कर्मचारी भी बिचारे कहाँ तक बचा पाते हैं गाँव  के बुज़ुर्गों  से अक्सर एक कहावत सुनते हुए आए है "आग और पानी से भला कौन बच पाया है" यही हाल उत्तराखंड पहाड़ी क्षेत्रों का भी है। जब पानी बरसता है तब आफ़त की बाढ़ आती है और जब आग लगती है तो पहाड़ को जलाकर राख कर देती है।

पहाड़ में आग का मुख्य कारण है चीढ ke पेड़। चीढ के पेड़ों का अतिक्रमण होना यह पहाड़ के लिए सबसे बड़ा संकट बनता जा रहा है पहाड़ को उजाड़ने में चीढ के पेड़ों का विशेष योगदान है। वह पानी के जल स्रोतों को तो नष्ट करता ही है साथ ही साथ चीढ के सूखे हुए पत्ते विनाशकरी आग की लपटों को भी जन्म देती है। चीड के पेड़ों से अगर सबसे जादा फ़ायदा किसी को है तो वह है राज्य सरकार को। क्योंकि चीड से निकलने वाला लीसा उनके राज कोष में जाता है लीसे से राजनेता, ठेकेदारों की अच्छी ख़ासी मोटी कमाई होती है। इसलिए भी राज्यसरकार उन चीड के पेड़ों को नष्ट नहीं कर सकती है या यूँ कहें की चीड के पेड़ रहें तो ठेकेदार रहें, नेता रहें  और सरकार फले फुले। एसे में भला इस कमाऊ पूत पेड़ को सरकार नष्ट क्यों करे। भले ही पहाड़ आग की लपटों में जलकर ख़ाक ही क्यों न हो जाए।

अगर पहाड़ में चीड के पेड़ की जगह बाँझ के जंगल बसाए होते तो सायद पहाड़ यूँ आग के लपटों में घिरा ना होता। इस आग की लपटों में ना जाने कितने जंगली जानवर पशु पक्षी जलकर ख़ाक हो जाते हैं। ख़ास बात यह है कि एनजीटी को इतने सालों से पता नहीं लगा कि पहाड़ में आग भी लगती है। कहीं न्यूज़ रिपोर्ट में पढ़ा था कि एनजीटी ने उत्तराखंड और हिमाचल को नोटिश भेज है। तो क्या इतने वर्षों से एनजीटी सोई हुई थी या किसी ने इनकी आँखों में पर्दा डाल दिया था।

यदि एनजीटी सच में पहाड़ को बचाना चाहती है, पर्यावरण को शुद्ध रखना चाहती है तो पहाड़ से चीड के पेड़ों को नष्ट कर बाँज, बुरांश आदि जैसे पेड़ों को लगाना होगा। वरना हर वर्ष की भाँति पहाड़ यों ही धूँ धूँ कर जलता रहेगा। या फिर एनजीटी सिर्फ़ फ़ाइल बनाते रहे। या सिर्फ़ काग़ज़ी कार्यवाही ही करते रहे। क्योंकि जमनी हक़ीक़त तो कुछ और ही कहती है।
भास्कर जोशी
9013843459

गेवाड़ घाटी