Thursday, December 31, 2015

2015 जान जाने कैगो

घूम फिर बे आजि जनवरी ऐगो
नई सालक 2016 कलेंडर दिगो।
2015 जान जाने कैगो
भुलिया झन याद करने रया कैगो।

साल भरक गणना करिया
के भूल चूक हैगेछि याद करिया।
2016 में गलती झन दोहराया
यस 2015 कलेंडर कैगो।

आपणा कें याद धरिया
फोन-सौन-ठोंन करने रया
हंसिया-खेलिया, द्वड मौट है जाया
यस 2015 कलेंडर कैगो।

बुजुर्गों सेवा करला, आशीर्वाद फई जो
दिन दुगुण, रात चौगुण तरक्की करो।
ईजा बौज्यु सेवा करो
यस 2015 कलेंडर कैगो

जान जाने त म्यर नसीहत याद धरिया
सब आपणे छिं ककेँ दुःख झन दिया
ख़ुशी द्यला, खुश होला, बरकत ह्वेली।
यस 2015 कलेंडर कैगो। -प.भ.जो.पागल

Tuesday, December 29, 2015

मेरी ठेकुली



कुमाउनी गीत

म्यर बाना मधुली मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,
काँ हरे गेछे मेरे ठेकी
ठिकुली ठेकी,

वार चायो, पार चायो
नि देखि तेरी गौर-फनार मुखडी,
तिगणि चान चने म्यर कमरे पड़गे टस्की
ठिकुली ठेकी,
कपन अलाषी रछे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

धात लगौन लगौने मेरो
गौवा यो चिरोडी गो
पट्ट लेसी गे मेरी अवाजा
ठिकुली ठेकी,
को कुण लुकी रछे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

वल कुड़ी पल कुड़ी
धुरकिणे में रेंछे तू
एक जगां नि टिकनि तेरी ठौरा
ठिकुली ठेकी,
धूरका-धुरूक कहाँ हैरे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

गांव और पलायन का रोना धोना


गांव-गांव नही रहे अपितु खँडहर हो गये। जी हाँ आप बिलकुल सही समझ रहे हैं। भारत के अधिकांश गांवों की कहानी कुछ यही कहती हैं। पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लकर दक्षिण तक के गांव ख़ाली होते जा रहे हैं। गांवों में लोग रहने को तैयार नही हैं। सभी शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। भले ही शहर के एक कोने के एक कमरे में भेड़ बकरियों की तरह घुट कर जियें, लेकिन रहना शहर में ही है।

गांव की सुन्दर प्राकृतिक हवा, पानी को छोड़, शहर के प्रदूषण में रहना अपने को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं लेकिन गांव में वे अपने को असहाय समझने लगे हैं। एक दूसरे की देखा देखि में बाकि गांव के लोग भी गांव छोड़कर शहर की ओर रुख कर रहे हैं गांव में बने आलिशान महलों को खँडहर बनाने के लिए छोड़ रहे हैं ।

पलायन की गर बात करें तो सबसे अधिक उन राज्यों पर पड़ा है जहाँ अभी तक सुख सूविधा के लिए लोग वंचित हैं, विशेषकर उत्तराखंड, हिमांचल पहाड़ी क्षेत्रों के अलावा बिहार, छतीसगढ़, झारखण्ड जैसे राज्य पलायन का रोना रो रहे हैं। पलायन का दर्द क्या है यह उन गांवों में जाकर उन खंडहारों से पूछना पड़ेगा कि ऐसी दुर्दशा किसने, कैसे और क्यों हुई? ख़ाली खंडहर घरों में बताने के लिए तो आपको लोग मिलेंगे नही, हाँ आपको वहां के घर, वहां के पेड़, पौंधे, हवा, पानी आपको एहसास जरूर करायेगी की इनके साथ पराया जैसा बरताव क्यों हो रहा है।

अगर मैं ये कहूँ कि यह सिर्फ पलायन की मार एक गांव या एक क्षेत्र का है तो यह गलत होगा क्योंकि यह अधिकांस भारत के अन्य गांवों के साथ अन्याय होगा, जो पलायन की चपेट में आकर रोना रो रहे हैं। यही बात अगर उत्तराखंड की करें तो पिछले एक या दो दशक से पहले गांव अपने अच्छे खासे हालत में थे। एकाएक उनके साथ ऐसा क्या हुआ कि गांव के गांव खाली होने शुरू हो गए? इस प्रश्न पर मंथन करना बहुत जरुरी है।

200-300 परिवारों का एक गांव में आज सिर्फ गिने चुने 30 या 40 परिवार ही रह गए हैं बाकि के शेष परिवारों के घरों में ताले लटके हुए हैं। जो व्यक्ति गांव में रहा है जिसने गाँव को जिया है वह  घरों की ऐसी जरजर हालत देख एकाएक आँखों से आँसुओं की धार को रोक नहीं पाएंगे। गांवों की हालत यह है कि जो परिवार जैसे तैसे अपना जीवन गांव में बिता रहे थे, आज वे भी अपने घरों के केवाड़ में ताला लगाने को मजबूर हैं। वे भी शहर का रुख कर रहे हैं। कई घरों की हालत इतनी बत्तर हो चुकी है कि कभी भी टूट कर गिर सकते हैं। हाल यह है कि उन घरों की देख रेख करने वाला कोई नही।

अब भी  गांव में बचे कुछ लोग अपनी किस्मत आजमा रहे हैं इसी आस पर कि कोई तो उनकी सुध लेने को आएगा।वे लोग अपनी निर्धनता के कारण गांव नही छोड़ सकते हैं, उनके पास इतना पैसा नही है कि वे लोग शहर जाकर रह सके । कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होने अपना पूरा जीवन बचपन से लेकर जवानी और अब इस बुढ़ापे तक का जीवन गांव में रहकर ही जिया है, अब अंत के दिनों में वे अपने गांवों में ही रहना पसन्द करते हैं। वे लोग नही चाहते कि इस उम्र में शहर जाकर घुटन की जिंदगी जिया जाय। उनका कहना यही है कि अब मरेंगे तो अपने गांव में, शहर की चकाचोंध तुम्हें ही मुबारक ।

कुछ लोगों का गांव में रहना मजबूरी सी हो गयी है। ये वे लोग हैं जो सरकारी कर्मचारी हैं जैसे-शिक्षक, वन विभा व अन्य सरकारी संस्थानों के कर्मचारी हैं। इनमें कई सरकारी कर्मचारी ऐसे है जो अपने गांव में रह तो रहे हैं लेकिन उनके बच्चे, उनका परिवार शहर में रह रहा हैं जिस दिन इन्हें छुट्टी मिलती है उस दिन ये अपने परिवार के साथ छुट्टी बिताने चले जाते हैं। या यूँ कहिये ये लोग सिर्फ अपनी नौकरी-पेसे के लिए गाँव में रह रहे हैं।

गांवों में रहे-सहे कुछ ठेकेदार कुछ नेता बिरादरी के लोग जो कि गांवों में अपना फन फैलाए बैठे है। जो लोग गांवों से पलायन कर गए हैं उनकी जमीनों पर इनकी टेडी नजर हैं उन जमीनों से पत्थर मिट्टी जो हाथ लगे बेच रहे हैं कोई रोकने टोकने वाला नही। जैसा चाहे वैसे मनमाने तरीके से फल फूल रहे हैं। बैठे बिठाये करोड़ों का माल अन्दर बहार हो रहा है।

आज वे ही लोग गांव में रह रहे हैं जिनकी या तो मजबूरियां रही होंगी या फिर वे लोग जिनका धंधा-पानी अच्छे से फल फुल रहा हो। बाकि बचे गांव के लोग पलायन कर गए हैं, कई और गाँव के लोग पलायन करने की तैयारी में हैं। गरीब परिवार गांव छोड़ने पर मजबूर हैं गांव का जीवन कष्टदाई तथा दूभर होने लगा है। आस-पड़ोस के खाली घरों को देखकर उनका जीवन खाली खाली सा लगने लगा है गांवों में एक कहावत अक्सर कही जाती है “खाली घर और खंडहर भूतों का घर होता है”। गांवों का यह हाल देख कर बाकि के लोग अब छोटे छोटे शहरों में, जहाँ चंद लोगों का जमघट हो, वहां रहना उनके लिए एक मात्र विकल्प बचा है |

        गांवों से पलायन की अगर बात करें तो वर्ष 1991 से 2001 के बीच 7 करोड़ 30 लाख ग्रामीण अपने मूल-निवास स्थान से कहीं और जाने के लिए विवश हुए हैं। इसमें से अधिकतर 5 करोड़ 30 लाख ग्रामीण किसी अन्य गांव में जाकर बसे हैं, जबकि एक तिहाई से भी कम याने कि 2 करोड़ के आसपास ग्रामीणों ने शहरों का रुख किया। यदि 1991 से 2001 के बीच का निवास-स्थान को आधार माने तो 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा, जोकि देश की जनसंख्या का 30 फीसदी है। प्रथम जनगणना 1951 के समय में ग्रामीणों की आबादी 83 प्रतिशत एवं शहरी 17 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना में यह गांवों में घटकर 68 प्रतिशत और शहरों में बढ़कर 32 प्रतिशत हो गयी।पलायन का एक कारण यह भी रहा कि गांवों के कुटीर उद्योगों का पतन, भूमि हीन किसान, ऋणग्रस्तता, सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा का पतन। शिक्षा व्यवस्ता पर एक नजर डालें तो  हाल यह है कि न स्कुल हैं न ही पढ़ाने को टीचर। भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है बहार की दुनियां क्या है, कैसी है इन सबसे वे लोग बेखबर हैं। कई गांवों का हाल कुछ अजीबोगरीब है। सरकारी योजनाओं के तहत सरकारी स्कुल खोले तो गए हैं लेकिन उन स्कूलों में  पढने के लिए बच्चे  हैं मगर टीचर नही हैं। कई स्कूलों में हालात ऐसे भी देखने को मिले हैं जहाँ एक टीचर है और पढ़ने के लिए 2 बच्चे। कई गांव में और भी बुरा हाल है  पढ़ने के लिए न ही बच्चे हैं न ही टीचर। सरकारी योजना के तहत जहाँ-तहां स्कुल खोल दिये हैं मगर   उन  गांव के लोग उस स्कुल को बाराती घर के रूप में प्रयोग करते हैं। कुलमिलाकर शिक्षा व्यवस्था एक दम चौपट है।

         वहीँ  दूसरी तरफ कुटीर उद्योगों पर नजर दौडाएं तो हालात और भी बुरे हैं। ग्रामीण लोग आजीविका के लिए दर दर भटक रहे हैं यदि गांवों में छोटे-छोटे कारखाने, उद्योग वगैरह आजीविका के लिए काम मिल जाता तो पलायन की इतनी बढ़ी समस्या उत्पन्न नही होती। राज्य व केंद्र सरकारों से मदद भी अगर मिली होती तो थोड़े बहुत कुटीर उद्योगों से ग्रामीणों का जनजीवन सुचारू रूप से चलता रहता पर ग्रामीणों के उद्योगों पर सरकारों ने कभी ध्यान दिया ही नहीं। वहीँ केंद्र सरकार स्मार्ट सिटी के नाम से  विकास के नाम पर दम ख़म भर ही है। अगर सही।माइने में सरकारें विकास करना चाहती हैं तो पहले गांवों से छोटे छोटे कुटिर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा।तभी देश की आर्थिक स्थिति और मजबूत होगी।साथ ही इस तरह के पलायन से सांस्कृतिक संघर्ष को तो जन्म देती ही है बल्कि नैतिक मूल्यों का भी अवमूल्यन होता है। गांवों में रोजगार के वैकल्पिक अवसरों का आभाव है। उच्च शिक्षा के प्राप्ति के लिए भी हमारे देश में पलायन का मुख्य कारण रहा है पलायन का एक मुख्य कारण भी रहा है, वह है सामाजिक विषमता तथा शोषण। बहरहाल वजह कोई भी हो लेकिन सीमा से अधिक पलायन हमारे सामाजिक तथा राष्ट्रिय तानेबाने के लिए हानिकारक हो सकता है।

धरती माँ

प्यारी सी
दुलारी है वो।
नटखट सी
खिलखिलाती है वो
हंसती है तो
जग को महका देती है  वो
खेलती है तो
संग प्रकृति भी ठुमके लगाती है।
रोती है तो
जग में तांडव मचा देती है वो
छेड़े गर कोई उसे तो
आग के गोले बरसा देती हैं वो
पूजा करे उसकी कोई तो
खनिजों का अमबार लगा देती है वो।
खंजर घोंपे अगर कोई तो
खाक ए सुपुर्द कर देती है वो ।
देख भाल करें उसकी तो
सीने से लगाकर स्वर्ग की अनुभति करा देती है वो।
ऐसी ही है मेरी
प्यारी सी दुलारी सी
नटखट सी मेरी धरती माँ। 

हमका भी कुर्सी देई दो

एक मौका हमका भी
एक बार कुर्सी  हमका भी
कब से है सत्ता की भूख
बस एक मौका हमका भी देइ दो

पंदर बरस से प्यासे हैं
भूख भुझी न प्यास भुझी
फिरभी मौके के जुग्गत में हैं
बस एक मौका हमका भी देइ दो

एक बैटिंग करे दूजा करे फील्डिंग
हम मुक दर्शक बन बैठे बाउंड्री पार
सीख गए देखा-देखी हम भी बैट पकड़ना
बस एक मौका हमका भी देइ दो

कभी बीजपी कुम्भ घोटाला करे
तो आपदा कोष खाये कांग्रेस
उसकी गोद में हम बैठे जिसकी चले सरकार
बस एक मौका हमका भी देइ दो

अब तो फिट हैं हम भी दौड़ में
दौड़ेंगे जी जान लगाकर
पक्ष विपक्ष जो मिल जाए
बस एक मौका हमका भी देइ दो।

उत्तराखण्ड देन है हमारी आंदोलन की
हमारे संघर्षों का परिणाम है उत्तराखंड
एक बार कुर्सी हमका भी चाहिए
बस एक मौका हमका देई दो।

Thursday, December 24, 2015

बखते की बलें

बेई ब्याव में दगडीए दगै ब्योली देखें जैरछी। दगड में दगडीएक इज लै छी । दगडीए इज ब्योलि परिवार थें सवाल जवाब पूछने कछा-
दगडीए इज -के के कारोबार कर लीं तुमर चेली ।
ब्योली इज- घरपनक कम कर लीं पै।
बरक इज -खां पाकुण आंछो नि आन ।
ब्योली इज- रसोई में तो कम जें पै उसी अटक-बिटक में काम करनें छू
बरक इज- और के के काम शिखी छू तुमर चेलिल ।
ब्योली इज- सिलाई और कंप्यूटर कोर्स करी छू येल।
(मैं बहुत देर बटी उन लोगों बात गौर हैं बे सुनणोयी कछा। मन मन में हैन्सी ले उणेछी। चलो बात-वात सब पक्की है गेई। म्यर दगडी म्यर मुख चाही होय कि पागल ज्यू जी के कौल आपण राय साय द्याल। मी मन मन में हंसण रौछी। दगडी कणी संका है पड़ी की पागल ज्यू हैंसण किले रेई )
दगडी - पागल ज्यू के बात है गे तुम किल हैंसण छा
मैं - कुछ ना यार बस इसके हैन्सी उणे ।
दोस्त - फिर ले के बात हैगे ब्योलि में के खोट तो नहा
मैं - अरे यार तस के बात निछ । बस मी तो जो पूछ ताज चल रछि बस वी सोचण छी कि भविष्य में कुछ अलग माहौल हुणि छ बस वी कल्पना करण छी ।
दगडी - कस माहौल पंडितज्यू ?
मैं - ऐल बर जाणेयी ब्योली देखेहें कुछ सालुं बाद चेली एँल बर देखें हैं तै। तब चेली-बेटी सब नौकरी वाल हैंल और च्याल उभें बेरोजगार। आई तक च्याल करांक ल्यूणेयी बरयात बाद में चेल करांक ल्येन । उ टाइम पर जब चेली करांक बर कें देखेहें जैंल तब चेली तरफ बटी पुछेंल बर वाहुं सवाल जबाब -
चेली तरबे - के के कारोबार कर ल्यूं तुमर च्यल
च्यल करांक- घरपने सब काम कर ल्यूं पे
चेली तरबे - खां बनूण, भाना-कुना, कपड धूंण-धांण कर ली छो तुमर च्यल ।
च्यल करांक- होय सब कर ल्यूं हमर च्यल । सब काम सिखाई छ येल। शिलाई, धुलाई, भाना-कुना, गोर-भैंसुं दूध धुलौंण सब काम जाणु हमर नान। बहुते सिद्ध छ हमर नान के कमी नेह इमी।
च्यल इज -.....तो बात पक्की समझूँ.....
चेली बौज्यु - हो होय यसे बर चैन पड़ रछि हमकेँ ।।
(बर्यातक डिस्कस हूंण भैगो तब बरियात में च्यलॉ कें छेड़ छाड़ दिंल् कबेर कोई नि लिजाल। बरियात में बरेति चेली बेटी हैल्)
च्यले इज- बरियात कदु लाला
चेली बौज्यु - सौ एक हैं जेंल पै।
च्यले इज - शरेबि नानी झन ल्याया । पी खै बेर झकोरा झकोर करनी त।
चेली बौज्यु- नानी ज्वान जबान हाय त उमर में यूँ नि करला तो हम जी के करुल।
च्यलक इज- जे ल कर्ला समाय बे करिया बल । बस हमर यां लौण्ड मौडु कें झन छेड़िया बल।अगर कतिके उंच नीच है गई तो हमर गौं सणि चुप नि बैठो फिर।
चेली बौज्यु - चिंता न करो तस के निहौल हमर तरफ बटी बे फिकर रओ। अछ्या पै हिटणु अब ब्यक दिन मुलाक़ात हेली अब
च्यलक् इज -अछ्या उने रया।
यह पागल भास्कर जोशी द्वारा काल्पनिक सोच है इसे वास्तविक न समझें। और इसे अपने वास्तविक जीवन में दोहराने की कोशिश तो कतई न करें। वरना इसके जिमेदार आप खुद हौंगे।- प.भ.जो.पागल

Monday, December 14, 2015

पहाड़ी व्यंजन बनाने की विधि

1- झोइ बनाने की विधि

पागल पहाड़ी के साथ जाने झोइ बनाने की विधि-
क्या आपको झोइ बनाने की विधि मालुम है?
अगर नही है तो जरूर जानें -
झोइ बनाने के लिए सामग्री में छांछ, लहशन, मेथी, एक जड़ मू, और थोडा गेहूं का आटा और कच्चे हरे धनिये के पत्ते।
कढ़ाई को चूले में चढ़ाएं गरम होने पर दो चमच्च तेल डालिये, जब तेल गरम हो जाए तो मेथी का तड़का लगाईये।मेथी जब हल्का लाल हो जाये तो लहशन के के टुकड़े डालिये इसे भी हल्का लाल होने दें ।
 अब चूले की आंच धीमा कर नियमानुसार आटे को हलकी आंच में हल्का भूरा होने तक भून लीजिये। जब आटा भून जाये तो आपको आटे की पकने की महक सुनैंन-सुनैन खुशुब आने लगेगी। आटा भून जाने के बाद सामग्री के अनुसार छाछ डाल दीजिये। नियमानुसार हल्दी, हरी मिर्च, और नमक का प्रयोग करें,
अब आपके पास एक मूवक जड़ बचा है उसे साफ कर उसके चार बड़े बड़े पीस बनाइये। उसके बाद सिलबट्टे में लेजाकर मू के टुकड़ों को थेच् दीजिये, अब उसे उबलते हुए झोइ में डाल दीजिये। झोइ को अब कम से कम 15 मिनट तक पकने दें। 15 मिनट में आपकी पहाड़ी स्पाइसी झोइ तयार। तैयार होने के बाद अब अंत में कच्चे हरे धनिये को बारीक़ काट कर उसे झोइ में ऊपर से डाल दें । और यह आपकी स्पाइसी पहाड़ी झोइ तैयार।
नोट: कई लोग गेहूं के आटे की जगह बेशन का उपयोग करते हैं जबकि बेशन से वह कड़ी या फिर बेषणक डुबक बनते हैं और आपको शुद्ध पहाड़ी झोइ बनानी है तब ऐसे में बेशन का उपयोग कदापि न करें । -पं. भास्कर जोशी

2- गुड़ झोइ बनाने की विधि 

ठण्ड बहुत है कुछ दिन में और ठण्ड बढ़ने की उम्मीद है ऐसे में गुड़ झोइ मिल जाए तो आनंद आ जाये। ठण्ड के दिनों में यह बहुत कारगर होती है अथवा गरम होती ही साथ ही ताकतवर भी।
पागल पहाड़ी के साथ जाने गुड़ झोइ बनाने की विधि-
सामग्री- 100 ग्राम घी, 200 ग्राम गुड़, 50-70 ग्राम गेहूं का आटा, भुजकोर, लोहे की कढ़ाई, कितोलि, डाडू, पणियाँ,
चूल्हे पर विशेष ध्यान दें इसके बिना गुड़ झोइ नही बन पायेगी।
बनाने जी विधि- गुड़ को थोडा भुजकोर में कोर लीजिये, फिर उसे कितोलि में दो गिलाश पानी के साथ डालकर चूल्हे में चढ़ा दें। ध्यान रहे चूले के निचे आग भी जलनी चाहिए । कुछ ही देर में आपका गुड़ पिघल जायेगा। 5 मिनट उसे और पकने दें उसके बाद उसे उतारकर कुछ समय के लिए अलग रख लें।
अब आप कढ़ाई को चूल्हे पर चढ़ाएं । 100 ग्राम घीं कढ़ाई में डालें, घीं को थोडा गरम होने दें। अब गैंस या चूल्हे की आंच थोडा कम कर दीजिये। कढ़ाई में मात्रा अनुसार 50-70 ग्राम गेहूं का आटा डालें। ध्यान रहे आटे की मात्रा अधिक न हो नतर पिसियक हल्लू बनजायेगा। हल्की आंच में पणियां से बराबर आटे को हिलाते रहें जबतक वह ललांग-ललांग न हो जाए याने की हल्का भूरा रंग। जब ऐसा होगा तब उसकी सुनैंन सुनैन खुशबु आपतक आने लगेगी।
अब आपने केतली में जो गुड़  पकाया है उसे पके हुए आटे में मिला लीजिये। डाडु से उसे थोडा तेज हाथ चलायें नही तो ढ़िन बनने की अधिक संभावनाएँ होती हैं ध्यान रहे उसे अधिक गाढ़ा न होने दें जरुरत पढ़ने पर थोडा पानी और बढ़ा सकते हैं आपको गुड़ झोइ  को पीने लायक बनाना है जिसे घुटुक मारकर पिया जा सके। पानी डालने के बाद उसे 10 मिनट तेज आंच में पकाएं। और अब आपकी गुड़ झोइ बनकर एकदम तयार है।
इसी तरह आप मडुवे की बाड़ि भी बना सकते हैं -
मिलते रहेंगे अगले पकवान के साथ एक पहाड़ी भूले विसरे व्यंजन लिए- पं. भास्कर जोशीपागल


3-भट के डुबुके

पहाड़ी भट्ट के डुबुके बनाने की विधि
कल सन्डे याने इतवार का दिन है भट्ट के डुबुके खाने हौं तो आइये जाने पागल पहाड़ी के साथ भटक डुबुक और भात बनाने की विधि|

सामग्री :- चार मुट्ठी पतले भट, दो मुट्ठी चावल, दो छोटे डाडू तेल, मेथी दाना, हल्दी, मिर्च, नमक, हरा धनियाँ, कढाई, डाडू इत्यादि

महत्वपूर्ण बात : चूले का विशेष ध्यान रखें इसके बिना पकना असम्भव है गैंस बराबर चैक कर लें आधे में हाथ रुकना डुबुके में खलल उत्पन्न हो सकता है|


बनाने की विधि : परिवार अनुसार पतले भट (चार मुट्ठी भट) शाम को सोने से पहले भीगा दें, यदि पतले भट न भी हो तो ऐसे में मोटे गोल वाले भट को ही भीगा लें,  उसी के साथ दो मुट्ठी चावल भी भिगाने डाल दें, रात्ती पर बेर्रे उठकर सिलबट्टे में पीस लें | ध्यान रहे मिक्सी का प्रयोग कतई न करें, सिलबट्टा न हो तो एक दिन के लिए मुझसे ले जाएँ, बाद में वापस भी कर देना ठहरा, वैंच -पेंच ठहरा हो|भट को पीस कर किसी एक बर्तन में रख लें जिसमें सारा अटा जाये छोटे बर्तन में रखने पर फोकी जायेगा|

भट पिसने के बाद चूल्हा जलाएं, एक बर्तन डेग या तौली में पानी गरम करने रख दीजिये, पानी गरम हो जाए तो उसे अलग रख दें, अब कढाई को चूले पर चढ़ाएं, फिर कढाई में दो डाडू तेल डालें, अब तेल को थोडा गरम होने दें, गरम होने के बाद  मेथी का तड़का लगायें, अब आपने जो भट पीसे हैं उसे कढाई में उड़ेल दें, उसी के पीछे मात्रा अनुसार पानी भी उड़ेल दें, अब उसे कुछ देर हिलाते रहे, जब तक कि उमाव जैसा न आये|

डुबुक में उमाव आने के बाद चूल्हे की आँच धीमा कर दें, अब मात्रा अनुसार नमक, हरीमिर्च बारीक़ काटकर डालें, और बहुत कम हल्दी बिलकुल नाम मात्र ही डालें| अब उसे हल्की आंच में पकने दें और बीच बीच में हिलाते रहे| नही  तो तली बटी कढाई में ताव लग जायेगा| थोडा बहुत ताव लगने भी दें जिससे कि डुबुके में भाद्याऊ  दूध जैसी खुसबू आने लगेगी तो समझ जाइए डुबुके तैयार है जब डुबुक बन जाए तो हरा धनियाँ बारीक काटकर डुबुके में डाल दें |
अब आपका  स्पाइसी भट के डुबुके तैयार हैं |

दुसरे चूले में अपने परिवार के मात्रा अनुसार रोज की तरह भात पका लें| भात तो आपको पकाना आने वाला ही ठहरा|


4-   मासक चैंस और भात

पागल पहाड़ी के साथ जाने मास की चैंस बनाने की विधि।

सामग्री- साबुत उड़द (माँस), तेल, नमक, हरी मिर्च, हल्दी, जखिया, धनिया, टमाटर, प्याज, घी , हींग, इत्यादि |
बर्तन: कितोली, सिलबट्टा, डाडु, पणीयां, लोहे की कढ़ाई, सिल्वर का डेग आदि|

महत्वपूर्ण बात - चूल्हा चौका की सही से जाँच पड़ताल कर लें, सिलबट्टे को सही से धो लें। आपके घर में संगव बहुत होते हैं , सावधानी जरुरी है। नही तो स्वाद में खलल उत्पन्न हो सकता है।

बनाने की विधि-  परिवार की जनसँख्या अनुसार साबुत माँस लें। और उसे सिलबट्टे में पीस लें। पीसने में थोड़ी कठनाई जरूर होगी क्योंकि क्वर्रे मॉस पीसने में यथाहं उथाहं को भाजने लगते हैं इसलिए हलके हाथ से पहले माँस को दई लें,  फिर उसे पीसें, आसानी होगी। मास को पीस लेने के बाद उसे किसी बर्तन में रखें। अब प्याज टमाटर को बारीक़ काट कर अलग रख दें।

चूल्हा जलाएं । चूल्हे में एक कितोली पानी चढ़ा दें। पानी को उमाय लें। उसके बाद उसे अलग रख दें| अब चूल्हे में कढ़ाई चढ़ा दें। कढ़ाई में तेल डालें। अब पीसी हुई माँस को कढाई में डालें| चूल्हे की आंच धीमी कर पणियां से हलके हाथ खिरोय्ते रहें जबतक की उसका रंग थोडा भुर भुर किसम का  न हो जाए| जब हल्का भूरा हो जाये तो कितोली का गरम पानी मात्रा अनुसार कढाई में उड़ेल दें। डाडू से थोडा तेज हाथ से उसे खिरोयें नही तो ढिन बनने की समभावना होती है | पानी की मात्रा अधिक न हो वरना चैंस छिर्री जस जायेगा | पानी डालने के बाद अब उसे हल्की आंच में थोड़ी देर पकने दें |

इधर दूसरा चुल्हा जलाएं उसमें डेग को चढ़ा दें| डेग में दो चमच घीं डालें, घीं गर्म होने पर जखिये का तुणुक लगायें| जैसे ही जखिया तडबड़ाने लगे तो बारीक कटा हुआ प्याज डाल दें | चूल्हे की आंच धीमी कर दें और प्याज को हलके भूरे होने तक कहूँनते रहें भूरे होने पर टमाटर डालें, डाडू से उसे बराबर हिलाते रहे, टमाटर गल  जाने के बाद दुसरे चूल्हे में चढ़ाया गया चैंस को देखते हुए मात्रा अनुसार नमक, हरी मिर्च, धनियाँ हल्दी डालें, नाम मात्र दो कणिक हिंग लें और उसे डाडू में गर्म पानी के साथ घोल लें, घोलने के बाद उसे मसाले के साथ मिला दें.. मसाला तैयार हो जाने पर उसे माँस की चैंस में मिला दें, डाडू से उसे दो चार बार घुमा दें ताकि मसाले सही से घुल जाए. अब धीमी आंच में पञ्च मिनट तक उसे और पकने दें..अब आपका ठेठ पहाड़ी मासक चैंस बनकर तैयार|

भात रोज की तरह परिवार की जनसँख्या को देखते हुए नियमानुसार बनायें..
हो सकता है मासक चैंस के साथ भात अतिरिक्त खा सकते हैं इसलिए भात के लिए  कितोली में पानी गरम कर के रखें नही रो रस्यार को खुण खुण भान देखने को मिल सकते हैं इसलिए व्यवस्था पहले से बनाकर रखें- ठेठ पहाड़ी पकवान के साथ आपका पागल पहाड़ी
©भास्कर जोशी पागल


अवसरवादी

हरदौल वाणी अख़बार  13-12-2015 के ताजा अंक में प्रकाशित मेरी नई रचन "अवसरवादी" को प्रकाशित करने के लिए संपादकीय आदरणीय श्री  Devi Prasad Gupta श्री जी, भाई Lalit Mohan Rathaur भाई जी का  बहुत बहुत धन्यवाद।
#अवसरवादी
हरदौल वाणी - १३-१२-२०१५ 
जी मैं तो हूँ अवसरवादी
करता हूँ अपनी मनमानी
गधों की पीठ पर बैठ
करता हूँ में सवारी
जी मैं..........
जी मैं खाता बहुत हूँ
पर किसी को खाने देता नही
चाहे वह माल पुए हों
या हो फिर थपड़
जी मैं.......
 जी मैं सुर्ख़ियों में आए दिन रहता हूँ
कैमरा बच नही सकता मुझसे
चाहे वह मेरी नौटंकी से हो
या हो फिर मौफ्लार खाँसी
जी मैं.........
नुक्कड़ नाटक से लेकर जंतर मंतर तक
धरने से लेकर आंदोलन तक
मैंने कुर्सी पाने की जिद्द ठानी थी
जब मिल गयी तो अब खाने की मेरी बारी है।
जी मैं..........पं. भास्कर जोशी
पागल पहाड़ी

Wednesday, December 9, 2015

भारत माँ की संताने

सोमवार 25-10-2015 हरदौल वाणी में प्रकाशित सर्व-धर्म समभाव पर रचित कविता "भारत माँ की संताने" को हरदौल वाणी में स्थान देने के लिए  आदरणीय संपादक श्री जी (Devi Prasad Gupta जी) एवं भाई Lalit Mohan Rathaur जी का बहुत बहुत धन्यवाद।

भारत माँ की सन्ताने

जागो हे जागो, देश वासियों जागो
मेरे हिन्दुस्तानियों, ऐ वतन वासियों जागो
यहाँ न कोई हिन्दू,मुस्लिम, सिख,इसाई,
बढ़कर है हम हिन्दुस्तानी
भारत माँ की संताने हैं हम,
मानवता की एक पहचान बनें

अपनों का रक्त बहाकर,
खुश कैसे रह सकते हैं
मिलकर मनाएं ईद दीवाली,
खेलें खुशियों संग होली
देश भी आपना भेष भी अपना,
फिर काहे अपनों से लडे लड़ाई
भारत माँ की संताने हैं हम,
मानवता की एक पहचान बनें।

याद करो अंग्रेजों की बरबर्ता,
भारत माँ के पूतों को लहू लुहान किया
मिलकर लड़े थे जो अपनों के खातिर,
 उन सपूतो में जाति-पाति का भेद किया
ऐसे वीरों की इस धरती को,
जाति-पाति की बेड़ियों में मत बांधो।
भारत माँ की संताने हैं हम,
मानवता की एक पहचान बनें।

मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरूद्वारे का
हम सब मिलकर सम्मान करें,
आपसी रंजीसें छोडो,
आओ अपनों से नाता जोड़ें।
बांधे थे एक डोरी में हमको,
उस डोरी को और मजबूत करें
भारत माँ की संताने हैं हम,
मानवता की एक पहचान बनें।

मेरा पागलपन

गुण तो सागलों में होते हैं
यह पागल तो अवगुणों की खान हैं ।
गुण होते तो पागल न होता
अवगुण हैं इसीलिए पागल हूँ ।

लक्षण

रंग अगर डाले कोई तो
रंगीन हो लिया करता हूँ
दो बोल मीठा गर बोले कोई तो
शहद पर मधुमखी बन चिपक जाता  हूँ

नजरें चुराए अगर कोई तो
सिसोण झपका देता हूँ
बुरी नजर गढ़ाए गर कोई तो
डांसी ढुंग बरसा देता हूँ

सुन ले ठेकुली तू भी
कब तक आँख मिचोली खेलोगी
पागल हूँ पागलपन की हद्द तक जाऊंगा
हार कभी न मानी थी, न कभी मानूँगा
पागल हूँ जिस कोने में छुपी होगी
उस कोने से ढूंढ़ निकलालुंग 

जोकपाल

आशाओं की आशा
बाबा आशाराम
रामों में राम
बाबा रामपाल
पालों में पाल
बाबा जोकपाल
और जोकपाल के मुखिया
बाबा केजरीवाल
केजरीवाल के दाता
अन्ना लोकपाल।

Tuesday, October 13, 2015

सहारा

किसे अपना कहूँ
कौन सुने मेरी 
अकेलेपन की बेचैनी है
तब कलम उठा लिख लेता हूँ कविता |
हरदौल वाणी 12-10-2015 में प्रकाशित 
बिन बात के
हर गली, चौराहे, नुक्कड़ पर
आपनो की जंग छिड़ी है
कौन सुलह कराये
दुनियां तमासा देखती है
ह्रदय विषमित हो उठता है
तब कलम उठा लिख लेता हूँ कविता |
डर लगने लगा है भ्रमित आपनो से
कहीं उनके कर्मों का ठीकरा मेरे सर न लाद दें
गर आवाज उठाऊं तो सर कलम कर दें
चुप पड़ा रहता हूँ ठिठक कर कोने में कहीं
तब कलम उठा लिख लेता हूँ कविता |
सहारा किसका लूँ
कौन दूर तलक साथ निभाए मेरा
उठते अन्तःकरण में द्वन्द की पीड़ाकौन सुनेगा मेरी व्यथा
तब कलम उठा लिख लेता हूँ कविता |

कागज कलम से नाता जुड़ गया
उसी संग, हंसी ठिठोली, मस्ती करूँ
देश दुनियां की पहल करूँ
जब भी बात करने को मन करे मेरा
तब कलम उठा लिख लेता हूँ कविता |
-भास्कर जोशी "पागल"

Monday, October 5, 2015

रामलीला स्मृति

#स्मृति रामलीला
आजकल जग जगां में रामलीला तैयारी चली रै। कुमाउनी रामलीला देखण में अरु आनंद ऊँ। एक सालक बात बतुनु हमर यां रामलीला चली भे भीकू दा खूब रामलीला शौक़ीन भाय आदुक हैबेर सकर उनुकें डाइलॉग याद भै। रोज रामलीला में उनर एक रॉल पक्का होय। काधिने उं रामक साइड हुनेर भाय काधिने रावणक साइड। लेकिन रॉल एक न एक पक्का होय। एक दिन उ घर बटी रामलीला पाठ खेल हूँ जल्दी निकल गाय बाट बाटे कुछ दगडी मिल गया तो सिद्ध पहुँच गाय शराबक ठ्यक में द्वी चार पैक मारी बाद भीकू दा कभते राम कभते लक्ष्मण तो कभते सुपनखा तो कभते क्याप्प् डाइलॉग बडबडान भैगाय।
मिल कॉय : भीकू दा आज रामलीला में नि जाण्या के ? आज स्वयम्बर छ बल
भीकू दा : ओ हो आज्जे छ स्वयंबर ।मिल तो आज धनुष तोण छ।
मी: धनुष तो राम ज्यु तोडेन तुम के करला वां
भीकू दा : हाय भुला सबु हैब बढ़िया रॉल तो म्यर छु। चल फटाफट हिट नतर आज इपने खै पी बे टोटिल है रूल ।
रामलीला में स्वयंबर देखण में खूब भीड़ हई भै। और भीकू दा पछिल बाट जैबेर सिद्ध मेकप रुम में पहुँच ज्ञाय। मेकप ले उनुल आपण हाथल आपण कर । एक साइड आदुक दाढ़ी लगाय और दोहर साइड आदु काटी मुछ । और आंग में फाटी फूटी लधोडि धेखण लैकक छी हो। रामलीला डरेक्टर भीकू दा हैं कुनेछि भिकुवा यस पेई खाई में  के गड़बड़ झन करिये अंतरि हाली द्यूल एतिकेँ ।
भीकू दा चुप चाप मंच तरफ बाट लॉग गाय और मन मने बड़बड़ाट करने कुनेछि मंच में जांण दे फिर बतूल।
भीकू दा मंच पै पहुँच ज्ञाय् सब लोग भीकू दा केन देखि बेर हसन हँसने भाँट टूट ज्ञाय। मंच पर पहुँचते ही द्वारपालल पूछ
द्वारपाल : महाराज आप कौन हैं  किस  देश के राजा हो अपना परिचय दें
भीकू दा: मैं भिकुवा देश का राजा भिकुवा हूँ
द्वारपालल भीकू दा कै स्थान पर बैठे दे थोड़ी देर में धनुष तोडणे प्रक्रिया सुरु हेय। बाद में भीकू दा नंबर आया तब भीकू दा धनुषे उथाकें  ठाढ़ हाईबे एक हाथ धनुष पर लगाई भे दोहर  हाथ जनक ऊथाँ करी भै और नजर डाइरेक्टर ऊथाँ।
भीकू दा : ओ रे सीता डाइरेक्टर । तोड़ी द्यू धनुष । आज सोमरस पी बेर आरयुं ताकत ले निमखण आई रै।
डाइरेक्टर पर्दे पिछड़ी बटी कुनो : भिकुवा त्यर कम्मर तोड़ी द्यूल अग़र के गड़बड़ करी तो ।
भीकू दा डाइरेक्टर कें फिर चिढ़ाओ ।
भीकू दा : आज तो य धनुष मैं तोडुल बौज्यु लें कैंल ठीक करौ च्यौला त्वील ब्वारी ल्य गे छै
डाइरेक्टर एक हाथ में लठ लिबेर मन्द मन्द आवाज में आ तू भ्यार त्यर मौणी पछिल् च्यापुल आज यें। अगर धनुष पर त्विल के गड़बड़ कर पै दिखिए ।
भीकू दा डाइरेक्टर बटी डर ज्ञाय तब दरपालल कौय
द्वारपाल : महाराज धनुष तोड़ने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाय
भीकू दा फिर उसीके एक हाथ जनक ऊथाँ करिबे और नजर डाइरेक्टर ऊथाँ
भीकू दा : जा रे सीता डाइरेक्टर नी तोड़न तुमर धनुष कतई हाथ नि लगूँ इपर। भली भल कुट कुट गोरी फनार ठेकुली जस सीता बड़ाई हुनि तो धनुष तोड़ी दिछि घर में बौज्यु ले कुन के भौलो ब्वारी  लै रै छे च्यला। लेकिन य बड़ाई भे तुमुल अहिरावण जस सीता। जैक मुखम् बटी दाढ़ी फुटनेई । को करो येक दगड ब्या। य भस्मा सुर जस राम बड़ाई भै य आफि लिजां सीता कैं येके लिजी ठीक छु।
भीकू दाल उठाई वां बटी आपण ताम झाम और मंच छोड़ी बटी ऐज्ञाय| लोगनक हसने हंसने बिडौ।

Wednesday, September 23, 2015

डर मत

डर मत
डर को डरा
डर, डर कर
कब तक जियेगा ।
डर का
डर लिए
क्यूँ छिपता है
डर से
डर का
सामना कर
डर को
इतना डरा
कि तेरे डर से
डर कर फिर
सामने
न आये ।

Friday, September 18, 2015

हिन्दी_रूठ_गयी.........

हिंदी तुम क्यों रूठ गयी
लेख, कविताएँ, गीत लिखे
भाषण बोल बोले हिंदी के
तुम फिर भी रूठ गयी ।
१४ सितम्बर हरदौल वाणी में प्रकाशित 

स्वर से लेकर व्यंजन तक
पाश्च्यात्य में बाँट दिए तुमने
सीना छलनी कर पूछते हो !
हिंदी तुम क्यों रूठ गयी?

लिखे होंगे लेख, कविताये, गीत तुमने
बोल भाषण दिए होंगे हिंदी के
मेरा तो आश्तित्व ही खतरे में है
और तुम पूछते हो मैं क्यों रूठ गयी।

तुमने तो हिंदी का ऑपरेशन कर डाला
चीर फाड़कर अंगों को उधेड़ डाला
तुम्हारे शब्दों से मेरी हृदय गति थम गयी
और तुम पूछते हो मैं क्यों रूठ गयी।

घुटन होती है तुम्हारे हिन्दी से मुझे
गिनती के चंद सांसें बची है मुझमें
आई सी यू के वेल्टीलेटर पर लेटी हूँ
और तुम पूछते हो मैं क्यों रूठ गयी। 

Monday, August 3, 2015

तेरा दुखड़ा कौन सुने

पिंजरे में पड़ा बंद रे
तेरा दुखड़ा कौन सुने
हाथ तुम्हारे जंजीरों से जकडे
मुह खुले, पर लगे ताले रे|

सरकारें जिन्हें घुट्टी पिलाये
खुश हुए विलोचन मतवाले रे  
दुशासन नया तमासा दिखाए
बंदरिया नाच नचाये रे|  

दावे बड़े नए नवेले राजाओं के
सपने दिखाते डिजटल युग के
वाक् पटुता में बड़े लुभाने
विपदा में दिखाए सपने सुहाने रे |

गुम होते बच्चे भविष्य भारत के
कोई खोज खबर नही उनकी रे
धूमकेतु की भैंस, मुर्गियां खोये
एलियन पल भर ढूढ़ निकाले रे |  

धृष्टराज माल का भाव न जाने
किसानों से ख़रीदे एक टके में रे
पैकेट में उद्योग जगत हवा भरकर बेचे  
माल कमाये करोड़ों रे|

अन्नदाता के गले फंदा
रंगरलियाँ मनाये कौरव रे
भूखे पेट गरीबी दर-दर भटके
पंख लग, नेता उड़ जाए रे |


Wednesday, July 22, 2015

मैं भी आम आदमी होता ....


सोमवार 13 जुलाई 2015 हरदौल वाणी 
काश मैं भी आम आदमी होता
काश मैं भी चाय वाला होता
एक बड़ा सा बंगलो होता
उसमें मेरे दफ्तर होते
दफ्तर में बैठे मेरे चमचे होते
और में उन्हें भाषण सुना रहा होता
काश कि मैं भी आम आदमी होता |

बंगले में चमचमाती लाइटें होती
किस्म किस्म के बल्ब लगे होते
लाखों में बिजली के बिल आते
और मैं चैन कि सांस लेता
कास कि मैं भी आम आदमी होता|

बंगले में पानी के बड़े बड़े टैंक होते
आगन में पानी के फब्बारे होते
एक बड़ा सा स्वीमिंग पुल होता
इस धधकती गर्मी में राहत भरी ठंडक लेता
काश कि मैं भी आम आदमी होता |

बंगले में लग्जरी गाड़ियाँ सजी होती
बिजनेश क्लाश में विदेश हवाई यात्रा करता
सूटकेश भर-भर कर चंदा लाता
विज्ञापन हेतु करोड़ों खर्च करता
तब मैं भी खास किसम का आदमी होता
काश कि मैं भी आम आदमी होता |
-भास्कर जोशी “पागल”

Thursday, June 4, 2015

मौत का कारण : शराब या ठेकेदार

मजे की जन्दगी जीने वाले पुरदा  आज खाट पर  अंतिम सांसे गिन रहा है | कल तक सब कुछ ठीक था| वही अपनी मजेदार लाइफ स्टाइल मजाकिया अंदाज में जीने वाले  पुरदा पुरे गाँव में मसहुर थे|  कभी भी गांव में  कोई परेशान हो तो दौड़े दौड़े  मदद करने पहुँच जाते थे  और हँसते हँसते खुसी बाँट आया करता थे| एकाएक एसा क्या हुआ की खटिया पर पड़ने की नौबत आ गयी|

कल साम को ही मंगल भाई साहब ने उन्हें हँसते गाते देखा था तब तक सब कुछ ठीक था| हिम्मत दा  बता रहे थे कल देर रात पुरदा  की  मुलाकात ठेकदार साहब से हुई थी| वे  बता रहे थे कि जो नदी किनारे  पुरदा की जमीन को  ठेकेदार उसे खोदकर वहां से रेता बजरी निकलना चाहता है लेकिन पुरदा ठेकेदार को माना करते रहे| ठेकेदार को उस जमीन का लालच था उसे किसी भी कीमत पर हांसिल करना चाहता था इसीलिए कल शाम पुरदा से मिलने के लिए ठेकेदार शराब की बोतल के साथ आया था | पुरदा बहुत समय तक शराब को लेकर ना  ना  करते रहे क्योंकि डॉ ने उन्हें  पीने के लिए सख्त माना ही की थी |

पुरदा  पहले  बहुत अधिक शराब पीते थे अधिक पीने से पुरदा का लीवर ने ठीक से काम करना बंद कर दिया था दावा दारू चल ही रही है  लेकिन ठेकेदार की जोर जबरदस्ती के कारण उन्होंने एक गिलास चड़का ही लिया| शराब का नशा जब तक हावी होता उस से पहले ही ठेकेदार ने उस जमीन के कागज़ पर झूट मूट से सिग्नेचर करवा लिए| ठेकेदार का काम अब बन चूका था ऐसे में ठेकेदार ने भागने में अपनी भलाई समझी और जाते जाते पुरदा से कहा गया आपने  नदी किनारे की जामीन मुझे देकर बहुत अच्छा किया|  इसका दाम में कल तक आपको भेज दूंगा| पुरदा के कान में जैसे ही ये बात घुसी तन मन में आग सी लगने लगी उठ कर जब तक ठेकेदार को पकड़ पाते  शराब की वजह से पुरदा की तबियत एकाएक बिगड़ने लगी, ठेकेदार वहां से भाग खड़ा हुवा|

अच्छा हुवा हिम्मत दा  वही दूकान के आसपास ही उस समय घूम रहे थे जब पुरदा को खून की उल्टियाँ होने लगी तो हिम्मद दा ने उन्हें देख लिया और तुरंत एम्बुलेंश बुलाकर हॉस्पिटल ले गये | डॉ से पुरदा की जांच की और रिपोर्ट में पाया कि पुरदा के लीवर ने काम करना बंद कर दिया है हालत बिगडती जा रही थी डॉ ने कहा अब दावा दारू से  ठीक नही होने वाले हो सके तो इन्हें घर लेकर जाओ सायद पने घर पर अंतिम साँसें ले सके| हिम्मत दा उन्हें वक्त रहते घर ले आये|
चाँद घड़ियाँ ही घर पर सांस ली और वे इस संसार से अलविदा कह गये | 

Friday, May 29, 2015

बस अब और नही

बस अब और सहन नही होगा
माफिया राज,
कह दो उन लुटेरों से,
बदमासों से,
चोरों से,
ठेकेदारों से,
जो पहाड़ को लुट रहे हैं
बेच रहे हैं,
जमीनों को चट-खा रहे हैं,
अयासी का अड्डा बना रहे है,
यदि अपनी जान की सलामती चाहते हो,
तो सभाल जाओ,
ठहर जाओ,
बंद कर लो
अपने घिनौने कारनामो को |
अब भी वक्त है,
कहीं ऐसा न हो,
कि पहाड़ का बच्चा बच्चा,
अपनी मात्र भूमि मांटी के खातिर,
कंधे पर हथियार लिए,
तुम्हारे मौत का कारण न बन जाये|
अब भी वक्त है, ठहर जाओ,
वरना उत्तराखंड को भी
नक्सली बनने में देर न लगेगी|
इसलिए सभल जाओ, ठहर जाओ
तुम्हारी पल पल की हरकतों पर
हर "पागल" की नजर रहेगी|

Saturday, May 23, 2015

.............और बदल गया गांव

          वाह सुन्दर, सपन्न गांव यदि इसे स्वप्नों का गांव कहा जय तो इसमें कोई संकोच नही| गांव की गरिमा देखते ही बनती है गांव की एकता व अखंडता ने इस गांव को सर्वगुण सपन्न बना दिया| युवाओं ने गांव की दिशा और दशा ही बदल दी| यदि गाँव में युवा मंडली की ग्राम सुधार समिति न होती तो यह गांव आज भी वहीँ ज्यों का त्यों रहता| भावेश और उसके तीनों साथियों ने गांव को साथ लेकर गांव को आज संपन्न बना दिया|
          कुछ समय पहले गांव में था ही क्या, कुछ भी तो नहीं, एक निर्जीव की भांति, जिसमें प्राण तो थे मगर देह में शक्ति नहीं थी| गांव में लोग रहते जरुर थे पर एक दुसरे से बिलकुल अनजान| पडोस के घर में क्या कुछ हो रहा है कुछ भी मालूम नही होता पडोसी परिवार कब दुखी रहता, कब सुखी इसका किसीको को कोई मतलब न रहता| इस गांव में चार युवा लड़के थे भावेश, अनुराग, विकाश और मनीष ध| एकदम निकम्मे, बेकार जिनके पास कुछ काम नही था काम करते भी तो क्या करते| पढ़े लिखे होते तो शहर जाकर दो चार रूपये पैसे कमा लेते पर चारों इतने पढ़े लिखे भी नही थे की शहर जाकर कुछ काम करते| भावेश 8वीं तक पढ़ा लिखा तो था पर अनुराग, विकास और मनीष 3सरी, 5वीं और 6टी तक पास थे| दिन भर गाँव में घूमते फिर पास ही में एक खंडहर घर  पास इन चारों ने अपना बैठने का चौपाल बना रखा था जिसमें सुबह से साम तक ये चारों तास की गड्डी लेकर तास खेलते| इन चारों के निकम्मेपन से गांव के लोग इन्हें पसंद न के बराबर करते| गांव में जितने भी इनके उम्र के लड़के थे वे सभी शहर जाकर कुछ न कुछ काम धंदा करने लगे| बस गावं में अब यही चार बचे थे बाकी अभी गांव में बच्चे ही थे जो की अभी स्कुल पढ़ रहे थे
         भावेश थोडा रंगीन मिजाज का था जो हमेशा दूसरों के चेहरे पर हंसी लाने की कोशिस करता था अपने मजकियापन से वह सबको हँसता रहता था लोग उसे पागल समझते थे क्योंकि उसकी हरकतें जोकरों सी होती थी लेकिन उसे गांव के सुख दुःख में अपना सतप्रतिशत सहयोग देता था इसलिए गांव के लोग भावेश को स्नेह भी करते थे भावेश के साथ साथ वे तीनो भी भावेश के कार्यों में सहयोग देते थे चाहे वह अच्छा हो या बुरा पर वे तीनो भावेश का साथ नही छोड़ते थे अधिकतर ये चारों निकम्मों की भांति    चौपाल लगाकर जुवा खेल रहे थे तभी वहां टहलते टहलते भावेश के चाचा भावेश के चाचा आ धमके जो फौंज से रिटायर्ड थे चेहरा एकदम रौबदार था भावेश उनसे बहुत डरता था कई बार चाचा डाठ चुके थे बांकी गांव के लोग उनका फौंजी चाचा का बड़ा सम्मान करते थे| चाचा को देखते ही भावेश छिपने लगा लेकिन फौजी चाचा के नजर से कौन बच पायेगा| चाचा ने उन सभी को जुवा खेलते हुए देख लिए था इसलिए चाचा ने भावेश को आवाज लगाई और भावेश डर से चुपचाप सर झुके चाचा के पास आ गया| फौंजी चाचा ने जो उन्हें खाड़ी-खाड़ी सुनाई| दिन भर यहाँ पर बैठ कर जुवा खेलते हो कुछ काम धाम नही है तुम लोगों के पास कुछ तो काम कर लिया करो घर का हाथ बाटते कुछ परमार्थ का काम ही कर लेते| कुछ तो कर लिया करो यहाँ पर जुवा खेलने से क्या लाभ होगा तुम्हें| सभी डर के मारे घबराने लगे एक दम चुप चारों यही सोच रहे थे चाचा के कब हमारा पीछा छोड़ेंगे| बहुत कुछ सुनाने के बाद चाचा वहां से निकल गये जाते जाते और भी बहुत कुछ बोल गये| अपने जीवन को व्यर्थ मत जाने दो कुछ अच्छा करो ताकि लोग कल को तुम्हे याद कर सके|
         भावेश को ये बात घर कर गयी पर करे भी तो क्या करे इतने पढ़े लिखे तो थे नही कि ऑफिसर बन जाते| बहुत देर तक चारों इसी बात पर चर्चा कर रहे थे कि आखिर ऐसा क्या किया जाय| सोचते हुए दिन बीतने को था पर अब तक कोई ऐसा काम नही ढूढ़ पाए | भावेश ने कहा चलो घर को चलते हैं पर आज आप सभी घर जाकर सोचना कि हमें क्या करना चाहिए ? और कल फिर इसी जगह पर मिलेंगे जिसका आइडिया अच्छा होगा उस काम को हम लोग करना शुरू कर देंगे|चारों मित्र रात भर सोचते रहे पर कुछ भी अच्छा परिणाम नही निकला|
         दुसरे दिन की सुबह हुई भावेश आपनी माँ का एकलौता बेटा था पिता का साया तो था नही और माँ का हाथ बटाने वाला और कोई न था घर का सारा काम निपटा कर वह अनुराग के घर की ओर बढ़ा| साथ ही हाथ में एक छड़ी लेली| भावेश अभी भी सोच विचार कर रहा था ध्यान कहीं और होने के कारण भावेश का पैर रास्ते के बीचों बीच पड़े गड्ढे में जा गिरा लेकिन हाथ में छड़ी होने की वजह से वह गिरने से सभाल गया| मन में विचार आया कि मैं तो गिरते गिरते सभाल गया पर गाँव का कोई बुजुर्ग व्यक्ति का पाँव पड़ा तो न जाने क्या होगा| चलो क्यूँ न इस गड्ढे को ही भर दिया जाय| हाथ में छड़ी थी ही उसी से किनारे से मिटटी खोदी और गड्ढे को भरने लगा| अब तक भावेश के तीनो मित्र रोज के स्थान पर पहुँच चुके थे| बहुत देर से भावेश के आने का इंतजार करते रहे विचार करते रहे कि भावेश अबतक पहुंचा क्यूँ नही रोज ही तो इस टाइम तक आ ही जाता था| मनीष बोल पड़ा कहीं भावेश की तबियत तो नही बिगड़ गयी वरना आने का टाइम तो हो गया
विकाश क्या पता घर में कोई मेहमान आया हो इसलिए देरी हो गयी हो
अनुराग ने कहा क्यूँ न उसके घर चल कर देखें
          तीनो भावेश की घर की बढ़ चले| देखा क्या भावेश छड़ी से मिट्टी खोद रहा है और उस मिटटी को लेजाकर बढे से गड्ढे को भर रहा है मनीष बोला चलो चलकर देखते हैं आखिर भावेश कर क्या रहा है| भावेश के निकट आते ही अनुराग ने पूछा भाई क्या कर रहे हो भावेश भईया इस गड्ढे को भर रहा हूँ अभी गिरते गिरते बचा हूँ इस गड्डे से मनीष हस्ते हुए बोला भावेश भाई कल शाम को हम सभी ने कुछ विचार करने को कहा था और तुम हो कि गड्डे को भरने में लगे हो | भावेश बोला उस बारे में थोड़ी देर बाद बात करते हैं पहले इस गड्डे को भरने में मेरी मदद करो| तीनो भावेश के साथ हाथ बटाने लगे और देखते ही देखते गड्डे को रस्ते के बराबर कर दिया| भावेश के मन में कुछ विचार आने लगा और अपने दोस्तों से बोला क्यूँ न आज गांव के रस्ते में जितने भी गड्डे हैं सभी को भर दिया जाय| अनुराग ने कहा भाई आज बहुत हो गया गड्डों को फिर भर देंगे
भावेश ने कहा भाई कोई गिरने से बच जाए तो तुम्हे दुवा देगा| क्या पता इसी में हमारी भलाई हो| अनुराग, विकाश और मनीष भावेश के बातों से सहमत हुए और लग गये गांव के गड्डों को भरने में देखते ही देखते सभी गड्डे उन्होंने भर डाले| लेकिन रस्ते के आस पास कांटे दार झाड़ियाँ थी जिससे भरे हुए गड्डे दूर से दिख नही रहे थे फिर विचार किया क्यूँ न इन झाड़ियों को भी साफ कर दें फिर क्या था चारों ने मिलकर रास्ते को चमका दिया दूर से ही देखने में लग रहा था गाँव में कुछ काम चल रहा है | 



कहानी आगे  जारी है  प्रतीक्षा करें .........................

दाज्यू पहाड़ बेचि है

बेचि है दाज्यू बेचि है
पहाड़ खोदी खोदी बेर बेचि है ।
हमर पितरों जमीन
हमर नी रैगोय
हमर जमीन पर
दलाल मालिक बण गिन
विकाश विकाशे नाम पर
हमर पहाड़ बेचि है ।
झट्ट जागी जाओ आजि मुणि दिन
हमर घर हमर निरोल
दूर बटी देखि बेर
लट्ठ  मारि बेर हमुकें
घर  बटि भजाई जाल।
आजि ले रईं सईं बचैले
बखता बचै सकछै बचैले
आपण  रईं सईं पितरों जमीन बचैले
नतर भो त्यर घर, पहाड़
त्यर नि रौल
नेतानु और दलालुं जेबक् माल हॉल।
-पागल पहाड़ी

Monday, May 11, 2015

किसानों की अनदेखी कब तक

            एक तरफ फसल क्षति के सदमे से किसानों का मारने का सिलसिला जरी है तो दूसरी ओरओर केंद्र और राज्य सरकारें अपनी राजनैतिक्ता को सिद्ध करने के लिए एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने का सिलसिला जरी रखे हैं । ऐसे में किसानों की सुद कौन लेगा ? एक ओर प्रकृति की मार से फसल की पैदावार नष्ट हो गई तो दूसरी ओर राजनीतिक दलों की अनदेखी। किसान अपना दुखड़ा रोए तो किसके सामने ? केंद्र व राज्य सरकारें यह सब जानते हुए भी किसानों के लिए अब तक कुछ खास नही कर पाई है । 
                   भारत को कृषि प्रधान कहा जाता है और यहाँ की 80 फीसदी आबादी खेतों पर ही निर्भर करती है इसके बाबजूद देश में यह क्षेत्र सबसे पिछड़ा है। किसानों की हालिया रिपोर्ट आने के बाद भी किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने की फुर्सत न तो सरकार को है न ही किसी राजनीतिक पार्टी को। पर हाँ उनकी आत्महत्या के मामले में विपक्षी पार्टियों के लिए सरकार पर हमला करने का हथियार जरूर बना है। 
            एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो) के मुताबिक हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है, यानि अन्नदाता की भूमिका निभाने वाला किसान अब अपनी जान भी बचाने में असमर्थ है। केंद्रीय ख़ुफ़िया विभाग ने भी हल में किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, उसमें कहा गया कि किसानों की आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी। इनमे आसमान बारिश, ओलावृष्टि, सिंचाई की दिक्कतों, सूखा और बाढ़ को प्राकृतिक वजह की श्रेणी में रखा गया था, साथ ही कीमतें तय करने की नीतियों और विपणन सुविधाओं की कमी को मानवनिर्मित बताया गया है, लेकिन इस रिपोर्ट में कहीं भी इस बात का कोई जिक्र नहीं था कि आखिर समस्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है!
11 मई 2015 हरदौल वाणी
सरकारी आंकड़ों पर यदि नजर डालें तो किसानों की समस्या बद से बत्तर होती जा रही है। एनसीआरबी के मुताबिक, वर्ष 1995 से 2013 के बीच तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वर्ष 2012 में 13,754 किसानों ने विभिन्न वजहों से आत्महत्या की थी और 2013 में 11,744 किसानों ने आत्महत्या की। वर्ष 2014 मई भी आत्महत्या की दर में तेजी आई है। अंग्रेजी अख़बार 'द टाइम्स ऑफ़ इंडिया' खबर के मुताबिक महाराष्ट्र में ही 1921 किसानों ने आत्महत्या की थी। हालाँकि अभी सरकारी आंकड़ों की रिपोर्ट आनी बल्कि है। न्यूज चैनल बीबीसी के मुताबिक इस वर्ष जनवरी से मार्च तक महारष्ट्र के विदर्भ में अब तक 601 किसानों ने आत्महत्या की है। वहीँ पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने बेमौसम बरसात में कम से कम 35 किसानों की खुदकुसी की बात स्वीकार की थी। बंगाल, राजस्थान, गुजरात,मध्यप्रदेश, और तमिलनाडू का भी यही हल है। इन राज्यों में साल दर साल आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। 
              कहने को केंद्र सरकार ने मुआवजे का एलान किया है,पर किसानों को कब और कितना मिलेग यह कुछ समय बाद साफ नजर आएगा। अब तक किसानों की पीड़ा न राज्य सरकारें समझ पाई हैं न ही केंद्र सरकार। ऐसा नही है कि केंद्र सरकार व राज्य सरकारों को पता नही, बल्कि वे लोग संसद सत्र के दौरान किसानों की बात हमेशा से बराबर आवाज उठाते रहे हैं , पर जमीनी हकीकत यही है कि किसानों को कभी सही समय पर उचित मुआवजा नही मिल सका। यहाँ तक की उत्तर प्रदेश की सरकार ने किसानों के साथ 61-62 रूपये का चैक देकर जो मजाक किया है उसकी भी अनदेखी नही की जा सकती। किसानों को लेकर केंद्र व राज्य सरकारें कितनी संवेदनशील हैं यह अभी तक स्पष्ट नही हो पाया है। अगर राज्य सरकारों का किसानों के प्रति यही हाल रहा तो किसानों की आत्महत्याओं की सुर्खियां बनी रहेंगी। रही सही कसर केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर किसानों की कमर तोड़ रही है।
                केंद्र सरकार कॉरपोरेट जगत को जमीं देने के लिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में नए संशोधन कर लोकसभा में पूर्ण बहुमत से पास कर लिया, अब राज्यसभा में पास करने के लिए बड़े आतुर है। ताकि उद्योग पतियों को किसानों की ज़मीन लेने में किसी भी प्रकार से कष्ट उठाना न पड़े, भले ही किसानों को अपनी पैतृक जमीन से वंचित होना पड़े। जो उपजाऊ जमीन पीढ़ी-दर-पीढ़ी से किसानों का भरण पोषण करते रही अब उसे उस भू-माता से वंचित किया जायेगा। केंद्र सरकार दोगुना, तीनगुना मुआवजा व नौकरी जैसे प्रलोभन देकर किसानों को रिझाने का प्रयत्न कर रही , ताकि किसान अपनी भू-माता को उद्योगपतियों के हवाले कर दें। जो उपजाऊ जमीन किसानों को कई पीढ़ियों से पालती आ रही है और न जाने आगे कितनी पीढ़ियों को पालेगी। तब ऐसे में प्रश्न उठता है कि मुआवजे व नौकरी से किसान अपनी कितनी पीढ़ियों को पाल सकेगी?
                   भारत को सिंचित करने वाला किसान दोराहा पर लटका हुवा है। एक तरफ खाई तो दूसरी और कुआं, यानि दोनों ओर मौत। सरकारें छोटा-मोटा मुआवजा देकर या राहत पॅकेज का एलान कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाती हैं। नतीजा समस्या जस की तस बनी रहती हैं और आत्महत्या का चक्र जारी रहता है आखिर अन्नदाताओं के आत्महत्या का सिलसिला कब तक चलता रहेगा?
पं. भास्कर जोशी

Thursday, March 12, 2015

ग्रहण नारी पर .......

हाय कैसी विडम्बना है इस देश की
9-3-2015 हरदौल वाणी
महिला दिवश पर विशेष अंक पर प्रकाशित 
नारी को देवी मानकर जिस देश ने पूजा
आज उसी नारी पर अत्याचार हुआ
माँ की कोख से लेकर बुढ़ापे तक
न जाने कितनी याचनाओं से गुजरना पड़ता है
हाय यह कैसी विडम्बना है इस देश की | -1

अभी तो माँ की कोख में माह भी न बीता था
चले भ्रूण हत्या करने पुत्र मोह के अहंकारी
क्या दोष था उस अबोध कन्या का
जिसका गला तुमने गर्भ में ही दबोच दिया
कैसी नीचता है यह तुम्हें अपने पर घृणा न आई|
हाय यह कैसी विडम्बना है इस देश की |-2

प्यारी दुलारी गुडिया सी, नटखट बिटिया
खिल-खिलाकर अपनी मस्तियों से रंग भरती
खेल-कूद की दीवानी, बचपन के भरी
बाबुल ने बोझ समझकर उसे ब्याह दिया
कैसी लाचारी है यह तुम्हे अपने पर शर्म न आई |
हाय यह कैसी विडम्बना है इस देश की |-3

आज वह ससुराल को सब कुछ मान चुकी
जिसे बाबुल ने बड़े लाड़ प्यार से पाला था
कभी सास-ससुर के ताने सुनती
तो कभी पति के अत्याचारों से सहम जाती
जिसे वह अपना समझ बैठी थी
वह ससुराल उसे कभी अपना न पाया| 
हाय यह कैसी विडम्बना है इस देश की |-4

जिस देश ने सर्वत्र की है नारी की पूजा
उसी नारी को आज चौराहे पर निर्वस्त्र किया
हाय लगेगी उस नारी की इस देश को
जिसने रोशन किया माँ, बहन, बेटी बनकर घर को
और आज उसी नारी पर चौतरफा ग्रहण लगा हुआ|
हाय यह कैसी विडम्बना है इस देश की |-5



Monday, February 23, 2015

देखो मगर प्यार से

देखो मगर प्यार से 
माँ बेटे का प्यार देखो 
कांग्रेस का इमोशनल अत्याचार देखो 
देखो मगर प्यार से 
दिल्ली का भागा हुआ सी एम् देखो 
"आप"  की नौटंकी देखो
देखो मगर प्यार से
बुढ़ापे का इशक देखो
देग्विजय का रोमांस देखो
देखो मगर प्यार से
आजम खां की भैंस देखो
मुलायम का गुंडा राज देखो
देखो मगर प्यार से
घोटालों की सरकार देखो
बेईमानों का ईमान देखो
देखो मगर प्यार से

गांव की पुकार

पूछती हैं हमसे
गाँव की गलियां और चौबारे
प्यारे ! कुछ तो कहते जाओ
हमें निसहाय छोड़कर तुम चले गये
लौटकर फिर कब आओगे
यह तो बतलाते जाओ |

पूछती हैं हमसे
गाँव की गलियां और चौबारे
प्यारे ! शायद ही अब तुम्हे
याद होगा बचपन अपना
इन्हीं गांव की गलियों और चौबारों ने
तुम्हें घर का पता बतलाया था
खेलते कूदते इन्ही गलियों में
तुमने अपना बचपन बिताया था
क्या तुम्हे अपना बचपन याद नही आता ?

पूछती हैं हमसे
गाँव की गलियां और चौबारे
प्यारे ! मैं यादों के सहारे
दिन रात तुमरी रह तकती हूँ
लौटकर आओगे तुम
यही आश अबतक जगी है मुझे में
एक बार मुड़कर तो देखो
अपने गांव की मिट्टी, गलियों और चौबारों को
मुझे विश्वास है तुम लौटकर आओगे|

पूछती हैं हमसे
गाँव की गलियां और चौबारे
प्यारे ! तुम आओगे ना ?
तुम आओगे !

Monday, February 2, 2015

खेल नेता, चुनावी खेल

हरदौल वाणी अंक 52 दिनांक 2/2/2015 में प्रकाशित 

आओ नेता जी फिर खेलें चुनावी खेल
जनता को कुछ तुम बर्गलाओ, कुछ हम
नए दौर की नई राजनीति खेलें हम 
और जनता संग खेलें आँख मिचोली खेल |

मैं तुम पर आरोपों की लड़ी लगाऊं 
तुम मुझ पर लगाओ नए इजामत 
बैठकर आपस में हम समझौता कर लें
और जनता संग खेलें, हिंसा खेल | 

मामा-भांजा बनकर पासे फैकें हम 
नए दौर के नए वादों से, जनता संग खेलें
तुम जीत गये तुम्हारी जय, हम जीत गये हमारी जय 
और जनता संग खेलें चीरहरण का खेल | 
-भास्कर जोशी

Friday, January 16, 2015

कहाँ ढुँढु तुझे

कहाँ ढुँढु किस ओर तरासुं तुझे।
कहीं भी तेरा कोई ठिकाना न मिला।।

गली, नुक्कड हर चौराहे ढुँढा तुझे।
पर ठेकुली तेरा कोई अता पता न मिला।।

कई खत भेजे पोस्ट ऑफिस से मैने।
उन खतों का अब तक कोई जवाब न मिला।।

तुझे लेकर न जाने कितने ख्वाब संजोये  हैं मैंने।
चाँद तारों को भी खबर हो गयी पर तुझे खबर न हुई ।।

न चाहकर  भी कई बार मिस किया  तुझे।
तूने कभी मिस किया उसकी हिचकियाँ तक मुझे न मिली।।

तेरी तलाश में अपनी सुध खो बैठा हूँ तेरी बाला से।
फिर भी मेरी सुध का तुझ पर कोई असर न पड़ा|

तुझे ढुँढ-ढुँढ कर मेरी आँखेँ भी पथरा गयी।
इसे मेरी बेचैनी कह या पागलपन तुझे ढुँढे बगैर हार न मानुँगा।।

Wednesday, January 14, 2015

तत्वाणी का पर्व

नमस्कार मित्रो आप सभी को उत्तरायणी मकर संक्रांति की ढेरों शुभकामनाएँ|

 आज गांव में तत्वाणी मनाई जाएगी और कल को सिवाणी|
साभार : फेसबुक से 
तत्वाणी के नाम से बचपन की यादें लौट आई है 5-6 दिन पहले से तत्वाणी कैसे मनानी है उसके विषय में सभी  मित्रों की बैठक होती थी स्कुल से आते वक्त भी इसी बात की चर्चा होती थी कि तत्वाणी में क्या और किस तरह के पकवान बनवाने हैं इसे बात को लेकर चर्चा होती थी .. ..तय होने के अनुसार सभी मित्र बंधू पैसे जमाकर समान खरीद कर जिसके यहाँ तत्वाणी मनानी होती थी सारा सामान आलू, बेसन, मसाले, मूंगफली लाकर वहां रख दिया जाता था| तत्वाणी के दिन शाम होते होते सभी मित्र बंधू इक्कठा होकर पकवान की तयारी  में जुट जाते हैं सभी से कुछ न कुछ एक एक बर्तन घर से लाने  को कहा जाता था| साम को सरे बर्तन इक्कठा होने के बाद अगेठी में आग जलाई जाती थी लकड़ियों की कमी हमारे नही थी जितनी आग जला सको | रात में खूब पकोड़ियाँ बनती थी पकती तो कम ही थी कच्ची पकोड़ियाँ ही खा जाते थे | अंत में बारी अति थी मूंगफली की| रात के एक दो बजे तक तो  मूंगफली खाते खाते बीत जाते लेकिन रात्रि के तीसरे पहर की नींद बहुत हावी होती है कितनी भी कोशिसी करो उस प्रहार में स्वस्थ आदमी को भी नींद आती ही है और हम तो तब बच्चे थे | एक मित्र तो गजब के खराटे मार रहा था नींद टूट गयी उससे परेशान होकर फिर हम खुरापात में उतर आये| जो मित्र खराटे मार रहा था उसके नाख में रुई भर दी तो उसके खराटे बंद अब तो मजा आने लगा | रात में लकड़ियाँ जो जलाई थी उसके कोयले बच गये कोयले को पिस कर उसका घोल बनाया और सब के चेहरों  पर  में नई नई कलाकृति करने लगे | सोचिये खुरापात दिमाग फिर क्या क्या कर सकता है पूरी राक्षसों की सेना तयार  कर डाली| उसके बाद फिर हम सो गये| सुबह जब उठे तो एक दुसरे को देखकर जो हंसी के फुब्बारे फूटे वह देखने लायक था| सुबह को ठन्डे पाणी से नहाना था सिवाणी मनानी थी तो सभी अपने अपने कपडे तौलिया लेकर नौला पहुँच गये| स्नान करने के बाद फिर हम सभी अपने अपने घर लौट आये|
आज भी गाँव के वे दिन बहुत याद आते हैं गांव का बच्चपन और गांव की यादें बार त्योहारों पर याद आ ही जाती हैं

मेरे सभी मित्रों को तत्वाणी, सिवाणी और मकर संक्रांति की ढेरों ढेरों बधाई | 

गेवाड़ घाटी