Thursday, August 31, 2017

म्यर पहाड़ बानर

म्यर पहाड़ क बानर
य कुड़ी पल कुड़ी
धुरका धुरुक न्यार
न डर, बिल्गहूं न्यार उणी

सार खेत पाती बांज है गयीं
बुतुण हालो चै चितै टिप जाणी
लगुल बुतो टुक चट कर जाणी
कि हूं कुंछा दाज्यू पहाड़ में
झिट घड़ी सफा चट कर जाणी

अनाज भ्यार सुकौहूं हालो
बौज्यू जै माल सपोड जाणी
घर भतेर राशन समाय बेरि धरो
च्वांक ऐ बेर ध्वांर में बैठ सपोड जाणी

रई सई उँ ठुल बानर नि खाण दिणाय
जो ऊनि दल बांग लिबेर घर घर जानी
मि तुमर मि तुमर कै, भीख मांग जानी
पाई पाई बचि खुची, मौ लगै जानी।

सवेंण दिखुण में उनन पी एच डी कराखि
झुट बलाण महारत हासिल कर राखि
म्यर पहाड़ मैस हराइ जस टोप मार राखि
उनर मनखी को जाणो, बात दुःखकि
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गणेश ज्यु बर्थडे

ओ गणेश ज्यु।
कां छा हो
आज तो खूब झरफर हेरै हुनेली
कां जूं कैवाँ जूं हैरै हुनेली
तुमर वां ब्याव को आज
पार्टी सार्टी भी होगी क्या
केक सेक लै बड्याँट से हीकटेगा बल
 ब्योल्च से सोरा सोर होगी बल
 आज ढोल  दमु बैंड लिबेर खूब स्वागत हुणो तुमर
नाचने कूदने खूब लोग मिठै बाँटनयी
मंदिरों में भ्यार बटि लंगर लै चाल् है गयीं
एल तुम लै खूब  फ़ौरी रैई हुन्याला
विसर्जनक दिन जब यूँ लोग
पी खै बेर शक़राबक धुत्त में
गध्यार मैं बगै द्याल
तब तुमन कैं अन्ताज आल
यों तुमर लिजी ना
आपन पीण खांणक जुगाड़ करणी।

प्रवासीय की पीड़ा

य कविता जो शहर में रूनी, कभे घर पहाड़ जाणक मौके नि लगान पर रटन पहाडक जरूर भै। उनर पीड़ा कै कविता में उतारण कोशिश छ भल लागली तो जरूर बताया।

प्रवासीय की पीड़ा

दाज्यू को जाणो पहाड़
कि ल्याला पहाड़ बटि
म्यर गौक लै हाल चाल दिखी आया
म्यर गौंक लै खबर बात पुछ ल्याया।

मि अब शहरी है गयुं
मि अब परिवार वाव है गयुं
रत्ते रत्ते ड्यूटी बाट लाग जानू
ब्याव कभे घर पूजों, के टैम नि भय
नि मिलन मौक अब पहाड़ जाणक
इपने शहरों में लटपटी अलझि रौनु ।

कधीने गौं गाड़क याद एन्छो
नानतिनान  कै आपण बचपन बतौनु
गोर भैंस चरूणक किस्स बतौनु
खेल खेल में मैंसूं पुल्लम खुमानी चोरी किस्स बतौनु
कसिक दिन हमूल पहाड़ में काटि
आज उन दिनन कैं तसैके याद कर ल्युनु।

भट्ट, गहौतक डुबक, मांसक चैन्स
कल्यो में, मडुवे रौट और लाशणक लूंण
चहा-मिश्री कटुक दगै हडकै लिंछि
आ-भागी तू लै आ कैबरे नीबू सानछि
रंगत छि उं दिना जब हम पहाड़ में छि
अब शहर में तसकै रग-बगी गोई।

लला तुम पहाड़ आपण घर जाला
म्यर गौं, म्यर घ्वेटक लै हाल जाणी लिया
अहांण-कहांण तो बजि-गो कुनैच्छि
वॉर पौरक लै घर बांज हैगो कुनैच्छि
तुम घर जाणे हुन्याला
म्यर गौं लै खबर बात पूछ ल्याया।
भास्कर जोशी।

कै पहाड़ ?

कै पहाड़ ?

को पहाड़ कैक पहाड़
न म्यर पहाड़ न त्यर पहाड़
जैक पहाड़ विल लुट पहाड़
खाय पहाड़ भर पहाड़
न रौय पहाड़ न बचि पहाड़
लूट पहाड़ खशोडी पहाड़
चुनि पहाड़ झकोरि पहाड़
न बौज्यूक पहाड़ न बुबूक पहाड़
नेताओं पहाड़ माफियाओं पहाड़
बेचि पहाड़ धंध पहाड़
झन कया म्यर पहाड़
भुलि जया म्यर पहाड़
जान बचि रौली पै पहाड़
लठ्ठ खांण पड़ा कै पहाड़
देखहूँ आला कभते पहाड़
होटल बटि देखि जया पहाड़
को पहाड़ कैक पहाड़
न त्यर पहाड़ न म्यर पहाड़। -भास्कर जोशी

केंद्र सरकार की नाकामी

ये मोदी सरकार की नाकामी नहीं तो और क्या है। 144 धारा लगाने के बाद हजारों की हुजूम लेकर रामरहीम के समर्थक देश की बर्बादी कर रहे हैं। यह सब किसकी जेबों से भरपाई की जाएगी ?

मुझे याद है जब हरियाणा में चुनाव होने थे तब हरियाणा में बीजेपी का एक बड़ा सा तबका रामरहीम से मिलने गया था और उस से समर्थन को कहा था तब डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम ने बीजेपी को समर्थन देकर बीजेपी की जीत में अहम भूमिका निभाई थी।

यही कारण है कि खट्टर सरकार उनके समर्थकों को रोकने के बजाय उनके समर्थकों को खुल्ला छूट दिया हुआ है। धारा 144 लगाने के बाद किसकी मजाल कि कोई सरकारी वाहनों या अन्य वस्तुओं को आग के हवाले कर दे। सरकार के अपने वोट बैंक और नाकामी  के चलते 25 से अधिक लोगों की जान चली गयी।

 जब 25 लोगों की जान चली जाती है कई लोग घायल हो जाते तब खट्टर साहब का बयान आता है। अरे कुछ तो शर्म करो। लोगों की जान जाने के बाद भी तुम जैसे गैरजिम्मेदाराना लोग सरकार में बने कैसे रह सकते हो। ऐसा ही कुछ उत्तरप्रदेश में भी हुआ जब 30 बच्चों की जान चली जाती है तब दवाब में ये बयान देते हो कि हम इसकी तहक़ीकात करेंगे। आप जैसे गैरजिम्मेदार लोगों के मुंह से बस यही सुनना बाकी रह जाता है।

मोदी जी धन्य हैं आप और आपकी विकास वाली टीम का। जो देश में बहुत अच्छे से विकास ला रहे हो। यही विकास था ना आपका । कि मजे ले कोई और भरे कोई। शर्म करो धिक्कार है ऐसी राजनीतिक व्यवस्था । धिकार है तुम्हारी कानून व्यवस्था पर।

घंतर-14 प्रेस वार्ता विथ भीकूदा



बल भीकूदा देश में यह हो क्या रहा है?

आप तो मीडिया हैं क्या आपको पता नहीं कि देश में क्या हो रहा है। हां पता होगा भी कैसे चीन मीडिया की तरह आप लोग भी सरकार की बोली बोलते हैं तब ऐसे में  आपको  देश की परेशानी कहाँ दिखाई पड़ती हैं। मीडिया तो आजकल सरकारों की कठपुतलियां बनकर रह गयी है।

नहीं भीकूदा ऐसा नहीं है अब राम रहीम को ही देख लीजिए , मीडिया पूरा कवर कर रही है।

जी हां दुनियां देख रही है मीडिया किसे कवर करती है किसे नहीं। यदि मीडिया चाहती कि वह स्वतंत्र होकर देश की तमाम मुद्दों को सामने लाकर सरकार के सामने रखती और सरकार के मंत्रियों से पूछती कि आप जनता के समस्याओं का निदान क्यों नही करते ? क्यों जंतर मंतर पर खड़े होकर लोग मागें माँग रहे हैं। उनकी मांगे पूरी क्यों नहीं करते ? पर मीडिया का ध्यान उधर कहाँ हैं वहां से TRP भी तो नहीं मिलती। रही बात राम रहीम की । उसे तो आप कवर करोगे ही क्योंकि उससे आपको TRP तो मिलनी है साथ ही सरकार में बैठे मंत्रियों तक आपकी रिपोर्ट पहुंच सके और वे अपनी बयान बाजी कर सकें। उसके बाद आप उन बयान बाजी पर बेतुकी डिबेट कर हम लोगों का मत्था चटोगे। क्या यही काम रह गया मीडिया का ?

भीकूदा मीडिया तो हमेशा ही देश दुनिया के मुद्दों को उठती रही है। चाहे वे घोटाले हो दंगे हो, भ्रष्टाचार हो , सामाजिक मुद्दे हो सभी तो उठती रही है, मीडिया ही तो है जो दुनियां के सामने कच्चाचिट्ठा खोल कर रखती है ।

जी इस बात से इनकार नहीं करता कि मीडिया ऐसे मुद्दों को सामने नहीं लाइ। जरूर लाई। परन्तु मौजूदा हालात पर गौर करें तो अभी मीडिया सरकार के अधीन है सरकार जैसा चाह रही है वैसा ही शो कर रही है। अब  उत्तराखंड के पंचेश्वर बांध को ही ले लें । इस मुद्दे को मीडिया ने कौन सा स्थान दिया। वहां के लोगों को न ही विस्थापन के लिए कोई भूमि आवंटित की न ही किसी प्रकार का मुआबजा देने को सरकार सरकार राजी है। सबसे बड़ी बात की सरकार पर्यावरण को लेकर सरकार बड़ी बड़ी बातें करती है ऐसे में उत्तराखंड नदी नालों में बांध बनाने से सरकार क्या बतलाना चाहती है। क्या मीडिया ने समस्याएं सरकार के सामने रखी ? क्या उन हुक्मरानों से पूछा कि आप पहाड़ की जनता के साथ ऐसा दूर व्यवहार क्यो कर रहे हो ? नहीं पूछा ना । भला क्यों पूछोगे। उसी सरकार की बदौलत ही तो तुम्हारा न्यूज चैनल् और प्रिंटिंग प्रेस चल रहे हैं। ऐसे में मीडिया कहाँ हैं ?

भीकूदा के घंतर चालू आहे ।

Wednesday, July 5, 2017

कविता : जगरियक आशीर्वाद



भम-पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन
शहरी स्वकारो तसिके पहाड़ ऊने राया
तुम तसिके भूत छौ पूजने राया
भम-पा पक़म,भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन

बाट घवेंटु ख़ूब छौ छितर लगै लिजाया
साल भरक छौ छितर महेण में पूजने राया
मशाण भूत प्रेत लगौने राया
तुम तसिके पहाड़ में पूजने रै जाया
भम पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन

पहाड़ एबेर अड़ोसी पड़ोसी कुँ गाई ढाई दिजाया
भकार भरि बेर हंक लगै लिजाया
हंक धुण में ख़ूब बकार काटि जाया
तुम तसिके पहाड़ में पूजने रै जाया
भम-पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन

तुमर छौ छितर में मुर्ग़ी फ़ारम फ़ई जो
तुमर हंक धुण में बकारक मालिक मालामाल है जो
शराबी कबाबी पी खै बेर बारोमास घूरी पड़िए रैजो
तुम तसिके पहाड़ में बार बार पूजने रैजाया
भम-पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन

मगें रोज तसिकै बलौने रैया
तसिकै हुडुकी थाई बजुनें रूँ
खै पी बेर म्यर रोज़गार दुब जस फई जो
तुम तसिकै पहाड़ पूजने, भेटने राया।
राज़ी राया ख़ुशी राया स्वकारा।
भम-पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन
भास्कर जोशी

Monday, July 3, 2017

कविता

लिखना कुछ और चाहता था मगर लिखा कुछ और ही गया-

लोगों का क्या
उनका काम है कहना
इधर की उधर करना
और उधर की इधर करना।
कहीं मलाई लगाना
कहीं कानों में फुस्काना
चमचागिरी करना
लोगों का क्या
उनका काम है कहना ।
सीधे सादे लोग
अब तुम्हारी यहाँ कोई जगह नहीं
तुम पैदा ही गलत वक्त पर हुए हो
मांग भले ही आज भी तुम्हारी कहीं हो रही हो
मगर गेहूं में घुन की तरह
 तुम जरूर पिस जाओगे
लोगों का क्या
उनका काम है कहना।
एकदम पाक साफ हैं वे लोग
जिनके हाथ रंगे हो रंग से
वे न जाने कितने मुखौटे लिए हुए हैं
फिर भी बेदाग़  सर उठाकर शान से जी रहे हैं
लोगों का क्या
उनका काम है कहना।
सीधे लोग अपना अस्तित्व कैसे बचाएं
कैसे जिए वे इस धूर्त परिपेक्ष में
धीरे धीरे लुप्त हो रही यह प्रजाति भी अब
अगर कहीं संग्रहालय मिले
तो कुछ नमूने के तौर पर रख लेना
ताकि कल यह कह सकेंगे
कि सीधे सादे लोग ऐसे होते थे
लोगों का क्या
उनका काम है कहना ।
भास्कर जोशी

शराब ले लो रे शराब


जी हां अब इसी अंदाज में उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में शराब मिलेगी। शराबियों को अब मंदिर (मदिरालय) जाने की जरूरत नहीं । अब उन्हें मंदिर के बहार लंबी लंबी लाइन लगाने की जरुरत नहीं । सूत्रों के हवाले से त्रिवेन्द्र रावत जी ने कहा है कि हमने मदिरालय के कर्मचारियों को आदेश दिया है  कि अब  जनता  पास वे  अपने वाहन लेकर खुद हाजिर होंवें ।

रावत जी ने जनता को आस्वस्त करते हुए  कहा कि  आपको मंदिर में लाइन लगवाने की जरूरत नहीं। आप लोग दूर दराज गांवों से आकर लंबा इंतजार करना पड़ता है। पर अब ऐसा नहीं होगा। हम आपको परेशान नहीं होने देंगे। हम आपके दुःख दर्द को समझते हैं भला आपको परेशान होते हुए कैसे देख सकते हैं

यह तो हमारी सरकार की प्राथमिकता है कि हम घर घर तक शराब पहुंचाएंगे। इससे राज्य का ही नहीं देश का भी मान बढ़ेगा। इस से कई लोगों को रोज़गार मिलेगा। हर शहर और ग्रामीण इलाकों में ड्राइवर और शराब बेचने वालों की वैकेन्सी खुलेगी।  अभी तो हम  सिर्फ वाहन के जरिये पहुँचा रहे  है। अगर सरकार को फायदा होते हुए दिखा तो हम पोस्ट मैन की तरह आपके घर तक शराब की बोतलें  पहुंचाएंगे।

इसी कड़ी में कुछ दिनों बाद आप ऑनलाइन डिमांड भी कर सकेंगे। फिलहाल अभी वाहन द्वारा ही शराब पहुंचाने का कार्य शुरू किया है। जैसे जैसे यह ग्रोथ करेगा , वैसे वैसे सुविधाएँ बढ़ती जायेगी।  बहरहाल  पीने वाले अभी रोड में खड़े रहें। मदिरालय की गाड़ी बस अभी आती ही होगी। अगर आप समय से रोड पर उपस्थित न रहे तो आपको शराब से वंचित होना पड़ सकता है।

महिलाएं कतई परेशान न होवें। आप लोग भी बढ़ चढ़कर भाग ले सकते हैं । यह सुविधा सिर्फ पुरुषों के लिए ही नहीं महिलाओं के लिए भी लागू कर दिया गया है। हमारी सरकार की नीति स्पष्ट है सबका साथ सबका विकास। आपके द्वारा लिया गया शराब का  बोतल देश के काम आएगा। हमारे लिए देश सर्वोपरि है। आप नहीं।

भास्कर जोशी

दलित राष्ट्रपति : भीकू दा से सीधी बात



भीकू दा बहुत समय बीत गया । आपसे मुलाकात न हुई और न ही कोई इंटरव्यू। अभी आप मिले हैं तो क्या एक इंटरव्यू हो जाए ?

भाई आप तो टीआरपी के मौताज हैं और मुझ  पर लट्ठ बरसाने की फिराक में भी। आप तो मेरे कहे हुवे को छपा देंगे परंतु उसके बाद जो धमकियाँ आने लगती हैं वह मैं ही जानता हूँ आप तो साफ़ बच जाएंगे। फिर भी कोशिश करता हूँ आपके सवालों के जवाब दे सकूँ।

धन्यवाद भीकू दा! अच्छा कुछ दिनों बाद राष्ट्र पति का चुनाव होने जा रहा है कौन बनेगा नया राष्ट्रपति?

ले भाई ! कर दी ना देश द्रोह वाली बात। केंद्र में बैठी नई सरकार व् उसके संगठन के कार्यकर्त्ता ही देश भक्त हैं यदि उनके नीति और नियत पर प्रश्न किया तो आप देश द्रोही कहलायेंगे। अगर मैं यह कहूँ कि इसबार राष्ट्रपति का चुनाव नहीं हो रहा बल्कि दलित पति का चुनाव हो रहा है तो यही लोग मुझे देश द्रोही कह डालेंगे।

दलित पति का चुनाव कैसे ?  यह तो भारत के राष्ट्रपति का चुनाव है ना ?

जरूर यह भारत के राष्ट्रपति का चुनाव है इसमें ना ही धर्म आड़े आता है न ही जाती न ही पंथ । लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव में पक्ष और विपक्ष दलित कार्ड का सहारा लेकर वोट बैंक की राजनीति को महत्व दे रहा है। उन्हें राष्ट्रपति से अधिक दलित पति की आवश्यकता है न की राष्ट्रपति की।

तो क्या दलितों को राष्ट्रपति बनने का अधिकार नहीं?

ऐसा नहीं है भईया? सबको बराबर अधिकार है। लेकिन दलित नाम लेकर जनभावनों से खेलना कहाँ तक उचित है। अगर राष्ट्रपति पद के लिए कोई भी सक्षम हो तो उन्हे राष्ट्रपति बनाना चाहिए । चाहे वह किसी भी धर्म जाती का हो। न ही दलित दलित दलित कर शेष धर्म जाती को बांटना चाहिए। यह एक किस्म का बंटवारा है जो कभी ब्राह्मण तो कभी मुश्लिम तो कभी दलित के सहारे चल रहे हैं । ऐसे में आम जनता असहज महसूस करती है।  साथ ही मीडिया को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किस प्रकार से जन भावनाओं से खेल रहे हैं। राष्ट्रपति के लिए दलित व्यक्ति सक्षम हो तो उनके कामों के जरिये  उन्हें वह अधिकार और सम्मान मिलना चाहिए न कि जाति पंथ के आधार पर।
भास्कर जोशी।

मेरे गांव के बात

मेरे गांव के बाट

टेढ़े मेढे बाट
इस बाखली से
उस बखाली तक
घर तक छोड़ जाती ।

घने जंगल के बीच
ऊपर नीचे आडी तिरछी
इस गधेरे से
उस गधेरे के छोर तक
आसानी से पहुँचा जाती।

अब तो आँखें बंद कर भी
उन्ही बाट बट्योरों की छवि दिखती है
सपने  में भी उन्हीं पगडंडियों पर
चलता हुवा खुद को पाता हूँ ।
 भास्कर

मेढकों की महासभा



पास से गुज़र रहा था, वहाँ पर देखा कि बहुत से बड़े-बड़े दल-दल थे। उन दल दलों में अपार मेढकों की संख्या। ताज्जुब करने वाली बात यह रही कि वे सभी मेंढक इंसानी भाषा में बात कर रहे थे। उनकी टर टराने की आवाज मेरी कानों में बहुत तेजी से आ रही थी। शोर गुल इतना कि कान बंद करने की नौबत आ पड़ी। कान में दोनों उंगुलियों को घुषोडने के बाद भी उनकी आवाज फिर भी आ ही रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उनकी सभा चल रही हो  और वे टिकट बंटवारे के लिए नोक झोक के साथ साथ छिना झपटी भी कर रहे हो।

मन किया इन मेढकों को जरा सुना जाय। पता तो चले कि मेढक क्या बात करते हैं। मैंने भी अपने कानों से दोनों उंगलियां बहार निकाल ली। पास ही एक पत्थर पर बैठ गया और उनकी कलाबाजी देखने लगा।परन्तु उनकी  नजर जैसे ही मुझ पर पड़ी वे सभी एकदम सुन्न, मानो सन्नाटा छा गया, सभी दल-दल की गहराई में जा छुपे। मैं फिर भी ताकता रहा , क्या पता कुछ मजेदार बात निकालकर आये, और मुझे भी मिर्च मशला मिल जाए। इतने में एक मेढक दल दल से  मुंडी बहार निकालते हुए कुछ अजीब सी आवाज निकालने लगा कि सारे मेढक, एक एक कर दल दल से अपनी मुंडी दिखाने लगे।  उन में से एक मेढक पूरा का पूरा बहार निकल आया और बाकियों ने सिर्फ मुंडी ही बहार निकाल रखी थी।  बहार निकलने वाला बड़ा सा मेढक सबसे टॉप पर बैठ गया।वहां से  टरटराते हुए वह सभी को संबोधित कर रहा था । बाकि के मेढक उसी की ओर देखकर बड़ी शांतिपूर्वक सुन रहे थे।

कुछ देर बाद उनके बीच कुछ बातें हुई, टॉप पर बैठा हुआ कुछ पलभर के लिए  जैसे ही चुप हुवा कि देखते ही देखते सभी मेढक शोर मचाने लगे। उनके बीच हाथापाई होने लगी , एक के ऊपर एक चढ़ने लगे। गुस्साये कुछ मेढक इस दल दल से उस दल दल में जाने लगे।  उनकी आवाजाही एक सांप भी बड़ी तल्लीनता से देख रहा था। वह भी मौके की तलाश में था कि जैसे ही इनका ध्यान टर-टराने पर रहेगा, इस दल से उस दल में कूदेंगे तो तैसे ही अबकी बार इस दल-दल में , मैं घुस ही जाऊँगा। मगर सांप पर चील भी नजर गढ़ाए हुए था। वह भी यही सोच रहा था जैसे ही यह सांप बिल से बाहर निकले , सीधे झपट्टा मारूँगा।

इधर मेढकें दल-दल बदलने की  खेल में मस्त थे कि तभी सांप दल -दल में घुस गया। सांप ने दल दल में फुंकार मारते हुए, मेढकों को ढूंढने लगा, इतने में सारे के सारे मेढक गायब।मेंढक दल-दल में दल बनाकर अंडरग्राउण्ड हो गये।  सांप गुस्से से दल दल में फुंकार मार ही रहा था कि चील ने धावा बोल दिया और सांप को ले उडा। सांप दल -दल में अपना थोड़ा बहुत  जहर फैला चुका था। चील को देख मेढकों जान में जान आयी। सभी मेढकों ने चील को सर्जिकल स्ट्राइक के लिए धन्यवाद दिया। इधर दल दल में सांप का विष से छटपटाए मेढकों का टर-टराना फिर से शुरू हो गया।
भास्कर जोशी

उफ़ ! ये गर्मी

उफ़ ! ये ग़र्मी

उफ़! ये गरमी
तपती धरा, हवा संग बहती लू
हौले हौले से ही सही
मगर झील्लाती हुई पहुँची।

घमोरियों संग तनाकसी
रोम रोम से पसीने की धार
हौले हौले से ही सही
मगर बहती हुई निकल चली।

आँखों की परत मुरझाई सी
हौंठ सूखे, सूखे बिन पानी के
हौले हौले से ही सही
मगर लपलपाते हुए जीभ ठंडक दे गयी।

सर्दी का अहसास करना
कल्पनाओं से भी, अभी ओझल लगता है
हौले हौले ही सही
मगर फ़ैक्टरी से निकले बर्फ़
ठंडक का अहसास करा गयी।

ए गरमी तेरी ये मुहब्बत
अब हम सर्दियों में याद किया करेंगे।
धुंद की चादर से जब तू ढक जाएगा
हौले हौले ही सही
मगर छटने का इंतज़ार रहेगा।

भास्कर जोशी

कहानी : देबुली बुआ

देबुली बुआ  कहानी

एक दम मुफट, गाली गलौच तूती करना मानो उनका अधिकार था. पीठ पीछे कुछ न कहती जो भी कहना हो मुह पर फट् दे मारती, लोगों ने भी उसे कम गालियाँ नहीं दीं.  बांज, रान, न जाने और क्या क्या गालियाँ देबुली को सुनने को मिलती रही. देबुली जितनी दबंग किस्म की महिला थी उतनी ही करुना से भरी हुई मातृत्व प्रेम भी था. स्नेह जब उमड़ता तो आखों से अश्रु बह उठते. सारा लाड प्यार उड़ेल देती.

आज जब उसकी अंतिम यात्रा की डोली सजाई जा रही थी. तब उसके रिश्ते नाते, की भीड़ लग रही थी. उसकी अंतिम यात्रा में सभी सम्मलित हो रहे थे. देबुली ने अपना जीवन मायके में ही बिताया था. उसकी शादी की डोली तो मायके से उठी ही थी. पर अंतिम यात्रा की डोली भी मायके से ही उठने को तैयार थी. मायके में उसके साथी रहे भाभी, बहुवें रो रो कर देबुली के किस्से बता रहे थे,- देबुली तू कितनी भाग्यशाली रही, तेरे बाल बच्चे न होते हुए भी आज तेरा भरा पूरा परिवार है, दानों में दान- कन्यादान तू कर गयी, यज्ञों में यज्ञ, श्रीमद्भागवत महापुराण यज्ञ कर गयी. तुझे तो वैकुण्ठ ही प्राप्त होगा. देख तेरा परिवार कितना बड़ा परिवार है तू देख तो सही...............|  

देबुली का जीवन बड़ा ही काँटों भरा रहा. यों ही कोई सोलह सत्रह की उमर रही होगी जब देबुली का ब्याह हुवा था, पति उस समय भारतीय सेना में सिपाही था. छ: महीने भी नहीं हुए थे ब्याह के, कि पति सीमा पर शहीद हो गया और इधर देबुली अभी जवां ही न हुई थी कि उसे विधवा होना पड़ा. अभी उसका बचपना भी ठीक से बीता नहीं था और न जाने विधाता ने उसके साथ इतना बड़ा अत्याचार क्यों किया. वह भगवान को हमेशा कोश्ती रही,

बड़े भाई को इस बात की सूचना मिली तो वे अपने बहन के दुःख में भागी होने चले गये, पर जब वहां पहुँचे, देबुली की स्थिति देखा, अपने आंसुओं को न रोक पाए| देबुली के सास ससुर से बात कर देबुली को अपने साथ ले जाने की बात कही. भाई की लाचारी देख सास ससुर ने भी जाने की आज्ञा दे दी. भला यहां यह करेगी भी क्या जब पति ही न रहा. अभी तो इसका पूरा जीवन पड़ा है.  बड़े भाई देबुली को अपने साथ मायके ले आये.

कुछ अर्शे तक देबुली एक दम शांत रही, न किसी से बात करती न कुछ कहती, समय बीत रहा था तो देबुली भी अब अपने दुखों से धीरे धीरे उभरने लगी, कुछ साल बीत जाने के बाद देबुली की छोटी बहन की शादी तय हुई, बहन की शादी के बाद देबुली सामान्य स्तिथि में आ चुकी थी. सबसे बात चीत करना हंसी मजाक करना, घर के सभी काम में हाथ बटाना, वह सब कुछ करने लगी थी. लेकिन बाद में देबुली की अपने भाई-भाभियों से छोटी-छोटी बातों पर झगडा होने लगा. झगडा इतना बढ़ गया कि देबुली घर छोड़कर अपने बहन के ससुराल पहुंच गयी, खर्चे के लिए उसे अब किसी से रूपये-पैसे मांगने के जरूरत न पड़ती. तब तक देबुली की सिपाही पेंशन लग चुकी थी,

बहन के घर जब पहुचीं, और बहन का हाल देखा तो वह रो पड़ी. जवांई को शराब की बुरी लत लग चुकी थी. दो छोटे छोटे बच्चे थे और एक कोख में पल रहा था. कुछ समय तक देबुली वहां रही, बहन के काम काज में हाथ बटाने लगी. पर जवांई पीए-खाए हालत में घर आता और अपनी पत्नी संग मार पिट करता. बहन की एसी स्थिति देख वह कहाँ चुप रहने वाली थी. वह भी उस झगडे का हिस्सा बनने लगी, जवांइ और बहन की बीच इतना बड़ा झगडा हुवा कि देबुली वहां से छोड़कर अपने मायके लौट आई. भाई के घर पहुँचने के कुछ दिन तक सब कुछ ठीक रहा. कुछ दिन गुजर जाने के बाद वही वाद-विवाद होने लगा. देबुली भी अब दबने के मुंड में नहीं रहती, खुलकर विरोध करती थी,

शहर से जब देबुली का छोटा भाई गाँव पहुंचा, तब बड़े भाई ने देबुली के बारे में वगत कराया. छोटा भाई करता भी तो क्या करता, परन्तु उसने देबुली से कहा जब भी तेरी इच्छा हो मेरे पास शहर चली आना. तेरा छोटा भाई हमेशा तेरे साथ है. तब देबुली बड़े भाई का घर छोड़कर गाँव में ही किसी के यहां किराये पर रहने लगी थी. चार पांच साल तक वह उस घर में किराये पर रही. कुछ दिन बीत जाने के बाद देबुली के नाम एक ख़त पहुंचा, उसमे लिखा था, तुम्हारी बहन के पति नहीं रहे. यह बात जब देबुली के कानों में पड़ी तो वह रोते हुए अपने बड़े भाई के पास पहुंची, भाई होने के नाते उन्हें दुःख तो हुवा पर देबुली के बर्ताव को देख वे कुछ कह नहीं पाए. उनके मन में कहीं कुछ और भी चल रहा था. कहीं उसे भी मायके बुलाने के नौबत न आजाये. यही कारण था की पांच भाइयों में से कोई भी वहां जाने को तैयार नहीं हुआ.

देबुली को अपने बहन की हालत पहले ही देख चुकी थी . जब वह बहन को छोड़ कर आई थी तब दो छोटे छोटे बच्चे बड़ा लड़का और छोटी लड़की ही थे और एक कोख में पल रहा था, बाद के कुछ वर्षों में बहन के चार बच्चे हो चुके थे. बड़ा लड़का था और बाद के तीन लड़कियां.  देबुली को मन ही मन बहन की चिंता सताए जा रही थी. पति जैसा भी हो एक सहारा होता है पति तो आखिर पति होता है. वह इतना तो जान ही चुकी थी, उसने उसी दिन गठरी में चार कपड़े बंधे और बहन के यहां बग़ैर भाइयों को खबर किये चली गयी. बहन का कामकाज भी कुछ कम न था. चार-चार भैंस पाल रखे थे. गाय-बैल सो अलग थे, इधर भाई भी लोक लाज के डर से तीन महीने बाद अपने बहन से मिलने जाते हैं. भाई के वहां पहुँचने पर देबुली के साथ खूब कहा सुनी होती है. तब भाई ने क्षमा मांगते हुए अपनी बहन से कहा- तेरे इस बड़े लड़के की देख-भाल मैं कर लूँगा, मैं भी घर परिवार वाला हूँ, मेरे भी चार छोटे छोटे बच्चे हैं उनके साथ इसे भी अपने बच्चे जैसा रखूँगा. इससे अधिक मैं भी कुछ नहीं कर सकता हूँ .

देबुली के कहने पर बहन ने बड़े बेटे को उनके साथ रवाना कर दिया. कई साल तक देबुली वहीँ बहन के यहां रही वहीँ काम काज संभाला, बहन के बड़े लड़के को व पांचवीं पास करने के बाद उसे वापस बुलवा लिया. और कुछ समय वह वहीँ रही, देबुली के बर्ताव में काफी फर्क आ चूका था व एकदम निर्भीक और झगडालू किस्म की हो चुकी थी. बात-बात में बहन से भी नोक झोक होने लगी.

देबुली के दो भाई शहर में रहते थे. अब वह बारी बारी से कभी वह उनके यहां चली जाती, तो कभी मायके तो कभी बहन के यहां. कई वर्षों तक यह सिलशिला यों ही चलता है, उधर बहन की लड़कियां शादी के योग्य हो गयी थी, बहन का बुलावा आना पर वह बहन के वहां चली गयी. देबुली की पेंशन तो थी ही, तो उका पैसा बैंक में जमा होता रहा, उसी पैसे से उसने बहन ही तीनों लड़कियों की और बड़े लड़के की भी शादी करवाई. समय समय पर अपने भाइयों के बच्चों की शादी के लिए भी देबुली ने पैसों की खूब मदद भी की. जिसे वह अपनी ख़ुशी से देती थी, उस से कभी वापस नहीं मांगती. परन्तु यदि किसी ने एक रुपया भी उससे उधार के रूप में लिया होता, वह एक आना भी न छोडती.

देबुली की उमर भी ढल रही थी. अब इच्छा थी कि वे अपने ससुराल जाकर सबसे मिल लूँ. वह बहन के यहं से विदा लेने के बाद अपने ससुराल में सभी से मिलने पहुंच गयी. तब तक उधर सारा माहौल बदल चूका था. सास ससुर अब रहे नही, देवरानी, जेठानी सभी शहर जा चुके थे. घर के केवाड बंद थे. उस रात वह अपने परिवार बिरादरी के यहां ही रही, वापस लौटना वहां से मुश्किल था. दुसरे दिन वह वहां से लौटते सयम अपने देवरानी और जेठानी का फोन नंबर लेते हुए, मायके लौट आई.  मायके में कुछ दिन बिताने के बाद अपने जेठानी को फोन किया. जेठानी ने भी उसे आने का न्योता दिया.

जेठानी के घर पहुँचने पर वह सभी से मिली, परिवार के बच्चों को भरा पूरा परिवार देख देबुली रोने लेगी. देबुली ने उन सबके सामने अपनी एक इच्छा जाहिर की- कि वह एक बार अपने कुटुम्भ के साथ भागवत कथा करना चाहती है जिसमें आप सभी की भागीदारी जरुरी है. आप लोग मेरे अपने हैं, आप लोगों को ही मुख्य भूमिका निभानी हैं. जेठानी के बड़े बेटे ने इसमें अपनी रूचि और सहमती दोनों व्यक्त की. उसके बाद देबुली वहां से सभी रिस्ते नाते के साथ निमत्रण देते हुए मायके पहुंच गयी. मायके में ही बड़े भाई के बच्चों के देख रेख और गाँव वालों की मदद से भागवत कथा यज्ञ करवाया गया.

देबुली की इतनी उमर हो चुकी थी कि वे अब अपने बुढ़ापे की बीमारी से भी अब जूझने लगी. अस्थमा दिनोदिन बढ़ने लगा था. इलाज के लिए भी वह सभी कुछ कर चुकी थी. पर उसे अब एहसास होने लगा था अब उसका जीवन अधिक समय तक नहीं रहने वाला था. इसलिए मायके लौट आई. उसकी देखभाल उसके बड़े भाई के बहु बेटे कर रहे थे. बहु बेटे अपनी बुवा की देखभाल अपने माँ पिताजी की तरह करते.

बीमारी की अवस्था में देबुली थोडा बोल-चाल की स्थिति में थी. उस दिन सभी रिश्ते नातों से फोन पर बात की और अंतिम भेंट करने की इच्छा व्यक्त की. दुसरे दिन से ही रिश्ते नातों की भीड़ लगनी शुरू हो गयी, और यह हप्ते भर तक चलता रहा, यह देबुली का अपने परिश्रम, त्याग. कर्म का ही फल था कि  उसके अंतिम क्षणों में सभी अपना हक़ बारी-बारी से निभाते आये. उसी बीच एकाएक देबुली का स्वास्थ अधिक बिगड़ गया. सास लेने में तकलीफ काफी होने लगी. दिन ढलने तक सबकी साँसे देबुली बुवा पर ही अटकी हुई थी. सभी देबुली बुवा के इर्दगिर्द ही थे और उस दिन देर रात सबको छोड़ अनितं यात्रा के लिए चल पड़ी.
भास्कर जोशी

दाज्यू देखो धें

दाज्यू देखो धें
कि भल क् बसाई छि
कि भल क् सजाई छि
तल डाना मल डाना
कि हमर पुरखों बसाई छि
देखो धें, कस निसार लागि रै याँ
दाज्यू देखो धें।

कि भल क़ बाखेय छि
कि भल क़ भियार दोपुर बनाई छि
रन्न छि नानतिनाक़, खेलण क़ुदण
कि भल क मिलीझुली परिवार रौंछि
देखो धें, कस निसार लागि रै याँ
दाज़्यू देखो धें।

कि भल क् म्योल लाग छि
कि भल क् रंगत ऑंछि
तुतुरी बजौने नानतिनाक
कि भल क् फुवार लागि रोंछि
देखो धें, कस निसार लागि रै याँ
दाज्यू देखो धें।

कि भल क् नौ धारक पाणी
कि भल क् छ्प-छपी गौ तराण
गागर, कश्यार् लिबेर पनेर जांछि
कि भल क घर भतेर कलश थापी रौंछि
दाज़्यू देखो धें। कस निसार रै याँ
दाज़्यू देखो धें।
भास्कर जोशी

क्किसान मर रहे

कर दिया कबाड़ा
किसान मर रहे
तुम्हारी राजनीति ने
कैसा बंटाधार किया।

धरने पर बैठे
सबकुछ गँवा कर
मांग उनकी जायज है
तुम्हारी बला से

दिन भर वे मेहनत करे
धुप देखे न  छांव
न मिले मजदूरी
 तुम्हारी बला से

किसानों की पीड़ा
कभी तुम न समझोगे
पेड़ों पर लटके मिले
तुम्हारी बला से।

तुम करो राजनीति
आग घर घर में लगा दो
किसान न जी सके न मर सके
तुम्हारी बाल से।

दल-दल बदलने की
तुम्हारी है फिदरत
किसान कहाँ जाएं
तुम्हारी बला से ।

किसानों के सीने में
तुमने दाल दल दिए,
कुछ जैसे तैसे काट रहे दिन
तुम्हारी बला से।

भास्कर जोशी

जगरियक़ आशीर्वाद



भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन
शहरी स्वकारो तसिके पहाड़ ऊने राया
तुम तसिके भूत छौ पूजने राया
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन

बाट घवेंटु ख़ूब छौ छितर लगै लिजाया
साल भरक छौ छितर महेण में पूजने राया
मशाण भूत प्रेत लगौने राया
तुम तसिके पहाड़ में पूजने रै जाया
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन

पहाड़ एबेर अड़ोसी पड़ोसी कुँ गाई ढाई दिजाया
भकार भरि बेर हंक लगै लिजाया
हंक धुण में ख़ूब बकार काटि जाया
तुम तसिके पहाड़ में पूजने रै जाया
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन

तुमर छौ छितर में मुर्ग़ी फ़ारम फ़ई जो
तुमर हंक धुण में बकारक मालिक मालामाल है जो
शराबी कबाबी पी खै बेर बारोमास घूरी पड़िए रैजो
तुम तसिके पहाड़ में बार बार पूजने रैजाया
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन

मगें रोज तसिकै बलौने रैया
तसिकै हुडुकी थाई बजुनें रूँ
खै पी बेर म्यर रोज़गार दुब जस फई जो
तुम तसिकै पहाड़ पूजने, भेटने राया।
राज़ी राया ख़ुशी राया स्वकारा।
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन
भास्कर जोशी

Friday, June 2, 2017

मदर्स डे

स्मृति- भाग 1
मदर्स डे स्पेशल

मदर्स डे का दिन था और मैं इसबार गांव अपने घर पर ईजा के साथ था। ज्ञात नहीं था कि आज मदर्स डे है ना ही कभी मनाया। शहर में होता तो सायद सुबह ही फेसबुक या व्हाट्सअप में मैसेज से पता लग जाता। परन्तु गांव अपने घर पहुँच जाने पर मुझे यह ज्ञात नहीं रहता कि मेरे दोनों मोबाईल कौन से जाव् भतेर हैं। फोन भी मेरे दोनों हमेशा साइलेंट मुड़ पर ही रहते हैं मेरी तरह। बशर्ते काम हम दोनों ही अपना बख़ूबी पूरा निभाते हैं।

मदर्स डे की पहले रात्रि में बात करते करते दस ग्यारह बजे गए थे, रिस्तेदारी में शादी थी तो अपना भी पूरा परिवार जमा हुवा था दुःख सुख लगातेहुए समय का पता ही न चला। देर से सोये थे इसलिए देर से उठना स्वाभाविक था। ईजा कितनी भी देरी से सोये, सुबह तीन साढ़े तीन बजे तक उठ ही जाती है। पांच बजे तक ईजा अपना सारा काम निपटा डालती है। नहाने धोने से लेकर, पूजा पाठ व् गाय को धुलाने तक। हमारे लिए पांच बजने का मतलब हुवा आधी रात। परन्तु पांच बजे से ही गांव में चिंड़ियों की चह-चहाट शुरू हो जाती है। ईजा गरमा गरम चाय ले आयी। पर अपनी नींद कहाँ खुलने वाली थी। सुबह की मीठी मीठी नींद में ही ईजा से कह दिया। "टेबल में रख दे अभी चाय गर्म है।" ईजा चाय रखकर अपना नित्य की तरह काम करने लगी। आधे घंटे के बाद ईजा आयी देखा चाय जैसी की तैसी है और वह भी ठंडी हो चुकी है। अब क्या था ईजा का पारा सातवे आसमान पर। "उठ र् च्यापणा, गौल जस पसरिये छै, मैंस कां बटि कति पहुँच गयीं। सात बज गयी, त च्यापण डोट्याव जै सित्ये छ।"

ईजा के सात बजे कहते ही घडी की ओर देखा तो साढ़े पांच ही बजे थे। ईजा को यह तो मालूम ही था कि ये सात बजे से पहले कहाँ उठने वाले हैं इसलिए झूठ-मूठ का कह देती ताकि सात बजे कहते ही चडम्म से उठ बैठेंगे और हुवा भी वही। गिलास में रख़ी ठंडी चाय एक सांस में गटक गया। फिर टाइम की ओर देखा, सात बजने में डेढ़ घंटा अभी बाकी था। सुबह ठंड सी महसूस हो रही थी सो मैंने कमब्बल लिया और मुँह ढक कर फिर सो गया।

सुबह की रुन-झुन नींद आ ही रही थी। की फिर ईजा की आवाज सुनाई पड़ी। तू उठछे नि उठने, भ्यार घाम एगो, आई तले च्यापण सित्ये छ्। नाणक् लिजी पाणि गरम धर रछि, पाणि लै ठण्ड हैगो। तू उठछे नि उठने। कहते हुए ईजा ने कम्ब्ल खिंच कर अन्दर तय कर के रख दिया।

ठण्ड से अब नींद कहाँ आने वाली भला। सो उठ गया और नहा धो के ईजा ने मंदिरों में धुप बत्ती करने को कहा। ठीक वैसे ही किया जैसे ईजा ने बताया था। मंदिरों से आने के बाद  ईजा ने मडुवे की रोटी और मूली के पत्तों की हरी सब्जी बनाकर रखी थी। चार रोटी दनकाने के बाद गांव में सभी से मिलने झूलने चल दिया।

दिन में नदी में नहाने व् शाम को सोमनाथ मेले का अंतिम दिवस में हांजरी लगवाने चल दिया। घूम फिरकर देर से घर पहुँचता हूँ सोचा जरा फेसबुक और व्हाट्सअप देख लिया जाय। थोड़ी देर के लिए नेट ओपन किया तो मालूम हुवा कि आज मदर्स डे है। तब तक ईजा रोटी सब्जी बना लाई। मैंने ईजा से कहा - ईजा हैप्पी मदर्स डे । ईजा का जवाब आया- के दे ? जे कुंणनल्है। आज गडेरी साग बणे राखी। खाछे खा नतर चुप्प हड़ी जा।
मैंने कहा ईजा आज मातृ दिवस है।
ईजा थाली में खाना परोसते हुए कहा - च्यला हमर दिवस बने बेर की करछा, तुम बची चैंछा। तुम खूब दुब जस फई जाया। हमूल आपण दिन जसी तसी काटि हैली। बची खुची लै तसिकै कटि जैंल। कतिकेँ त्यर खुट लै अल्झाई  जान, भली जै ब्वारी मिली जान तो गंग नहायी जांछि। लै द्वी र्वाट और आजि खै ले। नि खै-खैबेर कमजोर है गेछे। शहर में तुम ऐकले हया। ब्याव हैं कोई थक पटे बेर पाणि दींणि, पूछणि लै नि होय। अज़्याल घर ऐरछा, आपणि कसेरी पूरी करि जाओ। इज़ा एक कटोरी में गाय के दूध की मलाई और ले आइ।

ईजा तो ईजा ही है। अपना न खाकर के हमारे लिए बचा बचा कर रखा हुवा था। कि शहर से मेरे बच्चे आएँगे और खाएँगे। शहर में तो सब मिलावटी सामान मिलने वाला हुवा। माँ की ममता जो हुई। वह सारी कठनाई से खुद ही लड़ जाती है भले ही बच्चे कितने भी सयाने हो जाए परन्तु माँ के लिए वे हमेशा ही बच्चे ही हैं।
भास्कर जोशी

लोगों का क्या

लिखना कुछ और चाहता था मगर लिखा कुछ और ही गया-

लोगों का क्या
उनका काम है कहना
इधर की उधर करना
और उधर की इधर करना।
कहीं मलाई लगाना
कहीं कानों में फुस्काना
चमचागिरी करना
लोगों का क्या
उनका काम है कहना ।
सीधे सादे लोग
अब तुम्हारी यहाँ कोई जगह नहीं
तुम पैदा ही गलत वक्त पर हुए हो
मांग भले ही आज भी तुम्हारी कहीं हो रही हो
मगर गेहूं में घुन की तरह
 तुम जरूर पिस जाओगे
लोगों का क्या
उनका काम है कहना।
एकदम पाक साफ हैं वे लोग
जिनके हाथ रंगे हो रंग से
वे न जाने कितने मुखौटे लिए हुए हैं
फिर भी बेदाग़  सर उठाकर शान से जी रहे हैं
लोगों का क्या
उनका काम है कहना।
सीधे लोग अपना अस्तित्व कैसे बचाएं
कैसे जिए वे इस धूर्त परिपेक्ष में
धीरे धीरे लुप्त हो रही यह प्रजाति भी अब
अगर कहीं संग्रहालय मिले
तो कुछ नमूने के तौर पर रख लेना
ताकि कल यह कह सकेंगे
कि सीधे सादे लोग ऐसे होते थे
लोगों का क्या
उनका काम है कहना ।
भास्कर जोशी

कॉपी पेस्ट की लत

💀😴इसे जरूर पढ़ें आपके लिए जरुरी है 👹🤡

फेसबुक और व्हाट्सअप से कंटेंट चुराने की आपकी आदत इतनी ख़राब हो चुकी है कि बिना तथ्य जाने आप शेअर कर देते हैं। कमसे कम अपने जानने वालों से यह तो पूछ लीजिये कि जिस कंटेंट को आप इधर से उधर सप्लाय कर रहे हैं उसकी सचाई कितनी है क्या ऐसा हुवा भी है या नहीं। काम से कम इतनी समझ तो आपमें होनी चाहिए।

दुनियां को बताते हो कि हम इतने एजुकेटेड हैं । आप क्या ख़ाक एजुकेटेड हैं जो आपको इतनी समझ नहीं कि आप क्या भेज रहे हैं क्या नहीं। आपकी कॉपी पेस्ट करने की लत इतनी बुरी हो गयी । कि आपको इतनी भी समझ नहीं आप कहाँ कौन सी सामग्री भेज रहे हैं।

कई मित्रों को यह बात जरूर खल रही होगी। खलनी भी चाहिए। आपके हाथों में मोबाईल है इंटरनेट की सुविधा है तो क्या आप कुछ भी कचरा फैला देंगे। सही मायने में उसका सदुपयोग कीजिये। अपने नेट बाउचर का सही स्तेमाल कीजिये। अपनी उँगलियों को सार्थकता की ओर मोड़िये। अपने दिमागी उपज का सही प्रयोग कीजिये। कबतक कॉपी पेस्ट करते रहोगे।

मुझे आज यह बात कहने की जरूरत इसलिए पड़ी कि मेरे पास 60 से अधिक व्हाट्सअप ग्रुप हैं सायद शुरुवात में वे किसी उद्देश्य से बने हौंगे। पर अब उन ग्रुपों में कुछ और ही कट पेस्ट हो रहा है।  क्या यह आपकी नजरों में ठीक हो रहा है ????
भास्कर जोशी

दो जून की रोटी

दो जून की रोटी की बधाई आप सभी को।

अब आगे आने वाले समय में दो जून को विश्व रोटी दिवश मनाने की प्रक्रिया शुरू हो जायेगी। फेसबुक द्वारा यह पहल तो शुरू हो ही गयी गई। जल्द ही विश्व पटल पर भी रख दिया जाएगा। अगर ऐसा होता है तो भारतीय रोटी की ख्याति भी बढ़ेगी। और भारत की रोटी जो हम बर्बाद कर देते हैं उसे फिर बर्बाद न होने देंगे ।

"दो जून की रोटी" यह कहावत हमारे बुजुर्गों ने बहुत ही सोच समझकर बनाया होगा। इसका सही अर्थ है - दो वक्त का खाना । पर कहावत बनाने वाले ने दो जून का ही जिक्र क्यों किया होगा। क्या उन्होंने भविष्य में झाँका होगा कि आने वाले समय में जब फेसबुक आएगा तो तब यह दो वक्त के बदले दो जून की रोटी फेसबुक स्टेट्स बनाएंगे। गीत लिखे जाएंगे, कवितायें, व्यंग भी दो जून की रोटी कहावत को दो जून को मनाया जायेगा।

Tuesday, April 25, 2017

जागो मोदी साहब

कहीं पत्थर बाज
कहीं नक्सल वाद
खोखला कर रहे राष्ट्रवाद
अब तो जागो, मोदी साहब।

बहुत हो गयी जुमला वादी
बहुत हो गयी डीगें हाँकी
शहीद हो रहे माँ भारती के लाल
अब तो जागो, मोदी साहब।

कहा था तुमने, आँखों में आँखें डाल के
गोली का जवाब हम गोली से देंगे
सीना ताने बब्बर शेर सा दहाड़ेंगे
क्या हुवा उन वादों का
अब तो जागो मोदी साहब।
भास्कर जोशी।

Saturday, April 22, 2017

व्यंग : भिकुदा से चर्चा

भीकुदा से इसबार फ़ोन पर इंटरव्यू

हेलो! भिकुदा कहाँ हो ? बहुत दिनों से आप कहीं दिखाई नहीं दे रहे, आखिर क्या बात है ?

क्या बताऊँ भुला!  रामराज्य जो आ गया है !  जबसे यह रामराज्य आया है तबसे हमारे दिन फिर गये।  कुछ भी बोलने की स्थिति में नही हूँ। ना ही कुछ लिखने की स्थिति में। भला कुछ लिखना भी हो तो किसपर लिखें ? चारों ओर मिठास ही मिठास है । सब खुश हैं सिर्फ मुझे छोड़कर । हमें लिखने और बोलने के लिए भी तो  मशाला चाहिए ना? चारों ओर जिधर भी नज़ारे घुमाओ अच्छे दिन  ही दिखाई पड़ते हैं। अब न कहीं रेप हो रहे हैं, न कहीं अत्याचार हो रहा है, न कहीं भ्रष्टाचार हो रहा है, न कहीं उत्पीड़न का मामला आ रहा है, सभी जगह अच्छा ही अच्छा हो रहा है।

भिकुदा में आपकी बात सही से समझ नही पा रहा हूँ। यह आपका आक्रोश है या आने वाले भविष्य की तरफ इशारा कर रहे हो ?

भुला मैं कोई भुत, भविष्य, वर्तमान का ठेकेदार तो हूँ नहीं। हाँ वर्तमान  में जरूर जीता हूँ और उसी को ध्यान में रखकर यह जरूर कहना चाहता हूँ कि आपके अच्छे दिन आ गए हैं । अब कहीं शोरशराबा नहीं होगा। लाउडस्पीकर भी अब बंद हो गए। अब आप चैन से सो सकते हैं, रात को पूरी नींद ले सकते हैं अब कोई भी आपको जल्दी नहीं उठाएगा। आप चाहें तो जिंदगी भर पूरी नींद ले सकते हैं। राम राज्य में किसी को कोई परेशानी नहीं होती थी। अब वही रामराज्य आ गया है। सारी बंदर सेना उत्पात मचाते हुए राम राज्य की स्थापित कर रही है।

भिकुदा आज आपके सुर बदले बदले से नजर आ रहे हैं आखिर क्या कारण है ?

कोई कारण वारण नहीं है भुला। दुःख बस सिर्फ इस बात का रहेगा। कि अब हम किस पर तंज नहीं कस पाएंगे।  जब सबकुछ अच्छा हो गया है तब ऐसे में हम जैसे लोग, टुटा फूटा रोष प्रकट करते थे वह अब हम नहीं कर पाएंगे। क्योंकि अब खुशहाली ही खुशहाली है। ऐसे में हम किस पर तंज लिखें और कहाँ रोष प्रकट करें । जब लिखने और बोलने को कुछ रहा ही नहीं तो भला हमारा क्या होगा ?
..टूँ टूँ टूँ ................फोन कट।

पभजो। 

Thursday, April 20, 2017

कविता

गाँव से कोशों दूर रहकर
गुमशुम पड़ा रहता हूँ घर की याद में
अकेला होना भी अखटाता है
सभी काम ख़ुद ही करने होते हैं
ठेकुली दगड में होती
तो कितना अच्छा होता
वह  खाना पका देती
तो मैं बर्तन धो देता
वह झाड़ू लगा देती
तो मैं पोछा लगा देता
वह कपड़े भीगो देती
तो मैं उन्हें धो देता
काम आधा आधा बँट जाता
शादी के बाद काम सिखना ना पड़े
इसलिए आदत अभी से डाल रहा हूँ
यों समझिए अभी ट्रेनिंग चल रही है
फ़ाइनल तो शादी के बाद हर दिन होगा।
भास्कर जोशी

व्यंग : पत्थर मार प्रोडेक्ट



टीवी के विज्ञपनों में आपने कुछ इस तरह के विज्ञपन भी देखे हौंगे- आज ही घर ले आएं। अपने किस्मत को आजमाएं, यह आपके भाग्य  को चमका देगी, यह प्रोडेक्ट घर लाने के बाद आप कुछ ही दिनों में मालामाल हो जायेंगे। आज ही खरीदें यह प्रोडेक्ट अभी कॉल करे फ़लाणे नम्बर पर। इसी तर्ज पर काश्मीर घाटी में पत्थर प्रोडेक्ट चल रहा है। और वह कुछ इस तरह चल रहा है -

आज ही मारें पत्थर,  नौकरी सीधे आपके घर पहुंचेगी। सारी जिंदगी घर बैठे बैठे कमाएंगे लाखों-करोड़ों। पहले मैं भारतीय आर्मी के खिलाफ रोड पर उतरता था तब मुझे सिर्फ पांच सौ रूपये मिलते थे। जबसे पाकिस्तान से प्रोडेक्ट पत्थर लिया और भारतीय जवानों पर पत्थर मारने लगा तबसे हर दिन दस हजार तक कमा लेता हूँ। अब मैं खुद कंपनी का मैलिक बन गया हूँ। आप भी इस प्रोडेक्ट का लाभ उठायें। और घर बैठे बैठे कमाएं पैसे। यह सब काश्मीर में एक  विज्ञपन की तरह हो रहा है।

काश्मीर घाटी में पत्थर मार बिजनेश खूब फल फूल रहा है। पत्थर मारने का शौक अब बिजनेश बन चूका है। करोड़ों रूपये निवेश किये जा रहे हैं।  कभी लोग अपनी आत्म रक्षा के लिए प्रकृतिनुमा पत्थर का प्रयोग किया करते होंगे । परन्तु रोजगार और जल्द से जल्द मालामाल होने के लिए पत्थर मारना आजकल नया दौर शुरू हुवा है। इस नए दौर में पत्थर बाजों को प्रशिक्षण देने वाला भी महान ही रहा होगा । अब जरा सोचो जब पत्थर मारने वालों को दिन के छः से सात हजार रुपये मिलते हौं। तो प्रशिक्षण देने वाले तो लाखों में खेल रहे हौंगे। जब प्रशिक्षण देने वाले लाखों में खेलते है तो प्रशिक्षण प्रदान करने वाले संस्थाऐं  कितने में खेला खेल रहे हौंगे।

 कभी रोष प्रकट करने के लिए अहिंसा वादी आंदोलन किया जाता था  या कहीं चौपाल पर एक चटाई बिछा कर धरना दिया जाता। चूँकि वक्त बदला तो परमपरायें भी बदलती गयी। एक दौर चला नेताओं पर स्याही फैकने का। तब किस कंपनी की स्याही फैकने में स्तेमाल किया गया यह देखा जाने लगा। और फिर उस कंपनी का बिजनेश चल पड़ता है वह भी बड़े जोरों से । फिर दौर चला जूते, चप्पल, सैंडलों का। जो जूता फैके उसे पार्टी टिकट देती, और जिस कंपनी का वह जूता चप्पल होता उसे विज्ञापन बनाकर पेस किया जाने लगा। यह सब बिजनेस करने के भी तौर तरीके रहे। जिसने मार खाया, कंपनी  उसे भी पैसा खिला देती और  जिसने मारा उसे भी पैसे वैसे देकर किसी प्रांत का नेता बन दिया जाता। देखते ही देखते सभी मुनाफे में।

बहरहाल अपने मुनाफे के लिए देश के साथ गद्दारी कैसे सहन कर सकते हैं।  देश की रक्षा के लिए तैनात जवानों पर ही पत्थर मारने और आजादी जैसे नारों पर यह देश कैसे इन पत्थरबाजों को माफ़ करेगा। भले ये देश विरोधी पाकिस्तानी एजेंट कितना भी फल फूल लें पर जल्द ही सेना द्वारा ये लोग जहन्नुम की सैर करते नजर आएंगे।
भास्कर जोशी
हरदौल वाणी में पूर्व प्रकाशित 

कविता

द्वन्द उठता है अंतःकरण में
भीषण ज्वाला धधक रही
लपटें आतुर है चहुँ ओर फैलने को
मिटाकर राख करने की जिद कर रही।

जब देखता हूँ इधर उधर
रक्तबीज मानो पनप रहा।
चौराहे पर बैठ पूतना
सबको विषपान करा रही।

सीमा पर से ताक रहा दुश्मन
खेल रहा अबोध पत्थर बंदूकों से
अपनी ही माँ माटी के सीने पर
कश्मीर चुभो रहा है खंजर।

मेरे माटी ने भी दिए है लाखो सपूत
माँ धरती की रक्षा के खातिर।
सीना ताने डेट है सीमा पर
दुश्मन का सीना छलनी करने को।
-भास्कर जोशी
हरदौल वाणी अख़बार में पूर्व प्रकाशित 

Wednesday, March 22, 2017

बखत ख़राब छ्

दाज्यू के झन काया
बखत ख़राब छ्
न होय कया न ना कया
दाज्यू बखत ख़राब छ्।

य द्वी दिने पराणी
जसि तसि काटि जया
त नेतु रनकार हैं
न भल बुलाया न नौक बुलाया
दाज्यू बखत ख़राब छ्

दलाल ऊनि ब्लट, मुशो लिबेर
स्यार, गध्यार भीड़ उधेड़ लिजानी
ख्वार मुण मुणे करिबेर हिटने रया
उथाणि न देखिया न के कया
दाज्यू बखत ख़राब छ्

भिकुदा कुणोछी
भुला जमान पैली जस नी रै गोय
जब गों गाड़क एक-ठो है जांछि
अब पौर वाल लै  सुख दुःख देखि बेर जलनेईं
दाज्यू बखत ख़राब छ्।
भास्कर जोशी 

Monday, March 20, 2017

"अनुपम" पर्यावरण



अनुपम भाई जी का जाना, गांधी शांति प्रतिष्ठान के साथ-साथ हम जैसे युवा साथियों के लिए भी सबसे बड़ी क्षति रही है।  उनकी चर्चित पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब, हमारा पर्यावरण, राजस्थान की रजत बूँदें व अन्य पुस्तकों की बातें हमेशा से होती रही हैं और होती रहेंगी, लेकिन अनुपम जी का पर्यावरण कितना शुद्ध रहा है यह बात सोचने और समझने की है।

हिंदी गांधी मार्ग पत्रिका में उनका पर्यावरण इसका गवाह है। उसकी साज सज्जा से लेकर उसकी भाषा तक, एकदम साफ़ व स्वच्छ। अनुपम भाई जी को एक बार मंच से पत्रकारिता के विषय में बोलते हुए सुना था। भाषा जितनी सरल व सुरुचि पूर्ण हो, पाठक उतने ही सहजता से पढ़ता है। भाषा को आज के परिवेश को देखते हुए ही, अपने क़लम द्वारा उपयोग करना चाहिए ताकि पाठक उसे समझ सके और लेखक अपनी बात सहजता से उन तक पहुंचा सके। यह तो बात थी उनकी भाषा साहित्य की। अब ज़रा अनुपम भाई के काम करने के छोटे छोटे तौर तरीक़ों पर नज़र दौड़कर देखते हैं। उनके काम करने में भी उनका पर्यावरण झलकता है।

मुझे गांधी शांति प्रतिष्ठान के परिवार में जुड़ने का अवसर 2010 के सितम्बर माह में मिला। मुझे पुस्तकालय में डाटा इंट्री का काम सौंपा गया। आए दिन अनुपम भाई जो को पुस्तकों की आवश्यकता पड़ती रहती थी। उन्हें पुस्तकें देना और उनमें से ज़रूरत के पृष्ठों की फोटोकापी करवाना मुझे ही जाना पड़ता। फोटोकापी करवाने से पहले ही अनुपम भाई जी यह ज़रूर बताते की फोटोकापी कैसे करवाकर लानी है।

एक बार उन्हें गांधी विचार का एक कोटेशन 6"X8" के पृष्ठ को ए3 साईज में चाहिए था जो उन्हें किसी को भेंट में करनी थी। हमेशा की तरह फोटोकापी के लिए उन्होंने मुझे बुलाया और कहा- मुझे इस पेज की लार्ज में फ़ोटो कापी चाहिए। और यह भी ध्यान रहे कि इसके लिए आपको अपने प्रतिष्ठान से बाहर भी न जाना पड़े। मैंने कह भाई जी अपने पास तो छोटा ही फ़ोटो कापी मशीन है इसके लिए तो कनाटप्लेस जाना पड़ेगा। क्योंकि अपने पास न ही इतना बड़ा पेज है और न ही मशीन।

अनुपम भाई जी का जवाब मिला-इसे आप पहले एक रफ़ पेज पर फ़ोटोकॉपी निकल लें फिर उसे चार हिस्सों में बाँट दे। उन हिस्सों को आप ए4 साइज जितना लार्ज और साफ़ दिखाई दे उतना करके मुझे दीजिए बाक़ी मैं देखता हूँ।जैसे जैसे अनुपम भाई जी ने कहा ठीक वैसा ही कर एक पृष्ठ का चार पृष्ठों में फोटोकापी कर लाया।

जब अनुपम भाई जी को वे चार पृष्ठ सौंपे तो उन्होंने अपने पास ही बिठा लिया,और कहा - आप बैठकर देखो इसे कैसे सुंदर और उपहार देने लायक बनाया जाता है। मैं पास के कुर्सी पर बैठे बैठे भाई जी को देख रहा था। अनुपम भाई जी ने उन पृष्ठों के सभी कोने हाथ से आड़ा तिरछा फ़ाड़ा, और फाडे गये छोटे छोटे टुकड़ों को अलग संभाल कर रख दिया। बाकि के पृष्ठों को बड़ी सावधानी से गोंद लगाकर उन्हें जोड़ दिया। जोड़ने के पश्चात् ऐसा लगता है कि वे पृष्ठ आपस में जुड़े हुए हैं ऐसा न दिखने के लिए भाई जी ने रंगीन पैन की मदद से उसमें आड़ी तिरछी डिजाइन उकेर दी । अब वह कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा था कि वे चार पृष्ठों को जोड़कर एक कर दिया हो। उस बड़े से पृष्ठ को भाई जी ने एक बड़े से गत्ते पर गोंद से, बहुत ही सुविधाजनक तरीके से चिपका दिया, और उसे एक फ्रेम का रूप दे दिया। अब वह गांधी विचार का कोटेशन उपहार स्वरूप देने के लिए एकदम तैयार था।

अनुपम भाई जी के साथ काम करने में कई छोटी छोटी और महत्वपूर्ण चीजें सीखने को मिलती रही हैं।  हमेशा वे हम जैसे युवा साथियों को कुछ न कुछ सीख देते रहे हैं। अनुपम भाई जी ने हमें बहुत सीखाया है उनकी सरलता , मृदुभाषिता और साथ ही उनके काम करने के तौर तरीके, हर वर्ग के लोगों ने उनसे कुछ न कुछ सीखा ही होगा।

भले ही आज अनुपम भाई जी हमारे बीच उपस्थित नहीं है परंतु वे सदैव ही हमारे दिलों में राज करते रहेंगे। साथ ही  उनके द्वारा किये गए कार्य जो वे हम सबके लिए छोड़ गए हैं उन कार्यों को हम सभी आगे बढ़ाते रहेंगे। अनुपम जी जैसे साधारण व्यक्तित्व के संरक्षण में हमें कार्य करने का अवसर मिला यह हमारे लिए गर्व की बात है। 
भास्कर जोशी

न्यों मुख मंतरी

टिक पीठ्या लगावों रे
न्यों मुख मंत्री ल्ये रोईं
शकुनाख़र गाओ
माँगेय गीत गाओ
शंख घंटी बजाओ
ढोल दमूवे थाप लगाओ
बामाण बुले बेर हवन करो
धूप दीप पाठ पुज करो
जसी तसि जस भल काव हूँ
उस काव पहाड़े लिजी कर ध्यालो धें
न नतर पाँच साल टिकनी भले
या ढाई साल में भाजनी भले
हमर उत्तराखंड कुर्सी पै
क़िल्मौड़ू कान लागि भै
चस्स चस्स बुड़ने रूनी
मुख मंत्री खसिकने रूनी
सात मुख मंत्री हमूल जम करि हाली
आठु मुख मंत्री तुम छा
तुम आपण देई द्वार भलिके भेंट आया
खिचेडि दिणियाँ क़ें खिचेडि दी आया
ईज़ बाब क़ें चान चीताने राया
ख़ूब दिन दुनि दैण क़रिया
झिटी घड़ी समय मिलो तो
देई द्वार भेंटने रैजाया
जनम भूमि, करम भूमि क़र्ज़ तारला
तो पाँच साल आजि मुख मंत्री बडला।
भास्कर जोशी

घंतर-19

घंतर -19

भिकुदा नमस्कार । इसबीच आप गांव गए थे होली पर क्या विशेष रहा?

नमस्कार जी।  आपने सच कहा गांव के होली बार त्यौहार का अनुभव हमेशा ही अद्भुत रहता है। अक्सर हम देखते हैं लोग संस्कृत बचाओ, भाषा बचाओ को लेकर धरना आंदोलन करते रहते हैं। और यह सब होता है शहर में रहकर। मानते हैं कभी आपको समय न मिला हो पर हर बार समय न मिले यह संभव नहीं। अपनी संस्कृति सभ्यता बचाने की जिमेदारी आप और हम पर है। यदि हम लोग ही अपने परम्परा से दूर होने लगे तो भला यह संस्कृति भी कब तक बची रहेगी। धरना आंदोलनों से तो सिर्फ आपका हिंसापन ही दीखता है। और फिर गलती करें आप फिर दोषी ठहराएं सरकार को यह कहीं से भी ठीक नहीं लगता।

सत प्रतिशत सत्य कहा आपने। दूसरी बात यह कि उसबीच आपका किसी से विवाद हुवा था क्या यह सच है ?

विवाद नहीं भाई। बस यों ही थोड़ी नोक झोक बातों ही बातों में हुई थी। जो पूर्ण रूप से तर्क पूर्ण था।

भिकुदा आपके चाहने वाले जानना चाहते हैं कि किस विषय को लेकर नोकझोक हुई थी?

मुझे दुःख तब हुवा जब एक दुकान में सामान लेते वक्त दुकानदार ने प्लास्टिक की थैली देने से इंकार करते हुए  यह दुहाई दी कि प्लास्टिक की थैली रखने पर 500 का जुर्माना है। और हमने थैली रखना बंद करदिया। एक ओर बहुत अच्छा लगा की प्लास्टिक की थैली बंद कर दी। पर प्रश्न यहाँ पर उठता है ग्राहक की सुविधा हेतु थैली ही बंद क्यों ?  जबकि सभी प्रकार के प्लास्टिक बैन होने चाहिए। तमाम कम्पनियां प्लस्टिक पैकेजिंग कर हम तक पहुंचा रही हैं। क्या वह सही है ? उन कम्पनियों पर जुर्माना या बैन क्यों नहीं किया जाता।

भास्कर जोशी

गुमशुदा

सवाल कहीं गुम हो गए
जवाब सारे गुल हो गए
कलम की धार थम सी गयी
लेखक भी सत्ताभोगी हो गए ।

कुछ कहो तो देश विरोधी
कुछ लिखो तो देश विरोधी
ताले लगा लो अपने मुंह और कलम पर
क्योकि प्रमाणपत्र बाँट रहे हैं वे लोग

अब न सवाल रहा न जवाब रहा
रह गया एक मात्र विकल्प आपके पास
झुटे मुह तारीफों के पुल बांधो उनके
वरन देश से विलुप्त होने खतरा आप पर मंडरा रहा।

भास्कर जोशी

संवाद


तुममें और मुझमे बड़ा फर्क है
तुम नेता हो मैं जनता हूँ
तुम कुर्सी हो मैं फाइलें हूँ
तुम्हारे जेबों में गुंडे पलते
और हम उन गुंडों से डरते हैं।
तुममें और मुझमे यही  बड़ा फर्क है

तुम हकाली बाते करते हो
हम सुन सुन कर पक जाते हैं
तुम रोजगार को "काम" से जोड़ते हो
हम दरबदर की ठोकरें खाते हैं।
तुममें और मुझमे यही बड़ा फर्क है

तुम हवा बाजी करतब दिखाते हो
हम दर्शक बन पैसे लुटाते हैं
तुम घोटालों से जन्मे हो
हम रोटी के लिए तरसते हैं
तुममे और मुझमे यही बड़ा फर्क है।

तुम किसानों का हक भी छीन लेते हो
हम अपने  हक  का भी ख़ुशी दे बैठते हैं
तुम गरीबों का भी खा लेते हो
हम पेड़ों पर लटके हुए मिलते हैं
तुममें और मुझमें यही बहुत बड़ा फर्क है।
भास्कर जोशी ।

Monday, March 6, 2017

एक शिक्षा एक स्वास्थ्य व्यवस्था



बल भिकुदा आजकल हमारी शिक्षा और स्वास्थ व्यवस्था एकदम निक्कमी हो गयी है।

ना भुला यह निक्कमी नहीं हुई है बल्कि हमारी सरकारी  शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्ता आई सी यु के वेंटिलेटर पर आखरी सांस गीन रही है। हालत ऐसी है कि अब दम तोडूं या तब दम तोडूं। स्कूलों व हॉस्पिटलों की जर जर हालत है। अगर किसी को भर्ती करवाएं तो न जाने वे हॉस्पिटल या स्कूल कब सर पर टूट गिरे। घर से निकले तो थे शिक्षा या इलाज करवाने पर खुद ही ऊखल में सर डाल बैठे। ऐसी स्थिति है  स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था की।

बल भिकुदा कुछ तो सुधार की करने की आवश्यकता है। अगर सुधार नहीं किया गया तो उन गरीब बच्चों को क्या होगा?

हाँ यह तो है क़ि गरीब परिवार व उनके बच्चों के लिए यह सबसे बड़ी परेशानी का कारण तो है। उन्हें न तो शिक्षा सही से मिलती है न ही इलाज । उन्हें सिर्फ चुनाओं का मुद्दा बनाया जाता है। जब तक एक शिक्षा व्यवस्था और एक स्वास्थ्य व्यवस्था लागू नहीं होती तब तक इस देश में गरीबों की हालत सुधरने वाली नहीं।

बल भिकुदा समाज चारों और बटा हुवा है ऐसे में यह एक समान व्यवस्था कैसे संभव है?

हाँ भुला यहाँ आज सभी अपनी अपनी दुकान खोलकर बैठे हुए हैं । शिक्षा में अलग अलग  धर्म के लोग दूकान खोले बैठे है तो कई  बिजनेश लेकर। एक तालीम व्यवस्था पर तो कोई बात ही नहीं करता । हिंदुओं की दूकान अलग , मुस्लिमों की दूकान अलग, सिख, ईसाई, जैन , बौद्ध आदि सब दूकान खोले बैठे हैं। अगर एक व्यवस्था की बात करते हैं सभी धर्म एक दूसरे पर या सरकार पर इल्जाम लगा देते हैं कि हमारी परंपरा को सरकार नष्ट करना चाहती है। और फिर दंगे शुरू।

जब देश आजादी की मांग कर रहा था तब महात्मा गांधी ने नई तालीम शुरू की थी। जिसका मकसद यही था कि भारत में एक शिक्षा व्यवस्था हो । जिसमें धर्म आड़े न आये। यह शिक्षा व्यवस्था किसी भी धार्मिक भावना को भड़काने की नहीं थी बल्कि सभी एक शिक्षा व्यवस्था के दायरे में आये इसलिए नई तालीम शुरू की थी। नई तालीम का  भार सौंपा गया था महादेव भाई को। कई धर्म के लोगों ने इसपर तब भी उंगुलियां उठाई थी। आज भी अगर सभी धर्म जाती के लिए एक व्यवस्था करें तो कई धर्म गुरुओं को मिर्च लग सकती है एसा सम्भव है। यदि भारत देश सच में गरीबों की उन्नति चाहता है विकास करना चाहता है तो देश में एक शिक्षा एक स्वास्थ्य पर काम करने की जरूरत है।

बल भिकुदा स्वास्थ्य व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था तो आज कॉरपोरेट का रूप ले रही है ऐसे में यह कैसा संभव है?

बिकुल मैं जब आज छोटे छोटे बच्चों को देखता हूँ तो उनका बचपन देखकर बड़ा दुःख होता है कहीं न कहीं लगता है कि उन बच्चों का बचपन अन्धकार में हैं वे किताबों के बोझ तले दबे हुए हैं। अभी कुछ दिन की ही बात है मेरे दोस्त का बेटा अभी  दो साल का है। एल केजी में एड्मिशन दिलाने ले गया था पर जब वह स्कुल में गया तो उसके हाथ पांव सरग लग गए। स्कूल की फीस और स्कुल की शर्तें देख भौंचक्का रह गया। दो साल का बच्चा क्या पढ़ेगा उसे कितनी समझ होगी। पर जब एड्मिशन की फीस 30000 (तीस हजार ) बताई तो हाथ पांव फूल ही जायेंगे । उसके बाद से स्कुल की शर्त । शर्त यह थी कि माँ पिता को टेस्ट देना होगा। ताकि जब होमवर्क दिया जाय तो माँ बाबा हल करके देंगे। अगर सब माँ बाप को ही करना है तो स्कुल में शिक्षक क्या करेंगे । उन्हें किस बात की इतनी फ़ीस।

वहीँ स्वास्थ्य की बात करें तो अभी दो हप्ते पहले हमारे साथी का पूरा परिवार दुर्घटना ग्रस्त हो गया। जिसमें काफी जानमाल का नुकसान हुवा पर जो बच गए उन्हें एक हॉस्पिटल ने बड़ा ही अच्छा खासा चुना लगा दिया। दुर्घटना ग्रस्त लोगों के हाथ पांव टूटने पर सिर्फ पट्टी बाँधी और एक आदमी का बिल बना दिया दो लाख का जबकि प्लास्टर लगवाने के लिए दूसरे हॉस्पिटल के लिए रेफर कर दिया।

 आज शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्था बिजनेश की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं ऐसे में सरकारी शिक्षा व्यवस्था और् स्वास्थ्य व्यस्था को कोई पूछ नहीं रहा है। सरकारी व्यवस्था एकदम मरणासन की स्थिति में ।  सरकार को अगर भारत की स्थिति को सुधरना है तो उसे कॉरपोरेट जगत की कमर तोड़कर एक समान व्यवस्था करनी होगी।

बिलकुल भिकुदा आपकी बातों में सचाई नजर आती है। अब देखते हैं कि जनता इसे किस नजर से देखती है।
भिकुदा की "एक शिक्षा एक स्वास्थ्य" नीति को आप किस नजर से देख है यह आप  पर छोड़ते हैं आप अपने विचार जरूर दें ।

पभजो

पढ़कर अच्छा लगे तो आगे शेअर जरूर करें ताकि गरीबों के उत्थान की दिशा में देश आगे बढ़ सके

Wednesday, March 1, 2017

होली पर भीकू दा से चर्चा


बल भिकुदा होली आने वाली है। होली पर आप क्या विशेष करने वाले हो?

दै भागि ! वो ज़माना था जब बसंत पंचमी से घुच्च् लगाना शुरू कर देते हैं । शाम को गांव घर में बैठकी  होली का संगत होता था । "बलमा घर आये कौन दिना" "बलमा मत छेड़ो बिदक जाऊंगी" और भी बहुत से पुराने गीत होली अपने बुबु- बड़बज्यु  लोग सुनाते थे बड़े रंगत और अदाकारी के साथ। वह क्या दिन थे।

पर भिकुदा अब ऐसा क्या हो गया। होली प्रथा को आज भी गांव के लोग बढ़ा ही रहे हैं।

बेसक भुला। अब गांव में बचे चंद लोग जैसे तैसे उस प्रथा को ढो रहे हैं। गांवों का हाल ऐसा हो गया है कि बड़े बूढ़े बुजुर्ग यह कहकर होली में नहीं जा रहे हैं कि यह युवाओं का त्यौहार है हम बुजुर्गों का क्या काम। वहीँ नई पीढ़ी के बच्चे व्हाट्सअप और फेसबुक में ब्यस्त हैं। वहीँ होली वहीँ दिवाली। अब बचे कुछ चंद लोग जो गांव रस्मो रिवाज को जैसे तैसे बचाये हुए हैं वे भी कब तक अपनी परम परागत होली को  बचा कर रख सकेंगे।

हाँ भिकुदा आपकी बात सच मालूम होती है। आज अधिकांस गांव के लौंडे मोडे शहर निकल चुके हैं ऐसे में अपनी परंपरा को बचाना मुश्किल है।

हाँ भुला। हमारा जमाना था। जब तल बाखली, मल बाखली, वौर् बाखली-पौरे बाखली, न-कुड़ बाखली में लौंडों-मौडों की भरमार थी। एकादशी के दिन  होई खाव में जब चीर बाँधी जाती थी , उस दिन से बच्चों के बीच  होलिका चीर पकड़ने के लिए तना तनी शुरू हो जाती। रंग गुलाल से सभी के मुख बंदर से लाल पिले बने रहते थे। इसमें न बच्चे छुटे रहते न ही बड़े बूढे। बांस की पिचकारी बनाते थे, होली शुरू होने से पहले ही। उस पिचकारी को पकड़ने के लिए दो लोग चाहिए होते थे। क्योंकि पानी भरते ही उसका भार उठाना और पिचकारी मारना मुश्किल होता था। तब एक पिचकारी को पकडे रखता तो दूसरा पिचकारी धक्का लगाता।

बिकुल भिकुदा। अब तो सब बाजार ने कब्ज़ा कर लिया है चाहे वह रंग हो या पिचकारी।

हाँ भुला, लेकिन अब वे सब छोटे छोटे बच्चों के लिए ही रह गए हैं । क्योंकि अबकी नयी  पीढ़ी, 15 से 30 वर्ष के लोग सोशल मीडिया में मस्त हैं  30 से 45 वर्ष के लोग शराब में मस्त हैं 45 से 60 वर्ष के कुछ गिने चुने  लोग होली में आते हैं वहीँ 60 से अंत तक अपने को बूढा समझकर घर के खटिया पर लेटे लेटे अपने दिनों को याद करते हैं ।
अगर हमारी युवा पीढ़ी व्हाट्सअप फेसबुक को छोड़ परम्परागत होली को देखे और सुने तो सायद अभी और कुछ वर्षों तक अपनी बैठकी और खड़ी होली बच सकती है।

भीकू दा से सवाल जबाव जारी है होली के बीच में भिकुदा से फिर बात करेंगे। लेकिन एक बात आप सबसे जरूर कहना चाहूंगा कि इसबार की होली मनाने अपने गांव जरूर जाएँ। अपनी परम्परागत विरासत को बचाने की जिम्मेदारी हम और आपकी है।तब तक के लिए आज्ञा दें। धन्यवाद

नमस्कार , जय उत्तराखंड , जय भारत
पभजो

भीकूदा से सीधी बात

बल भीकू दा इसबार किसकी सरकार बन रही है उत्तराखंड में ?

भुला सरकार मोदी जी की बने या ट्रम्प की मिलना तो हमें सिर्फ भाषण ही है। यदि भाषणों से पेट भर जाता तो हम भाषण खाते । भाषण पीते, भाषण ही भाषण होता पर यह भाषण नहीं बल्कि उत्तराखंड के भषाण हैं जो हजम न होकर अपच कर रहा है।

बल भीकू दा आप तो न चुनाव प्रचार में दिखे न ही किसी पार्टी के पक्ष में बोले,? जबकि 2014 के लोक सभा चुनाव में मोदी मोदी बोले थे ऐसा क्यों ?

देखो भुला आशा थी कि नई सरकार आएगी तो तो कुछ करेगी। जबकि उस समय की मौजूदा सरकार भ्रष्टाचार में लिप्त थी। जहाँ देखते थे या सुनते थे फलाना घोटाला ढिम कना घोटाला ही सुनने में आता था । यही कारण था कि पूरा देश बदलाव के मूड में था जिसके झोंके में हम भी लहरा गये थे। परंतु उत्तराखंड की स्थिति बड़ी नाजुक है। यहाँ के मानुषों की देख रेख में दोनों ही पार्टियां विफल रही हैं।

बल भिकुदा लोग तो बोल रहे हैं मोदी जी न किसी को खाने देंगे न ही खुद खाएंगे ?

भुला जब किसी को न खाने देना है न खाएंगे तो शौचालय बनाने की जरुरत ही क्या है। जब कुछ खाएंगे ही नहीं तो शौचालय जाने की जरुरत ही क्यों? अब उत्तराखंड का ही गणित देख लीजिए यहाँ एक शौचालय देहरादून में बना दिया दूसरा गैरसैण में बनने जा रहा है। और यह भी कहते हुए सुना है कि छः महीने देहरादून के शौचालय में जायेंगे और छः महीने गैरसैण में । आखिर यहाँ दो शौचालय बनाने की जरूरत क्यों? क्या यह उत्तराखंड की जनता को लूटकर नहीं बनाया जायेगा ?

बल भिकुदा सभी राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्र में गैरसैण को प्रमुखता दी है?

जरूर दी होगी भुला, इसमें कोई संका नहीं। क्योंकि वह दीर्घ संका है अगर वे गैरसैण को महत्व नहीं देंगे तो पेट खराब होने पर कहाँ जायेंगे? राजनीतिक पार्टियां पहले शौचालय जाने का पूरा बंदोबस्त कर लेती हैं। वे जानते हैं शौचालय जानता के मन रखने के लिए बनाया जाता है  जबकि उसका उपयो राजनीतिक पार्टियां ही करती हैं। तो भुला जब जनता का पेट खराब हो जाए तो वे कहाँ जायेंगे ? गधेरे में ही ना !

बल भीकू दा इधर उधर न जाते हुए सीधे मुद्दे पर आते हैं । 11 मार्च को उत्तराखंड का परिणाम घोषित होने वाला है आपको क्या लगता है किसकी सरकार ?

भुला सरकार कोई भी बनाये , किसी भी पार्टी की बने , सरकार जनता की हो तो बात बने। पर ऐसा कभी होता नहीं। सरकार सिर्फ नेताओं की बनती है। उधर से काना फूसि भी हो रही कि नेताओं के बीच खरीदारी शुरू हो गयी है बल। और जीतने पर करोड़ों में बोली लग रही है। अब यह बताओ कि मंत्री संत्री बनने के बाद ये भरपाई कहाँ से करेंगे ?

भिकुदा आप राजनीतिक पार्टियों से इतने खिन्न क्यों ?

खिन्न नहीं हों तो और क्या होवें, उत्तराखंड को बने हुए 17 साल हो गए, उत्तराखंड की जनता को मिला क्या- पलायन, बेरोजगारी, ऊपर से शराब के ऑटो मोबाइल सर्विष दे डाली। जहाँ महिलाओं ने लड़ झगड़ कर ठेके बंद करवाये थे वहां चलते फिरते शराब के ठेके लगा डाले। ऐसे में सरकारों से हम क्या उम्मीद रखें ?

भिकुदा से सवाल जबाब जारी है।
बने रहे भिकुदा से
धन्यवाद
नमस्कार
पभजो

Wednesday, February 22, 2017

केदारनाथ यात्रा दृश्य :आँखों देखा


जनता की कैटेगरी खतरे में

उत्तराखंड में बीजेपी सरकार में रहते हुए कभी आंदोलनकारियों को न्याय नहीं दिला सकी। और न ही राजधानी गैरसैण को राजधानी बनाने की दिशा में आगे बढे। यहाँ तक की सरकार में रहते हुए घोटालों के अम्बार लगा डाले।

कल प्रधानमंत्री जी द्वारा 1994 के उस वीभत्स कृत्य को मुद्दा बनाकर वोट के लिए उपयोग किया गया। भावनाओं के साथ किस तरह खिलवाड़ हो रहा है इसकी कल्पना भी नहीं किया जा सकता है।

वहीँ अगर कांग्रेस की बात करें तो 2013 का वह आपदा को कौन भूल सकता है। भले ही आज रावत जी बहुगुणा जी के सर पर लादकर बीजेपी के पाले में डाल ले । परन्तु यह काण्ड कांग्रेस राज में ही हुवा है।

उत्तराखण्ड की जनता के साथ जिसप्रकार से खिलवाड़ हो रहा है उसे वह पिछले 17 वर्षों से भुगत रहे हैं। अभी हाल ही मैं एक फिल्म देखीथी जो राजनीति पर आधारित थी। उसमें हीरो जनता से कहता है- नेताओं के भाषणों में ताली और हुडदंग करने के बजाय बड़ी शालीनता से भाषण सुनें सच्चाई  खुद-ब-खुद आपके सामने होगी। परन्तु नेताओं के भाषण को कौन जिम्मेदारी से सुनता है। बस दूसरे पार्टी पर आरोप लगाकर ही अपनी छवि चमकाई जा रही है। और हम आम जनता होने के नाते बस तालियां बजा रहे है। भविष्य में जनता सिर्फ तालियां ही बजाएगी या यूं कहूँ कि जनता ताली बजाने वली श्रेणी में आ जायेगी ।
माननीय जनता साहब आपकी कैटगरी खतरे में हैं ।
फेसबुक स्टेट्स पोस्ट बाय भास्कर जोशी 

राकस मेरे पहाड़ के

साहब तुमने हमारे नदी के
रिवाड़ि खसोड डाले
नदी से बजरी बेच डाली
गद्यारों के ढूंग उचेड डाले
और ये कहते हैं
हमने पहाड़ का विकास किया
साहब ये कौन सा विकास है ?-2
पहाड़ में छुरी मूसों के सुरंग बना डाले
गाड़ गद्यरों को बंधक बना डाला
ख़डिया के नाम पर
उपजाऊ स्यार उधेड़ डाले
 जिस मिट्टी को तुमने
तिलक की तरह माथे पर सजाना था
तुमने उसी मिट्टी को धन्धा बना डाला साहब -2
और तुम कहते हो
हमने पहाड़ का विकास किया?
ये कैसा विकास है साहब -2
अरे तुमसे अच्छे तो
हमारे पहाड़ के भूत भले हैं साहब
जो जागर, बैसी के बभूत से मान जाते हैं
साहब ! तुम तो वो राकसी मशाण हो
जो अपना तो चैन सुख से मरे नहीं
किंतु दूसरों की सुखियों में
अमावस बन जाते है साहब -2
साहब आप पहाड़ के लिए
वही राकसीमशाण हो
तुम ही हो !
जिसने पहाड़ का भूत भविष्य वर्तमान
अधर में लटका रखा है साहब -2
तुम वही राकसी मशाण हो साहब
वही राकसी मशाण हो !
भास्कर जोशी
9013843459

सार्थक ही उमेश पन्त है

नेकी कर दरिया में डाल का किस्सा तो बहुत सुना है पर आज समाज बहुत बदल चुका है । आज समाज का एक बहुत बड़ा तबका समाज सेवी बनने का ठप्पा लगाने के लिए कोई बड़े मंच के, बड़े नोट देकर उस संस्था से जुड़कर, नौटंकी  समाज सेवी होने दम्भ भरने लगता है। नेकी कर दरिया में डाल का किस्सा अब सिर्फ किताबों लिखा हुवा रह गया है सायद एक या दो लोग ऐसे भी होंगे जो आज भी नेकी कर दरिया में डाल में विश्वास रखते होंगे ।

मैं जब से दिल्ली में आया हूँ बहुत से सामाजिक संस्थाओं से जुड़ा और धीरे धीरे उनसे फिर दुरी भी बनाने लगा। क्योंकि वे अधिकांश संस्थाएं खाउ खुजाऊ देखि। अधिकतर संस्थाएं लोगों से समाज सेवा के नाम पर चंदा लेती है पर जमीनी कार्य एकदम जीरो होता है या कोई बढ़ी संस्था है तो वह अपना पल्ला छोटे छोटे संस्थाओं में बाँट देती है पश्चात् इसके कि सारा योगदान अपने नाम का ठप्पा लगवा देते हैं । इन सबके बीच बहुत से अनुभव प्राप्त हुए।

आज से पांच साल पहले की बात है जब सार्थक प्रयास संस्था के संयोजक उमेश पन्त दाज्यू से मिलना हुवा तब उनका दूसरा वार्षिकोत्सव होना था। धीरे धीरे उनके काम और व्यवहार से परिचित हुवा। दिनों दिन उनकी प्रसंसा सुनने को मिलती रही है ।
सार्थक प्रयास संस्था गरीब असहाय  परिवार के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की निमित्त से कार्य जो शुरू पन्त जी व् अन्य साथियों ने किया था वह सूरज की किरणों की तरह फैलता गया । शुरुवात वसुंधरा के 40 बच्चों से की थी । फिर यह संस्था आगे बढ़ती गई । चौखुटिया में 60 बच्चों की देखरेख करने लगी।आगे यह परवान चढ़ता गया तो केदारनाथ तक जा पहुंची। केदारनाथ में अभी 20 बच्चों की देख रेख सार्थक प्रयास कर रही है। इसके साथ ही हर साल के आखरी पड़वा पर जब पूरा देश 31st के नाम पर झूम रहा होता है  तब सार्थक प्रयास की पूरी टीम फुटपात पर कंम्बल बांटने निकल पड़ती है। शिलशिला यहीं तक नहीं रुकता।

आपको याद होगा 2013 का वह आपदा का मंजर । तब भी सार्थक प्रयास उन इलाकों में कई किलोमीटर कंधे पर सामान लादकर उन पीड़ितों तक जा पहुंची जहां लोग भूख प्यास से तड़प रहे थे । सार्थक प्रयास के इसी जज्बे को देखकर मेरी भी इच्छा हुई की इनके पीछे पूंछ की लटक जाऊं, लेकिन अभी पूंछ हाथ लगी नहीं परन्तु पीछे पीछे से दगड लगने की कोशिश में रहता हूँ।

पन्त जी को देखकर बड़ा ही ताज्जुब भी होता है कि एक बहु अन्तराष्ट्रीज नौकरी को छोड़ वह ऐसे असहाय बच्चों की सेवा में उतर आये। साथ ही जब भी पन्त जी से बात होती है उनसे मेरा एक ही प्रश्न होता है कि आप कर कैसे लेते हैं? और पन्त जी का एक ही जवाब होता है "अपने लिए तो सभी जीते है पर मजा तभी आता है जब दूसरों के लिए जियें "।  पन्त जी की यह बात मेरे घर कर गयी । पन्त जी के साहस, त्याग, परिश्रम की जितनी भी तारीफ करूँ सायद वह कम होगा।
भास्कर जोशी

क्या करूँ भागी

मैं सन्यास कहाँ से लूँ
ठेकुली से सन्यास
डांसी ढुंग से सन्यास
भीकू दा से सन्यास
फेसबुक से सन्यास
व्हाट्सअप से सन्यास
जीवन से सन्यास
नहीं नहीं सन्यास कैंसिल
अब मुझे सब चाहिए
समय लगेगा जरूर
समय के साथ चलने में
पर चाहिए मुझे सब कुछ
नेक काम में मेरी मदद करोगे ना
करोगे जरूर करोगे
चलो ठेकुली से शुरू करते हैं
आप मेरे लिए ठेकुली ढूंढो
मैं आपके लिए
डांसी डुंग तैयार रखता हूँ
भिकुदा से बात करके
फेसबुक पर स्टेटस डालता हूँ
बाकी बातें
व्हाट्सअप पर होती रहेगी। :p
भास्कर जोशी।

दाप पार्टी

ना हाथ चलेगा
न कमल खिलेगा
इसबार उत्तराखंड
भांगुल फुलेग।
बहुत हुवा अब हाहाकार
उत्तराखंड में बनेगी दाप सरकार
न हरदा न न मो
इसबार पभजो की सरकार ।
हर हाथ को मिलेगा काम
अत्तर घिसेगा हर आम
घर घर में भांगुल उगाएंगे
उत्तराखंड को काले सोने की चिड़िया कहलायेंगे।
पिलाकर चिलम गधेरे में धूणी रामायेंगे
बेरोजगारी पलायन को रोकेंगे
होगा हर उत्तराखंड वासियों का सपना साकार
इसबार उत्तराखंड में दाप सरकार
न चलेगा किसी और का झाड़ू
चलेगा सिर्फ पभजो का जादू।
न अफसर साही न ताना साही
इसबार सिर्फ टुल्ल रहने की सरकार।

दाप पार्टी को वोट देकर
भांगुल के डाव पर बटन दबाएं
पभजो को विजयी बनायें
😀😀😀😀😀😀😀💐💐💐💐💐💐💐

Tuesday, January 10, 2017

हाय पेंस

हरदौल वाणी अखबार में प्रकाशित मेरी कुमाउनी रचना को स्थान देने के लिया संपादकीय आदरणीय देवी प्रसाद गुप्ता जी (श्री जी), भाई ललित मोहन राठौर जी का बहुत आभार ।

हाय पैंसा

त मोदी ज्यूल कस बम फोड़
मेंस हाय पेंस हाय पेंस कुने रै गयीं

नेतानु ग्व में फाँस जस लटिक गो
उद्योग पतियों ब्लेड प्रेसर हाय हैगो

काव् पेंस पर मोदी काव जस  लाग गो
ठेकेदारों दलाली पर लै च्यांव जस लागि गो।

इथां  पैंस ले अब काव् बटि सफ़ेद है गईं
उथां सफ़ेद मेंसूं मुखड़ काव् है गईं।

त मोदी ज्यू तुमुल तस कस बम फोड़
पैंस हैबेर लै जेब खुंण खुंण है गईं

त मोदी ज्यूल कस बम फोड़
मेंस हाय पेंस हाय पेंस कुने रै गयीं
भास्कर जोशी
9013843459

पहाड़ी चील्हाड बनाने की विधि

पहाड़ी छोउ बनाने की विधि

पागल पहाड़ी के साथ जाने छोऊ बनाने की विधि ।
सबसे पहले बाज़ार जाकर किराने वाले से बेसन ख़रीद लें क्योंकि बेशन नहीं तो छोऊ नहीं बन पाएगा।
 सामग्री : बेसन परिवार अनुसार, तेल तलने लायक, एक पाव प्यांज, एक डाढ़ू, एक पाणियाँ, एक तवा, एक ड़ेग, नमक, मिर्च हल्दी आदि ।

महत्वपूर्ण बात : चूले के गेन्स या आग पर विशेष ध्यान रखें इसके बिना पकना असम्भव है गैंस बराबर चैक कर लें आधे में हाथ रुकने का मतलब है छोऊ में खलल उत्पन्न होना। साथ ही साफ़ सफ़ाई का ध्यान रखें कहीं संगव छोउ में ना छोई जाये वरना करारापन आने की पूरी सम्भावना होगी।इसलिए पहले सबकुछ चैक कर लें।

बनाने की विधि : परिवार अनुसार बेसन लें उसे एक डेग़ में उड़ेल दें वैसे चार लोगों के लिए एक पाव से हो जाएगा। अब 4-5 गाँठ प्याज़ लें उसका छिलका उतार लें। एसे ही मत काट लेना छिलने के बाद उसे बारीक काट लें।काटने के बाद उसे बेसन के साथ ड़ेग में उड़ेल दें। अब मिर्च को बारीक काटें और काटने के बाद उसे भी बेसनऔर प्याँजके साथ उड़ेल दें। इतना सबकुछ कर लेने के बाद उसमें पानी मिला लें । पानी की मात्रा भी उतनी ही हो जितना खप जाए याने जैसा आप पकोड़ी बनाते हैं उसी अनुसार बस आधा कप पानी की मात्रा और बढ़ा दें स्वादानुसार नमक मिर्च हल्दी उड़ेलदें फिर उसे अच्छे से डाडू से घोल लें।

अब आप चुल को जलाएँ और चूले में तवा रख दें। तवा गरम होने पर एक चम्मच तेल उड़ेल दें। अब डाड़ु से एक घपैक बेसन के उस घोल को लें और तवे में उड़ेल कर उसे तेज़ हाथ से गोल रोटी की तरह फैला लें। गेन्स अथवा चुले की आँच कम कर थोड़ी देर पकने दें साथ ही पणियाँ से हल्के हाथ उसे पलटाने की कोशिश करें। अगर सही समय पर उसे पलटाया नहीं गया तो वह छोउ तवे पर ही भड़ि जायेगा। समय रहते उसे पलटने के बाद फिर उसे हल्की आँच में पकने दें। जब पक जाए तो उसे अलग उतार कर खाने के लिए परोसें।

भांग की चटनी बनाकर इसके साथ खाएँ तो स्वाद में दोगुना इज़ाफ़ा होगा। अन्य किसी और चटनी का भी प्रयोग कर सकते हैं।

नोट:- छोउ दिखने व खाने में स्वादिष्ट हो तो मेरे लिए भोग पहले ही रख लें। वरना छिरो लगने के पूरे आसार रहेंगे।
भास्कर जोशी

काला धन

पैसा को लपक सको तो लपक लो , क्योंकि आजकल नदी नालों में लक्ष्मी बह रही है।  छप्पर फाड़ के तो नहीं पर हाँ नहर, नदी फाड़ के पैसे जरूर बहे हैं। आये दिन ऐसी खबरें सुनने व् अख़बारों में  पढ़ने को मिल ही जाती  हैं। जिन लोगों ने काले धन के रूप में अपनी तिजोरियां भरी थीं अब वे अपनी तिजोरियों को पानी में बहा रहे हैं। मोदी जी द्वारा नोटबंदी का यह मुहीम इस नजर से देखें तो बहुत ख़ुशी होती है कि जो लोग काले धन पर कुंडली मरे बैठे हुए थे अब उनका काला धन इस रूप में भी बहार निकल कर आ रहा है।

अब जरा शहर से दूर गांवों का रुख करते हैं। पैसा आज के समय में जरूरत का साधन है सुईं से लेकर संबल तक। या यों कहें हर जरुरत का साधन रुपया है। बस जरुरत है एक बार गांव और शहर के बीच का अंतर समझने की ! क्योंकि ग्रामीण इलाकों में शहर जैसी सुविधाएं नहीं हैं विशेतः बैंकिग सुविधा।

नोटबंदी को शुरू किये 1 माह बीत चुका है, उसके बाद भी शहरों के लोग सुबह सुबह बैंक के आगे लाइन पर खड़े नजर आते हैं यदि कहीं पर खबर मिलती है कि फलाने ATM में पैसे हैं तो बड़ी लंबी कतार देखने को मिलती है। वह भी पलभर में, और तो और वह पैसा भी मुश्किल से उस लाइन में लगे आधे लोग के नशीब ही हाथ आता है। बाकी के लोग फिर कोई और ATM की तलाश में जुट जाते हैं। कहने का सीधा सा मतलब है एक माह बीत जाने के बाद भी लोगों की परेशानी अभी तक हल नहीं हुई हैं और यह सब उन शहरों में हो रहा है जो महानगरों के नाम से ख्याति प्रपात हैं। जहाँ हर चीज की सुविधा है फिर भी लोग सुविधा से वंचित हैं।

आइये अब जरा रुख करें गांव की ओर। गांव में रहने वाले लोग बैंक की सुविधाओं से आज भी वंचित हैं। अगर उन्हें अपनी जमा पूंजी कहीं जमा करनी भी होती है तो वे पोस्ट ऑफिस में जमा करते हैं वह भी 10 या 15 मिल की दुरी पर होते हैं । बैंक  उनकी पहुँच से बहुत दूर हैं यदि उन्हें अपनी वृद्धा पेंशन जैसी सुविधाएं भी लेनी होती हैं तब वे 6 महीने या साल भर बाद इक्कट्ठे ही निकालने जाते हैं और इस बीच उनका पूरा 2 या 3 दिन का समय लगता है।

इधर  ग्रामीण इलाकों के बैंकों  में अभी भी कैश उपलब्ध नहीं हो सका है थोड़ा बहुत जो उन बैंकों के पास था वह उनके अपने अधिकारियों के लिए भी पूरा नहीं हुवा। अब ऐसे में उन दूर सदूर ग्रामीणों की परेशानी भला कौन समझे?

आज भले ही भारत को युवा देश के रूप में दुनियां देख रहा हो पर आज भी भारत इतना सक्षम नहीं है कि हर व्यक्ति मोबाइल बैंकिंग का प्रयोग कर सके। अमूमन बीस करोड़ की आबादी आज भी बैंकों की सुविधाओं  से दूर है मोबाईल जैसी सुविधाओं का लाभ लेने में भी सक्षम नहीं हाँ। यह आंकड़ा अंदाजन है अगर सर्वे किया जाय तो यह आंकड़ा निश्चित ही बढ़ेगा। किंतु प्रधानमंत्री जी हमेशा गांव, गरीब और किसान की बात करते हैं। जब शहर में रहने वाले लोग परेशानी मेंहों, भले ही जनता इतनी दिक्कतों को झेलने के बाद भी  देश बदल रहा है को ध्यान में रखकर अपने को सांत्वना दे रहे हों, परंतु एक बार ग्रामीण बस्तियों का रुख जरूर करके देखें। उनके लिए किसी भी प्रकार से कोई सुख सुविधा नहीं। ऐसे में नोटबंदी का असर कितना पड़ा है यह आप और हम अन्दाज नहीं लगा सकते हैं।

 प्रधानमंत्री जी द्वारा लिया गया यह फैसला कारगर होगा , ऐसा मेरा मानना है साथ ही ऐसे फैसले देश हित में ही लिए जाते हैं जो स्वागत योग्य है। लेकिन उन गरीब ग्रमीणों की आवाज कब सुनी जायेगा या कब उन्हें रियायत मिलेगी, इसका उन दूर सदुर ग्रामीणों को प्रधानमंत्री मोदी जी का इन्तजार रहेगा।
भास्कर जोशी
9013843459

स्वच्छ भारत मिशन पर दो टूक



लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी जी का वह भाषण तो आप सभी को याद होगा ही। भाषण में उन्होंने कहा था -भारत की गरीब जनता उस गंदगी से बीमार होती है जो आपके घर गली में बिखर रहता है। उस गंदगी से यदि एक व्यक्ति भी बीमार पड़ता है तो एक व्यक्ति बीमार नहीं होता बल्कि उसके साथ उसका पूरा परिवार उस बीमारी की चपेट में आ जाता है। आने वाले 2017 में महात्मा गांधी की 150 जयंती पर भारत को स्वच्छ बनाने का जो आह्वाहन किया था उस आह्वान पर पूरा देश प्रधानमंत्री जी के साथ खड़ा नजर आया, साथ ही वे स्वयं भी बाल्मीकि बस्ती में जाकर झाड़ू फेरते हुए नजर आये।

लाल क़िले के आह्वाहन के बाद भारत की अधिकांश आबादी प्रधानमंत्री जी के उस आह्वाहन से जुटने लगी । एक के बाद एक-एक कर बड़ी हस्तियां जुड़ते नजर आये। यहाँ तक की उन्हें ब्रांडएम्बेस्टर तक बना लिया गया। फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी बड़ी हस्तियां इस अभियान से जुड़ने पर अपने आपको खुशकिस्मत समझ रहे थे। बीजेपी के कार्यकर्त्ता तो दो कदम और आगे बढ़कर आये। वे लोग पहले खुद ही घास पत्ते फैलाते दिखे और फिर उसपर झाड़ू फेरते नजर आये।

यह शिलशिला यही तक नहीं थमा। भारत की कई सामाजिक संस्थाएं जो प्रधानमंत्री के उस स्वच्छ भारत अभियान से प्रेरित होकर गली गली मुहल्ले में जाकर गंदगी को दूर करने में मदद करने लगी। कई युवा साथी अपने मंडली को इकट्ठा कर साफ़ सफ़ाई करने के लिए आगे आए। वह भी इस विश्वास के साथ की भारत स्वच्छता की ओर बढ़ रहा है। आज भी वे लोग इसी जोश से कार्य कर रहे हैं कि कभी तो लोग बदलेंगे, कभी न कभी देश स्वच्छ होगा।

इतना सब कुछ कहे जाने व् सामाजिक संस्थाओं, छोटे छोटे संगठनों के कार्य करने के बाद भी गंदगी ज्यों की त्यों है। पहले दिन समाजिक संस्थाएं व संगठन सफाई करती  हैं तो दूसरे दिन फिर वहीँ गंदगी नजर आती है। इतने लोग आम जनता को सुधारने में लगी हैं फिर भी जनता सुधरती नहीं दिखी। आखिर क्यों ? इस सवाल का जवाब हम सभी को अपने अंदर ढूँढना चाहिए कि हम सुधर क्यों नहीं रहे ?

 हम हमेशा आम जनता की बात कहते पर असल में आम जनता हम ही हैं यह हम भूल जाते हैं। गंदगी साफ करने वाले सामाजिक संस्थाओं की परेशानी का कारण सिर्फ जनता ही नहीं है बल्कि, नगर पालिका व् केंद्र सरकार भी उनकी सबसे बड़ी परेशानी बनी हुई है। क्योंकि कई बार यह भी सुनते हुए पाया गया है कि नगर पालिका के आला अधिकारी उन्हें धमकाते हैं और उनके काम में दख़ल ने देने की सलाह दे डालते हैं। यही शिकायत लेकर जब वे विश्वाश के साथ राजनीतिक पार्टी दफ़्तर में जाते हैं तब पार्टी के लोग उन्हें अपने झंडे तले ही मदद करने की बात कहते हैं साथ इसके कि बिना उनकी पार्टी झंडा लिए वे उनकी सरकारी मदद नहीं करेंगे। ये तो वही वाली बात हो गयी 'रसगुल्ला बनाए कोई और खाए कोई और।

सन्यास ले लूँ कि

मैं सन्यास कहाँ से लूँ
ठेकुली से सन्यास
डांसी ढुंग से सन्यास
भीकू दा से सन्यास
फेसबुक से सन्यास
व्हाट्सअप से सन्यास
जीवन से सन्यास
नहीं नहीं सन्यास कैंसिल
अब मुझे सब चाहिए
समय लगेगा जरूर
समय के साथ चलने में
पर चाहिए मुझे सब कुछ
नेक काम में मेरी मदद करोगे ना
करोगे जरूर करोगे
चलो ठेकुली से शुरू करते हैं
आप मेरे लिए ठेकुली ढूंढो
मैं आपके लिए
डांसी डुंग तैयार रखता हूँ
भिकुदा से बात करके
फेसबुक पर स्टेटस डालता हूँ
बाकी बातें
व्हाट्सअप पर होती रहेगी। :p
भास्कर जोशी।

गेवाड़ घाटी