Wednesday, July 5, 2017

कविता : जगरियक आशीर्वाद



भम-पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन
शहरी स्वकारो तसिके पहाड़ ऊने राया
तुम तसिके भूत छौ पूजने राया
भम-पा पक़म,भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन

बाट घवेंटु ख़ूब छौ छितर लगै लिजाया
साल भरक छौ छितर महेण में पूजने राया
मशाण भूत प्रेत लगौने राया
तुम तसिके पहाड़ में पूजने रै जाया
भम पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन

पहाड़ एबेर अड़ोसी पड़ोसी कुँ गाई ढाई दिजाया
भकार भरि बेर हंक लगै लिजाया
हंक धुण में ख़ूब बकार काटि जाया
तुम तसिके पहाड़ में पूजने रै जाया
भम-पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन

तुमर छौ छितर में मुर्ग़ी फ़ारम फ़ई जो
तुमर हंक धुण में बकारक मालिक मालामाल है जो
शराबी कबाबी पी खै बेर बारोमास घूरी पड़िए रैजो
तुम तसिके पहाड़ में बार बार पूजने रैजाया
भम-पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन

मगें रोज तसिकै बलौने रैया
तसिकै हुडुकी थाई बजुनें रूँ
खै पी बेर म्यर रोज़गार दुब जस फई जो
तुम तसिकै पहाड़ पूजने, भेटने राया।
राज़ी राया ख़ुशी राया स्वकारा।
भम-पा पक़म, भम-पा पक़म
टन टना टन, टन टना टन
भास्कर जोशी

Monday, July 3, 2017

कविता

लिखना कुछ और चाहता था मगर लिखा कुछ और ही गया-

लोगों का क्या
उनका काम है कहना
इधर की उधर करना
और उधर की इधर करना।
कहीं मलाई लगाना
कहीं कानों में फुस्काना
चमचागिरी करना
लोगों का क्या
उनका काम है कहना ।
सीधे सादे लोग
अब तुम्हारी यहाँ कोई जगह नहीं
तुम पैदा ही गलत वक्त पर हुए हो
मांग भले ही आज भी तुम्हारी कहीं हो रही हो
मगर गेहूं में घुन की तरह
 तुम जरूर पिस जाओगे
लोगों का क्या
उनका काम है कहना।
एकदम पाक साफ हैं वे लोग
जिनके हाथ रंगे हो रंग से
वे न जाने कितने मुखौटे लिए हुए हैं
फिर भी बेदाग़  सर उठाकर शान से जी रहे हैं
लोगों का क्या
उनका काम है कहना।
सीधे लोग अपना अस्तित्व कैसे बचाएं
कैसे जिए वे इस धूर्त परिपेक्ष में
धीरे धीरे लुप्त हो रही यह प्रजाति भी अब
अगर कहीं संग्रहालय मिले
तो कुछ नमूने के तौर पर रख लेना
ताकि कल यह कह सकेंगे
कि सीधे सादे लोग ऐसे होते थे
लोगों का क्या
उनका काम है कहना ।
भास्कर जोशी

शराब ले लो रे शराब


जी हां अब इसी अंदाज में उत्तराखंड के ग्रामीण इलाकों में शराब मिलेगी। शराबियों को अब मंदिर (मदिरालय) जाने की जरूरत नहीं । अब उन्हें मंदिर के बहार लंबी लंबी लाइन लगाने की जरुरत नहीं । सूत्रों के हवाले से त्रिवेन्द्र रावत जी ने कहा है कि हमने मदिरालय के कर्मचारियों को आदेश दिया है  कि अब  जनता  पास वे  अपने वाहन लेकर खुद हाजिर होंवें ।

रावत जी ने जनता को आस्वस्त करते हुए  कहा कि  आपको मंदिर में लाइन लगवाने की जरूरत नहीं। आप लोग दूर दराज गांवों से आकर लंबा इंतजार करना पड़ता है। पर अब ऐसा नहीं होगा। हम आपको परेशान नहीं होने देंगे। हम आपके दुःख दर्द को समझते हैं भला आपको परेशान होते हुए कैसे देख सकते हैं

यह तो हमारी सरकार की प्राथमिकता है कि हम घर घर तक शराब पहुंचाएंगे। इससे राज्य का ही नहीं देश का भी मान बढ़ेगा। इस से कई लोगों को रोज़गार मिलेगा। हर शहर और ग्रामीण इलाकों में ड्राइवर और शराब बेचने वालों की वैकेन्सी खुलेगी।  अभी तो हम  सिर्फ वाहन के जरिये पहुँचा रहे  है। अगर सरकार को फायदा होते हुए दिखा तो हम पोस्ट मैन की तरह आपके घर तक शराब की बोतलें  पहुंचाएंगे।

इसी कड़ी में कुछ दिनों बाद आप ऑनलाइन डिमांड भी कर सकेंगे। फिलहाल अभी वाहन द्वारा ही शराब पहुंचाने का कार्य शुरू किया है। जैसे जैसे यह ग्रोथ करेगा , वैसे वैसे सुविधाएँ बढ़ती जायेगी।  बहरहाल  पीने वाले अभी रोड में खड़े रहें। मदिरालय की गाड़ी बस अभी आती ही होगी। अगर आप समय से रोड पर उपस्थित न रहे तो आपको शराब से वंचित होना पड़ सकता है।

महिलाएं कतई परेशान न होवें। आप लोग भी बढ़ चढ़कर भाग ले सकते हैं । यह सुविधा सिर्फ पुरुषों के लिए ही नहीं महिलाओं के लिए भी लागू कर दिया गया है। हमारी सरकार की नीति स्पष्ट है सबका साथ सबका विकास। आपके द्वारा लिया गया शराब का  बोतल देश के काम आएगा। हमारे लिए देश सर्वोपरि है। आप नहीं।

भास्कर जोशी

दलित राष्ट्रपति : भीकू दा से सीधी बात



भीकू दा बहुत समय बीत गया । आपसे मुलाकात न हुई और न ही कोई इंटरव्यू। अभी आप मिले हैं तो क्या एक इंटरव्यू हो जाए ?

भाई आप तो टीआरपी के मौताज हैं और मुझ  पर लट्ठ बरसाने की फिराक में भी। आप तो मेरे कहे हुवे को छपा देंगे परंतु उसके बाद जो धमकियाँ आने लगती हैं वह मैं ही जानता हूँ आप तो साफ़ बच जाएंगे। फिर भी कोशिश करता हूँ आपके सवालों के जवाब दे सकूँ।

धन्यवाद भीकू दा! अच्छा कुछ दिनों बाद राष्ट्र पति का चुनाव होने जा रहा है कौन बनेगा नया राष्ट्रपति?

ले भाई ! कर दी ना देश द्रोह वाली बात। केंद्र में बैठी नई सरकार व् उसके संगठन के कार्यकर्त्ता ही देश भक्त हैं यदि उनके नीति और नियत पर प्रश्न किया तो आप देश द्रोही कहलायेंगे। अगर मैं यह कहूँ कि इसबार राष्ट्रपति का चुनाव नहीं हो रहा बल्कि दलित पति का चुनाव हो रहा है तो यही लोग मुझे देश द्रोही कह डालेंगे।

दलित पति का चुनाव कैसे ?  यह तो भारत के राष्ट्रपति का चुनाव है ना ?

जरूर यह भारत के राष्ट्रपति का चुनाव है इसमें ना ही धर्म आड़े आता है न ही जाती न ही पंथ । लेकिन मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव में पक्ष और विपक्ष दलित कार्ड का सहारा लेकर वोट बैंक की राजनीति को महत्व दे रहा है। उन्हें राष्ट्रपति से अधिक दलित पति की आवश्यकता है न की राष्ट्रपति की।

तो क्या दलितों को राष्ट्रपति बनने का अधिकार नहीं?

ऐसा नहीं है भईया? सबको बराबर अधिकार है। लेकिन दलित नाम लेकर जनभावनों से खेलना कहाँ तक उचित है। अगर राष्ट्रपति पद के लिए कोई भी सक्षम हो तो उन्हे राष्ट्रपति बनाना चाहिए । चाहे वह किसी भी धर्म जाती का हो। न ही दलित दलित दलित कर शेष धर्म जाती को बांटना चाहिए। यह एक किस्म का बंटवारा है जो कभी ब्राह्मण तो कभी मुश्लिम तो कभी दलित के सहारे चल रहे हैं । ऐसे में आम जनता असहज महसूस करती है।  साथ ही मीडिया को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि वे किस प्रकार से जन भावनाओं से खेल रहे हैं। राष्ट्रपति के लिए दलित व्यक्ति सक्षम हो तो उनके कामों के जरिये  उन्हें वह अधिकार और सम्मान मिलना चाहिए न कि जाति पंथ के आधार पर।
भास्कर जोशी।

मेरे गांव के बात

मेरे गांव के बाट

टेढ़े मेढे बाट
इस बाखली से
उस बखाली तक
घर तक छोड़ जाती ।

घने जंगल के बीच
ऊपर नीचे आडी तिरछी
इस गधेरे से
उस गधेरे के छोर तक
आसानी से पहुँचा जाती।

अब तो आँखें बंद कर भी
उन्ही बाट बट्योरों की छवि दिखती है
सपने  में भी उन्हीं पगडंडियों पर
चलता हुवा खुद को पाता हूँ ।
 भास्कर

मेढकों की महासभा



पास से गुज़र रहा था, वहाँ पर देखा कि बहुत से बड़े-बड़े दल-दल थे। उन दल दलों में अपार मेढकों की संख्या। ताज्जुब करने वाली बात यह रही कि वे सभी मेंढक इंसानी भाषा में बात कर रहे थे। उनकी टर टराने की आवाज मेरी कानों में बहुत तेजी से आ रही थी। शोर गुल इतना कि कान बंद करने की नौबत आ पड़ी। कान में दोनों उंगुलियों को घुषोडने के बाद भी उनकी आवाज फिर भी आ ही रही थी। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे उनकी सभा चल रही हो  और वे टिकट बंटवारे के लिए नोक झोक के साथ साथ छिना झपटी भी कर रहे हो।

मन किया इन मेढकों को जरा सुना जाय। पता तो चले कि मेढक क्या बात करते हैं। मैंने भी अपने कानों से दोनों उंगलियां बहार निकाल ली। पास ही एक पत्थर पर बैठ गया और उनकी कलाबाजी देखने लगा।परन्तु उनकी  नजर जैसे ही मुझ पर पड़ी वे सभी एकदम सुन्न, मानो सन्नाटा छा गया, सभी दल-दल की गहराई में जा छुपे। मैं फिर भी ताकता रहा , क्या पता कुछ मजेदार बात निकालकर आये, और मुझे भी मिर्च मशला मिल जाए। इतने में एक मेढक दल दल से  मुंडी बहार निकालते हुए कुछ अजीब सी आवाज निकालने लगा कि सारे मेढक, एक एक कर दल दल से अपनी मुंडी दिखाने लगे।  उन में से एक मेढक पूरा का पूरा बहार निकल आया और बाकियों ने सिर्फ मुंडी ही बहार निकाल रखी थी।  बहार निकलने वाला बड़ा सा मेढक सबसे टॉप पर बैठ गया।वहां से  टरटराते हुए वह सभी को संबोधित कर रहा था । बाकि के मेढक उसी की ओर देखकर बड़ी शांतिपूर्वक सुन रहे थे।

कुछ देर बाद उनके बीच कुछ बातें हुई, टॉप पर बैठा हुआ कुछ पलभर के लिए  जैसे ही चुप हुवा कि देखते ही देखते सभी मेढक शोर मचाने लगे। उनके बीच हाथापाई होने लगी , एक के ऊपर एक चढ़ने लगे। गुस्साये कुछ मेढक इस दल दल से उस दल दल में जाने लगे।  उनकी आवाजाही एक सांप भी बड़ी तल्लीनता से देख रहा था। वह भी मौके की तलाश में था कि जैसे ही इनका ध्यान टर-टराने पर रहेगा, इस दल से उस दल में कूदेंगे तो तैसे ही अबकी बार इस दल-दल में , मैं घुस ही जाऊँगा। मगर सांप पर चील भी नजर गढ़ाए हुए था। वह भी यही सोच रहा था जैसे ही यह सांप बिल से बाहर निकले , सीधे झपट्टा मारूँगा।

इधर मेढकें दल-दल बदलने की  खेल में मस्त थे कि तभी सांप दल -दल में घुस गया। सांप ने दल दल में फुंकार मारते हुए, मेढकों को ढूंढने लगा, इतने में सारे के सारे मेढक गायब।मेंढक दल-दल में दल बनाकर अंडरग्राउण्ड हो गये।  सांप गुस्से से दल दल में फुंकार मार ही रहा था कि चील ने धावा बोल दिया और सांप को ले उडा। सांप दल -दल में अपना थोड़ा बहुत  जहर फैला चुका था। चील को देख मेढकों जान में जान आयी। सभी मेढकों ने चील को सर्जिकल स्ट्राइक के लिए धन्यवाद दिया। इधर दल दल में सांप का विष से छटपटाए मेढकों का टर-टराना फिर से शुरू हो गया।
भास्कर जोशी

उफ़ ! ये गर्मी

उफ़ ! ये ग़र्मी

उफ़! ये गरमी
तपती धरा, हवा संग बहती लू
हौले हौले से ही सही
मगर झील्लाती हुई पहुँची।

घमोरियों संग तनाकसी
रोम रोम से पसीने की धार
हौले हौले से ही सही
मगर बहती हुई निकल चली।

आँखों की परत मुरझाई सी
हौंठ सूखे, सूखे बिन पानी के
हौले हौले से ही सही
मगर लपलपाते हुए जीभ ठंडक दे गयी।

सर्दी का अहसास करना
कल्पनाओं से भी, अभी ओझल लगता है
हौले हौले ही सही
मगर फ़ैक्टरी से निकले बर्फ़
ठंडक का अहसास करा गयी।

ए गरमी तेरी ये मुहब्बत
अब हम सर्दियों में याद किया करेंगे।
धुंद की चादर से जब तू ढक जाएगा
हौले हौले ही सही
मगर छटने का इंतज़ार रहेगा।

भास्कर जोशी

कहानी : देबुली बुआ

देबुली बुआ  कहानी

एक दम मुफट, गाली गलौच तूती करना मानो उनका अधिकार था. पीठ पीछे कुछ न कहती जो भी कहना हो मुह पर फट् दे मारती, लोगों ने भी उसे कम गालियाँ नहीं दीं.  बांज, रान, न जाने और क्या क्या गालियाँ देबुली को सुनने को मिलती रही. देबुली जितनी दबंग किस्म की महिला थी उतनी ही करुना से भरी हुई मातृत्व प्रेम भी था. स्नेह जब उमड़ता तो आखों से अश्रु बह उठते. सारा लाड प्यार उड़ेल देती.

आज जब उसकी अंतिम यात्रा की डोली सजाई जा रही थी. तब उसके रिश्ते नाते, की भीड़ लग रही थी. उसकी अंतिम यात्रा में सभी सम्मलित हो रहे थे. देबुली ने अपना जीवन मायके में ही बिताया था. उसकी शादी की डोली तो मायके से उठी ही थी. पर अंतिम यात्रा की डोली भी मायके से ही उठने को तैयार थी. मायके में उसके साथी रहे भाभी, बहुवें रो रो कर देबुली के किस्से बता रहे थे,- देबुली तू कितनी भाग्यशाली रही, तेरे बाल बच्चे न होते हुए भी आज तेरा भरा पूरा परिवार है, दानों में दान- कन्यादान तू कर गयी, यज्ञों में यज्ञ, श्रीमद्भागवत महापुराण यज्ञ कर गयी. तुझे तो वैकुण्ठ ही प्राप्त होगा. देख तेरा परिवार कितना बड़ा परिवार है तू देख तो सही...............|  

देबुली का जीवन बड़ा ही काँटों भरा रहा. यों ही कोई सोलह सत्रह की उमर रही होगी जब देबुली का ब्याह हुवा था, पति उस समय भारतीय सेना में सिपाही था. छ: महीने भी नहीं हुए थे ब्याह के, कि पति सीमा पर शहीद हो गया और इधर देबुली अभी जवां ही न हुई थी कि उसे विधवा होना पड़ा. अभी उसका बचपना भी ठीक से बीता नहीं था और न जाने विधाता ने उसके साथ इतना बड़ा अत्याचार क्यों किया. वह भगवान को हमेशा कोश्ती रही,

बड़े भाई को इस बात की सूचना मिली तो वे अपने बहन के दुःख में भागी होने चले गये, पर जब वहां पहुँचे, देबुली की स्थिति देखा, अपने आंसुओं को न रोक पाए| देबुली के सास ससुर से बात कर देबुली को अपने साथ ले जाने की बात कही. भाई की लाचारी देख सास ससुर ने भी जाने की आज्ञा दे दी. भला यहां यह करेगी भी क्या जब पति ही न रहा. अभी तो इसका पूरा जीवन पड़ा है.  बड़े भाई देबुली को अपने साथ मायके ले आये.

कुछ अर्शे तक देबुली एक दम शांत रही, न किसी से बात करती न कुछ कहती, समय बीत रहा था तो देबुली भी अब अपने दुखों से धीरे धीरे उभरने लगी, कुछ साल बीत जाने के बाद देबुली की छोटी बहन की शादी तय हुई, बहन की शादी के बाद देबुली सामान्य स्तिथि में आ चुकी थी. सबसे बात चीत करना हंसी मजाक करना, घर के सभी काम में हाथ बटाना, वह सब कुछ करने लगी थी. लेकिन बाद में देबुली की अपने भाई-भाभियों से छोटी-छोटी बातों पर झगडा होने लगा. झगडा इतना बढ़ गया कि देबुली घर छोड़कर अपने बहन के ससुराल पहुंच गयी, खर्चे के लिए उसे अब किसी से रूपये-पैसे मांगने के जरूरत न पड़ती. तब तक देबुली की सिपाही पेंशन लग चुकी थी,

बहन के घर जब पहुचीं, और बहन का हाल देखा तो वह रो पड़ी. जवांई को शराब की बुरी लत लग चुकी थी. दो छोटे छोटे बच्चे थे और एक कोख में पल रहा था. कुछ समय तक देबुली वहां रही, बहन के काम काज में हाथ बटाने लगी. पर जवांई पीए-खाए हालत में घर आता और अपनी पत्नी संग मार पिट करता. बहन की एसी स्थिति देख वह कहाँ चुप रहने वाली थी. वह भी उस झगडे का हिस्सा बनने लगी, जवांइ और बहन की बीच इतना बड़ा झगडा हुवा कि देबुली वहां से छोड़कर अपने मायके लौट आई. भाई के घर पहुँचने के कुछ दिन तक सब कुछ ठीक रहा. कुछ दिन गुजर जाने के बाद वही वाद-विवाद होने लगा. देबुली भी अब दबने के मुंड में नहीं रहती, खुलकर विरोध करती थी,

शहर से जब देबुली का छोटा भाई गाँव पहुंचा, तब बड़े भाई ने देबुली के बारे में वगत कराया. छोटा भाई करता भी तो क्या करता, परन्तु उसने देबुली से कहा जब भी तेरी इच्छा हो मेरे पास शहर चली आना. तेरा छोटा भाई हमेशा तेरे साथ है. तब देबुली बड़े भाई का घर छोड़कर गाँव में ही किसी के यहां किराये पर रहने लगी थी. चार पांच साल तक वह उस घर में किराये पर रही. कुछ दिन बीत जाने के बाद देबुली के नाम एक ख़त पहुंचा, उसमे लिखा था, तुम्हारी बहन के पति नहीं रहे. यह बात जब देबुली के कानों में पड़ी तो वह रोते हुए अपने बड़े भाई के पास पहुंची, भाई होने के नाते उन्हें दुःख तो हुवा पर देबुली के बर्ताव को देख वे कुछ कह नहीं पाए. उनके मन में कहीं कुछ और भी चल रहा था. कहीं उसे भी मायके बुलाने के नौबत न आजाये. यही कारण था की पांच भाइयों में से कोई भी वहां जाने को तैयार नहीं हुआ.

देबुली को अपने बहन की हालत पहले ही देख चुकी थी . जब वह बहन को छोड़ कर आई थी तब दो छोटे छोटे बच्चे बड़ा लड़का और छोटी लड़की ही थे और एक कोख में पल रहा था, बाद के कुछ वर्षों में बहन के चार बच्चे हो चुके थे. बड़ा लड़का था और बाद के तीन लड़कियां.  देबुली को मन ही मन बहन की चिंता सताए जा रही थी. पति जैसा भी हो एक सहारा होता है पति तो आखिर पति होता है. वह इतना तो जान ही चुकी थी, उसने उसी दिन गठरी में चार कपड़े बंधे और बहन के यहां बग़ैर भाइयों को खबर किये चली गयी. बहन का कामकाज भी कुछ कम न था. चार-चार भैंस पाल रखे थे. गाय-बैल सो अलग थे, इधर भाई भी लोक लाज के डर से तीन महीने बाद अपने बहन से मिलने जाते हैं. भाई के वहां पहुँचने पर देबुली के साथ खूब कहा सुनी होती है. तब भाई ने क्षमा मांगते हुए अपनी बहन से कहा- तेरे इस बड़े लड़के की देख-भाल मैं कर लूँगा, मैं भी घर परिवार वाला हूँ, मेरे भी चार छोटे छोटे बच्चे हैं उनके साथ इसे भी अपने बच्चे जैसा रखूँगा. इससे अधिक मैं भी कुछ नहीं कर सकता हूँ .

देबुली के कहने पर बहन ने बड़े बेटे को उनके साथ रवाना कर दिया. कई साल तक देबुली वहीँ बहन के यहां रही वहीँ काम काज संभाला, बहन के बड़े लड़के को व पांचवीं पास करने के बाद उसे वापस बुलवा लिया. और कुछ समय वह वहीँ रही, देबुली के बर्ताव में काफी फर्क आ चूका था व एकदम निर्भीक और झगडालू किस्म की हो चुकी थी. बात-बात में बहन से भी नोक झोक होने लगी.

देबुली के दो भाई शहर में रहते थे. अब वह बारी बारी से कभी वह उनके यहां चली जाती, तो कभी मायके तो कभी बहन के यहां. कई वर्षों तक यह सिलशिला यों ही चलता है, उधर बहन की लड़कियां शादी के योग्य हो गयी थी, बहन का बुलावा आना पर वह बहन के वहां चली गयी. देबुली की पेंशन तो थी ही, तो उका पैसा बैंक में जमा होता रहा, उसी पैसे से उसने बहन ही तीनों लड़कियों की और बड़े लड़के की भी शादी करवाई. समय समय पर अपने भाइयों के बच्चों की शादी के लिए भी देबुली ने पैसों की खूब मदद भी की. जिसे वह अपनी ख़ुशी से देती थी, उस से कभी वापस नहीं मांगती. परन्तु यदि किसी ने एक रुपया भी उससे उधार के रूप में लिया होता, वह एक आना भी न छोडती.

देबुली की उमर भी ढल रही थी. अब इच्छा थी कि वे अपने ससुराल जाकर सबसे मिल लूँ. वह बहन के यहं से विदा लेने के बाद अपने ससुराल में सभी से मिलने पहुंच गयी. तब तक उधर सारा माहौल बदल चूका था. सास ससुर अब रहे नही, देवरानी, जेठानी सभी शहर जा चुके थे. घर के केवाड बंद थे. उस रात वह अपने परिवार बिरादरी के यहां ही रही, वापस लौटना वहां से मुश्किल था. दुसरे दिन वह वहां से लौटते सयम अपने देवरानी और जेठानी का फोन नंबर लेते हुए, मायके लौट आई.  मायके में कुछ दिन बिताने के बाद अपने जेठानी को फोन किया. जेठानी ने भी उसे आने का न्योता दिया.

जेठानी के घर पहुँचने पर वह सभी से मिली, परिवार के बच्चों को भरा पूरा परिवार देख देबुली रोने लेगी. देबुली ने उन सबके सामने अपनी एक इच्छा जाहिर की- कि वह एक बार अपने कुटुम्भ के साथ भागवत कथा करना चाहती है जिसमें आप सभी की भागीदारी जरुरी है. आप लोग मेरे अपने हैं, आप लोगों को ही मुख्य भूमिका निभानी हैं. जेठानी के बड़े बेटे ने इसमें अपनी रूचि और सहमती दोनों व्यक्त की. उसके बाद देबुली वहां से सभी रिस्ते नाते के साथ निमत्रण देते हुए मायके पहुंच गयी. मायके में ही बड़े भाई के बच्चों के देख रेख और गाँव वालों की मदद से भागवत कथा यज्ञ करवाया गया.

देबुली की इतनी उमर हो चुकी थी कि वे अब अपने बुढ़ापे की बीमारी से भी अब जूझने लगी. अस्थमा दिनोदिन बढ़ने लगा था. इलाज के लिए भी वह सभी कुछ कर चुकी थी. पर उसे अब एहसास होने लगा था अब उसका जीवन अधिक समय तक नहीं रहने वाला था. इसलिए मायके लौट आई. उसकी देखभाल उसके बड़े भाई के बहु बेटे कर रहे थे. बहु बेटे अपनी बुवा की देखभाल अपने माँ पिताजी की तरह करते.

बीमारी की अवस्था में देबुली थोडा बोल-चाल की स्थिति में थी. उस दिन सभी रिश्ते नातों से फोन पर बात की और अंतिम भेंट करने की इच्छा व्यक्त की. दुसरे दिन से ही रिश्ते नातों की भीड़ लगनी शुरू हो गयी, और यह हप्ते भर तक चलता रहा, यह देबुली का अपने परिश्रम, त्याग. कर्म का ही फल था कि  उसके अंतिम क्षणों में सभी अपना हक़ बारी-बारी से निभाते आये. उसी बीच एकाएक देबुली का स्वास्थ अधिक बिगड़ गया. सास लेने में तकलीफ काफी होने लगी. दिन ढलने तक सबकी साँसे देबुली बुवा पर ही अटकी हुई थी. सभी देबुली बुवा के इर्दगिर्द ही थे और उस दिन देर रात सबको छोड़ अनितं यात्रा के लिए चल पड़ी.
भास्कर जोशी

दाज्यू देखो धें

दाज्यू देखो धें
कि भल क् बसाई छि
कि भल क् सजाई छि
तल डाना मल डाना
कि हमर पुरखों बसाई छि
देखो धें, कस निसार लागि रै याँ
दाज्यू देखो धें।

कि भल क़ बाखेय छि
कि भल क़ भियार दोपुर बनाई छि
रन्न छि नानतिनाक़, खेलण क़ुदण
कि भल क मिलीझुली परिवार रौंछि
देखो धें, कस निसार लागि रै याँ
दाज़्यू देखो धें।

कि भल क् म्योल लाग छि
कि भल क् रंगत ऑंछि
तुतुरी बजौने नानतिनाक
कि भल क् फुवार लागि रोंछि
देखो धें, कस निसार लागि रै याँ
दाज्यू देखो धें।

कि भल क् नौ धारक पाणी
कि भल क् छ्प-छपी गौ तराण
गागर, कश्यार् लिबेर पनेर जांछि
कि भल क घर भतेर कलश थापी रौंछि
दाज़्यू देखो धें। कस निसार रै याँ
दाज़्यू देखो धें।
भास्कर जोशी

क्किसान मर रहे

कर दिया कबाड़ा
किसान मर रहे
तुम्हारी राजनीति ने
कैसा बंटाधार किया।

धरने पर बैठे
सबकुछ गँवा कर
मांग उनकी जायज है
तुम्हारी बला से

दिन भर वे मेहनत करे
धुप देखे न  छांव
न मिले मजदूरी
 तुम्हारी बला से

किसानों की पीड़ा
कभी तुम न समझोगे
पेड़ों पर लटके मिले
तुम्हारी बला से।

तुम करो राजनीति
आग घर घर में लगा दो
किसान न जी सके न मर सके
तुम्हारी बाल से।

दल-दल बदलने की
तुम्हारी है फिदरत
किसान कहाँ जाएं
तुम्हारी बला से ।

किसानों के सीने में
तुमने दाल दल दिए,
कुछ जैसे तैसे काट रहे दिन
तुम्हारी बला से।

भास्कर जोशी

जगरियक़ आशीर्वाद



भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन
शहरी स्वकारो तसिके पहाड़ ऊने राया
तुम तसिके भूत छौ पूजने राया
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन

बाट घवेंटु ख़ूब छौ छितर लगै लिजाया
साल भरक छौ छितर महेण में पूजने राया
मशाण भूत प्रेत लगौने राया
तुम तसिके पहाड़ में पूजने रै जाया
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन

पहाड़ एबेर अड़ोसी पड़ोसी कुँ गाई ढाई दिजाया
भकार भरि बेर हंक लगै लिजाया
हंक धुण में ख़ूब बकार काटि जाया
तुम तसिके पहाड़ में पूजने रै जाया
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन

तुमर छौ छितर में मुर्ग़ी फ़ारम फ़ई जो
तुमर हंक धुण में बकारक मालिक मालामाल है जो
शराबी कबाबी पी खै बेर बारोमास घूरी पड़िए रैजो
तुम तसिके पहाड़ में बार बार पूजने रैजाया
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन

मगें रोज तसिकै बलौने रैया
तसिकै हुडुकी थाई बजुनें रूँ
खै पी बेर म्यर रोज़गार दुब जस फई जो
तुम तसिकै पहाड़ पूजने, भेटने राया।
राज़ी राया ख़ुशी राया स्वकारा।
भमपा पक़म भम-पा पक़म
टन टना टन टन टना टन
भास्कर जोशी

गेवाड़ घाटी