Thursday, April 28, 2016

बाल कविता : केजू चाचा


बाल कविता

कहाँ गए वो केजू चाचा
कहाँ गई उनकी वो खांसी
कितने अच्छे सच्चे थेवे चाचा
कहाँ गए वो केजू चाचा

आये दिन धरने देते थे वे
मफलर टोपी बांधे
लोकपाल था नारा उनका
कहाँ गए वो केजू चाचा

शर्दी गर्मी में उनके वो अनशन
भूख प्यास से धरना देते
उनकी खांसी सी वो दहाड़
कहाँ गए वो केजू चाचा

आम आदमी बनकर  चप्लें वे घिसते
प्लास् पेंचकस लेकर जनता के घर घुस जाते
बिजली की चोरी करने का गुर सीखते
कहाँ गए वो केजू चाचा

आम आदमी बनकर लोगों को ठगते
खास आदमी बनकर हवाई यात्रा करते
फ्री सदस्य बनाकर करोड़ों का चंदा लाते
कहाँ गए वो केजू चाचा।

जबसे कुर्सी मिली है उनको
खांसी मफलर सब छूट गए
धरना अनशन से ऊब कर
आड इवन-आड इवन खेल रहे
कहाँ गए वो केजू चाचा

अब तो वे दिल्ली का दादा बन बैठे
धौंस जमाते झगड़ा करते
तनख्वा के लिए कर्मचारी को अंगूठा दिखाते
कहाँ गए वो केजू चाचा

लोकपाल को ठोक दिए
जन  सभा से भाग गए
ताना साह जैसी उनकीधमकी है
कहाँ गए वो केजू चाचा

निकला हूँ जंतर मंतर की ओर
ढूंढने केजू चाचा को
मिल जाए वही पुराना केजू चाचा
वही खांसी वाला चाचा
वही मफलर टोपी वाला  चाचा। पभजोपागल

Wednesday, April 27, 2016

घन्तर-10 : बुबु पोथा संवाद -1

घन्तर-10
 बुबु पोथा संवाद -1

और पोथा के हूणि हाल समाचार

बस बुबु सब ठीक है लेकिन अपने प्रदेश के हालात ठीक नहीं हैं। लोगों को बड़ी बड़ी उम्मीदें थी कि  हरदा आएँ हैं तो कुछ अच्छा करेंगे। लेकिन काम बनने के बजाय यहाँ तो हालात ख़राब हो गये बल्कि बिगड़ ही गये। रोज़ रोना धोना हो रहा है मंत्रियों का। कि तू भसोरने में लगा है और हमें कढ़ाई चाटने भी नहीं मिली। रोज़ इसी बात का तमाशा बन रहा है। वैसे बाक़ी सब ठीक है।

लेकिन पोथा यस की हौ

बुबु होने के लिए तो कुछ ख़ास नहीं हुवा। लेकिन पिछले 16-17 सालों से जो हो रहा था बस उसी को दोहराया है नयाँ कुछ भी नहीं हुवा, कुर्सी वही, वही साल दो साल और कुछ नहीं उसी का रोना धोना है। वह तो क़िस्मत अच्छी थी कि एन डी बुबु जैसे तैसे पाँच साल लपेट गए। वरना उस साल एक दो मुख्यमंत्री और बनते। इधर मुख्यमंत्रियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो जाती। वैसे बाक़ी सब ठीक है ।

पै पोथा पाँच सालक लिजी कगणि ज्यौड़ से नर्का क्यों नहीं देते

बुबु कोशिश तो बहुत की थी पर शक्तिमान बीच में आ पड़ा। शक्तिमान ने अपनो सारी शक्ति लगा डाली तो ज्यौड़ एटोमैटिक ही खुल गया। शक्ति को फ़ुजुल ख़र्च कर शक्तिमान शक्तिहीन होकर चल बसा। उस से पहले वाले मुख्यमंत्री की कुर्सी पर प्रकृतिक आपदा आ पड़ी जिस से बीजू दा की कुर्सी बह पड़ी। उस कुर्सी के साथ बीजू दा का सूट केश भी बह गया। कोशिश बहुत की थी उसने सूट केश को ढूँढने की पर सब पानी फेर गया। अब तो एक ही प्रश्न सताता है कि ये कुर्सी और उसका धरातल ही क्यों बच जाता है। वैसे बाक़ी सब ठीक है।

ना पोथा ना यस नी क़ौण चैन। जस लै हाय हमर  नेता हाय त ।

बुबु ठीक कहा आपने नेताओं के विरुद्ध तो आजकल जाना ही नहीं हुवा। बड़ी हिम्मत जुटाकर कुछ कहो तो धमकी भरे फ़ोन आने लगते हैं अगर उतने ही चुप हो गये तो ठीक वरना सर में काले कम्बल ओढ़ा कर मुंगर से दनोर जाते हैं और यह भास भी नहीं होने देते कि कौन नेता हमें दनोर गया। वही बाद में फिर आपके घर आकर शान्त्वना भी देकर जाएँगे यह कहकर कि तुम लड़ो हम तुम्हारे साथ हैं । वैसे बाक़ी सब ठीक है।

पै पोथा सब ठीक हेजाल। आपण ध्यान धरिया त नेतानू मुख झन लगिया। अच्छा पै एल हिटनू फिर मुलाक़ात हेल।

बुबु पोथा संवाद जारी है बने रहिए
भास्कर जोशी
9013843459

Saturday, April 23, 2016

घन्तर-9

घन्तर-9
प्रेस वार्ता छलिया नेता विथ सैलफ़ी-8

बल भीकू दा बहुत दोनों से आप दिखाई नहीं दे रहे हैं क्या कारण है ?

क्या बताऊँ भुला कारण वारण कुछ नहीं है लेकिन हाँ कुछ लोगों को पढ़ने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूँ विशेषकर उन नेताओं को, जो न जाने क्या क्या खेल खेलते हैं और लोगों को बेवक़ूफ़ बना लेते हैं। यही कारण है कि थोड़ा व्यस्त चल रहा हूँ कोशिश कर रहा हूँ कि नेताओं के झूठ व छलावे को पकड़ सकूँ।

बल भीकू दा लोग वोट पाने के लिए क्या कुछ नहीं करते। एसे में आप चुप हो। कुछ बोलते क्यों नहीं। आप बोलते हैं तो लोगों तक आपकी बात पहुँचती हैं

क्या  कहूँ भुला। लोग वोट के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते हैं वे सिर्फ़ सुर्ख़ियाँ में रहकर लोगों को झूठी दिलाषाएँ देते है। और हमारी भोली भाली बेवक़ूफ़ जनता उनकी चुपड़ी मलाई दार बातों से पिघल जाती है। लेकिन कहें किस से? उस जनता से, जो सौ रुपये के नोट और एक पऊवा कच्ची शराब के चक्कर में अपने पाँच साल को पीछे धकेल देते हैं।

तो भीकू दा आप सोशल मीडिया के द्वारा लोगों को समझाते क्यूँ नहीं? यहाँ अपनी बात कहने व रखने का अच्छा माध्यम है

मैं आया था सोशल मीडिया पर। लेकिन देखा कि लोगों को सचाई से परिचित कराने वाले व्यक्ति को पागल समझा जाता है और जुमले बाज़ी करने वाले को महान समझा जाता है वैसे भी सोशल मीडिया पर अब सिर्फ़ नेताओं का आधिपत्य होने लगा है कई नेता लोग तो एसे भी हैं जो कि किसी और की मलाई चट कर जाते हैं। मेहनत कोई और करे  सारा क्रडेट ले जाए ये नेता। झूठी फ़ोटो डालकर लोगों में भ्रम पैदा कर रहे हैं और कुछ नहीं।

भिकूदा बात कुछ समझ में नहीं आइ । आप स्पष्ट समझाए ताकि लोग आपकी बातों को समझ सकें?

भुला कल की ही बात है अपने एक नेता जी ने मलाई खाने पहुँच हुए। काम किया सार्थक प्रयास संस्था ने और मलाई उड़ाने नेता जी । जबकि सार्थक प्रयास संस्था ने उस क्षेत्र में तक़रीबन 60 बच्चों  को शिक्षा के लिए गोद लिया है जो कि निर्धन परिवारों से हैं कई बचों के माता पिता नहीं हैं।उन बच्चों के पठन पाठन का ख़र्चा यह सार्थक प्रयास संस्था उठाती है। लेकिन नेता जी ने मलाई की सैंध लगाते हुए उन बच्चों को बुलाया फ़ोटो खिचवाई और तो और उसे सोशल साइड पर मदद के नाम पर अपनी प्रशंसा करते हुए पोस्ट कर डाल दी।

बल भीकू दा एसा क्यों और किसलिए किया होगा?

सब वोट पाने के लिए भुला । सबसे महत्वपूर्ण बात तो ये हुई कि जिस बच्ची की फ़ोटो सोशल साइड पर लगाई गई उसकी निजी जानकारी के बिना डाली गई और यह भी लिखा गया कि मैं अपने ख़र्चे से इन असहायबच्चों को काँपियाँ बाट रहा हूँ इनकी मदद कर रहा हूँ। जबकि उस फ़ोटो फ़ाइल वाली बच्ची ने यह जानकारी नेता जी को दे दी थी कि मेरी शिक्षा का ख़र्च सार्थक प्रयास संस्था उठा रही है। और मैं आपसे कॉपी नहीं ले सकती। उस खुद्दार बच्ची ने ईमानदारी दिखाते हुए कोपियाँ नहीं ली। लेकिन नेता साहब तो नेता ठहरे। सिम्पैथि जो बटोरनी थी। उन्होंने उस बच्ची के साथ सैलफ़ी खिचवाई और दे धड़ाम सोशल साइड पर अपनी झूठी तारीफ़ लिख डाली। कि हम असहाय बच्चों की मदद कर रहे हैं।साहब मदद करना अच्छी बात है पर उस मदद को आगे बढ़ाना और अच्छी बात है। पर जिसने मदद न ली हो आपसे उसका दुष्प्रचार करना क्या ठीक है ? और तो और हमारी जनता उन्हें वाह वाहि से नवाज़ रही है। बिना जाँचे परखे ? क्या यह सिर्फ़ और सिर्फ़ वोट का खेल नहीं।

क्या भीकू दा एसे झूठे नेताओं के छलावे से लोग कैसे अपने आप को बचा सकेंगे?

भुला किसी को बचाना हमारे बस की तो नहीं विशेषकर इस राजनीति से। यह तो आम आदमी को सोचना चाहिए। कि जो हमें दिखाया जा रहा है क्या वह सच है या झूठ? इसकी जाँच हमें अपने लेवल की करनी ही चाहिए। उसी के बाद इन नेताओं से सवाल दागने चाहिए। कि आप झूठ और छलावे के दम पर कब तक हम आम जनता को छलोगे ? जिस दिन आम जनता में सवाल पूछने की हिम्मत जाग उठेगी उस दिन झूठे वादे व छलावा करने वाले नेताओं की अकल और अकड़ सीधे लाइन पर आ जाएगी। एसा मेरा मानना है।

जारी है भीकू दा के साथ प्रेस वार्ता अगले सवाल जवाब के साथ ।
भास्कर जोशी "पागल"
9013843459

Wednesday, April 6, 2016

घन्तर-8 : मेलों पर मँडराता संकट पर भीकू दा से प्रेस वार्ता -7

घन्तर-8

मेलों पर मँडराता संकट पर भीकू दा से प्रेस वार्ता -7

क्या भीकू दा आजकल दिखाई नहीं दे रहे। कहाँ व्य्स्थ हैं आप ?

क्या बताऊँ भुला गरमी बढ़ने लगी है कभी कभी तो पारा चार सौ डिग्री से ऊपर चढ़ जाता है। लेकिन यहाँ फ़िकर कौन करे । सभी अपने अपने दाव पेंच लगा रहे हैं पर मत्था अपना गरम होता है वे नौटंकी करते हैं हमें लुभाने की पर नमक मिर्च व जीरे का तड़का लगाए बिना भी नौटंकी में मज़ा कहाँ रहता है ।

असल बात क्या है भीकू दा? आज आप बात को गोल गोल घुमा रहे हैं

भुला बात गोल गोल नहीं घूम रही है बल्कि स्पष्ट है आज पहाड़ों के मेले कौतिकों की महत्त्वता ख़त्म होती जा रही है। इसका कोई एक कारण नहीं है कई कारण हैं जिसके वजह से इन कौतिकों का जड़ से नष्ट होता हुवा दिखाई दे रहा है।

बल भीकू दा लोग तो मेलों को बचाने के लिए रंगा रंग कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं ताकि मेले फिर से जीवित हो सके

आपको क्या लगता है? जिन मूल कारणों से अपने पहाड़ों में मेले किए जाते थे उन मूल कारणों पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है स्पष्ट कहूँ तो अष्टमी नवमी के मेलों में लोग देखने के लिए इस लिए आते । कि जो बलि दी जाती थी उसे देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। अधिकांश पहाड़ के मेलों में पशुबली देकर मेले की शुरुआत होती थी उस बलि को देखने के लिए लोग दूर दूर से आकर मेले का लुफ़्ट उठाते थे साथ ही घर से  जुड़े सामानों की ख़रीद परोख़ करते थे। जबसे पहाड़ों के मेलों में बलि प्रथा बंद हुई है तब से मेलों की रौनक़ ग़ायब है अब आप कहेंगे कि पशु बलि देना क्या ठीक होगा? और मेरा जवाब होता- नहीं। क्योंकि किसी निर् अपराध जीव हत्या करना अच्छा कैसे माना जा सकता है बलि के नाम पर की गयी जीव हत्या पाप का भागी है। बलि नहीं दिए जाने पर उसका स्वागत करते  हैं।

 भीकू दा आपने तो असमंजस में डाल दिया एक ओर कहते हो बलि होती तो पहाड़ों के मिले हरे भरे होते और वहीं दूसरी ओर कहते हो बलि देना पाप है बलि नहीं होनी चाहिए?

आप स्वयं सोचिए पहाड़ों में अधिकांश मेले किस पर आधारित हैं! पशु बलि पर ना। कुछ ही गिने चुने मेले हैं जिनमें बलि नहीं दी जाती हो या फिर समय समय पर उन मेलों में बदलाव किये गया। कई मेले तो एसे भी हैं जहाँ इंसानी ख़ूनी झड़प होती थी आज भले ही उन मेलों में रश्म अदाई की जाती हो। इसलिए जिन मेलों में पशु बलि दी जाती रही हो उसे अचानक से आप रोक दें तो उस मेले का क्या होगा। यह एकदम मेलों का फीका पड़ जाना है। अभी उत्तराखंड के कई मेलों में इसका प्रभाव देखने को मिल रहा है । सरकारें सिर्फ़ अपनी वाह वाहि बटोरती हैं। हर बार की तरह एक ही बयान आता है कि मेले व संस्कृतियों को बचाने के लिए हम प्रयासरत हैं। क्या किसी ने सरकार या एम पी, एम एल ए से सवाल पूछने की कोशिश की । कि अब तक आपने कितने नए मेलों का आयोजन किया या कितने मेलों  में भागीदारी की। उत्तराखंड के मेले जो अभी तक बचे हुए हैं वह स्थानीय लोगों की बदौलत  बचे  हैं जो सांस्कृतिक कार्यक्रमों व सेलेब्रेटियों को लाकर रंगा रंग कार्यक्रम करवाकर जैसे तैसे मेलों में जान फूँक रहे है। वरना आज पहाड़  के मेले अपना अस्तित्व  खो बैठते । ऊपर से गाँवों का ख़ाली होना घरों  में ताले लटकना दुर्भाग्य है पलायन की चिंता ......?

जारी है भिकूदा के साथ प्रेस वार्ता अगले सवाल जवाब के साथ
भास्कर जोशी पागल
9013843459

Tuesday, April 5, 2016

उत्तराखंड कुर्सी पर ढाईया का प्रकोप

उत्तराखंड कुर्सी पर ढाईया का प्रकोप 

प्रतिष्ठित अखबार हरदौल वाणी में लेख को स्थान देने के लिया आदरणीय श्री देवी प्रसाद गुप्ता जी (श्री जी) भाई ललित शौर्य जी का बहुत बहुत आभार।

उत्तराखंड की सियासी उठापटक में नुक़सान किसका? कोंग्रेस और भाजपा दोनों दलें अपनी अपनी सियासी घोड़े ढ़ईया की चालें चल रहे हैं। एक दूसरे को गिराने की जद्दोजहद में लगे हैं। आपसी लड़ाई लड़ रहे हैं यहाँ तक कि मुख्यमंत्री हरीश रावत द्वारा विधायकों की ख़रीद परोख करते हुए एक विडियो भी सामने आया है इन सबके बीच उत्तराखंड का जो हाल दोनों पार्टियों ने किया है वह किस से छुपा नहीं। उत्तराखंड को नरक में पहुँचाने का जो काम इन दोनों पार्टियों ने किया उससे उत्तराखंड की जनता को बड़ा नुक़सान पहुँचा है लेकिन जनता की फ़िकर किसे है ? कुर्सी की इस लड़ाई में जनता ही पिसती हुई आइ है और आगे भी इन नेताओं के सियासी चालों से जनता को ही पिसना होगा है।

इससे तो यही जान पड़ता है कि उत्तराखंड में ढईया का प्रकोप अधिक है क्योंकि एन डी तिवारी के अलावा कोई भी मुख्यमंत्री उत्तराखंड की सत्ता को पाँच साल तक संभाल नहीं पाया। क्योंकि हर साल, दो साल में उत्तराखंड को एक और मुख्यमंत्री का ताज थमा दिया जाता है। इन मुख्यमंत्रियों के लिए काम की ज़िम्मेदारी महत्वपूर्ण नहीं रहती बल्कि कुर्सी बचाओ महत्वपूर्ण है। नेताओं की जनता के प्रति अहमियत कितनी है इस बात से आप हम सभी परिचित हैं।

उत्तराखंड बनने के बाद अबतक 8 मुख्यमंत्री बन चुके हैं। कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे कि उत्तराखंड में मुख्यमंत्री का पेड़ लगा हो। हवा से पेड़ हिले तो टपाक़ से मुख्यमंत्री पेड़ गिर जाते है। सायद ही अबतक इतने कम समय में अन्य किसी राज्यों में इतने मुख्यमंत्री बने हों पर उत्तराखंड में मुख्यमंत्री का पेड़ होने से यह लाभ ज़रूर मिला है। अब तो आलम यह है कि आने वाले वर्षों में प्रकृति ने अच्छा साथ दिया तो पेड़ों पर और अत्यधिक मुख्यमंत्री लटके होंगे। चूँकि पैदावार अच्छी रही तो समय आने पर बाक़ी के राज्यों को उत्तराखंड राज्य अन्य राज्यों को भी मुख्यमंत्रियों का सप्लाय करेगा और यह पहला राज्य बनेगा जो मुख्यमंत्री की खेती करने वाला राज्य होगा।

बहरहाल उत्तराखंड की जनता मायूस खड़ी है मानो चौराहे पर उसे बिन कपड़े के खड़ा कर दिया हो। लेकिन सत्ता धारी लोग राष्ट्रपति सासन लगने के बाद ख़ुश हैं और बहुत से लोग ना ख़ुश भी। क्योंकि उत्तराखंड की कुर्सी अभी रिक्त हो चुकी है। अब पार्टियों का यह ज़ोर रहेगा कि अगला राजा हमारा हो और राजशाही हमारी चले, हमारी ही ताजपोशी हो। वहीं दूसरी अन्य पार्टियाँ भी इसी जद्दोजहद में जुटी हुई है कि इस बार की सत्ता की डोर हमारे हाथ में हो।

इन सबके बीच उत्तराखंड की जनता मायूस, नि:सहाय, लाचार खड़ी है वह अब भी यही भ्रम हैं कि द्वारे किसके जाया जाय। जिन्हें वोट देकर विधानसभा भवन भेजा था, वे होटलों में जाकर अपनी राजनीतिक खिचड़ी उमाल रहे हैं। ये ऐस-कैस के सौदागर करोड़ों की धाँधले बाज़ी कर उत्तराखंड को अनाथ बनाकर सियासीदार मौज मस्ती के लिए पिकनिक और सैर सपाटे का आनंद उठा रहें हैं। ऐसे में उत्तराखंड का भला कैसे होगा ? उस जनता का क्या जिसने अपना क़ीमती वोट देकर इन नेताओं से कई उम्मीदें सजाकर रखे थे? उत्तराखंड की ऐसी उठापटक देख पुराना एक गीत याद आता - 
क़समें वादे प्यार वफ़ा अब, बातें हैं बातों का क्या
कोई किसी का नहीं ये झूठे, नेता हैं नेताओं का क्या ? -भास्कर जोशी पागल

गेवाड़ घाटी