11 अगस्त हरदौल वाणी में प्रकाशित |
किसकी नजर लगी होगी
हिमालय के इस सौन्दर्य पर
पहाड़ों का दरकना, टूट कर बिखरना
बारिश के शैलब से घरों का बह जाना
जान पर आफत बन पड़ी है |
न जाने पहाड़ को किसकी नजर लागी है ?
सिर के उपर न छत है
न बिछाने को बिछौना
चूल्हा तो है मगर बर्तन नहीं
भूख है पर खाने को राशन नही
तडप रही है भूख-प्यास से जिन्दगी
कब मौत आ जाये यह कौन जानता है ?
न जाने पहाड़ को किसकी नजर लागी है ?
डरा हुआ, कुछ सहमा हुआ सा
अस्त व्यस्त सा हो गया जन जीवन पहाड़ का
इन बादलों की गर्जन से, सिसक रही है जिन्दगी
बिखर रही धन-संपदा पहाड़ की
कब मुसीबत की बाढ आ जाये, यह कौन जानता है?
न जाने पहाड़ को किसकी नजर
लागी है ?
अब डर सा लगा रहता है
इन बादलों के बरसने से
न जाने कब आफत के बादल फट पड़े
और हम इसके शैलब में समा जायें
इन बादलों के दहसत से
पहाड़ दिन रात कांपती है
न जाने पहाड़ को किसकी नजर
लागी है ?
हर बरस मृत्यु का तांडव होता यहाँ
कई घरों के चिराग बुझ जाते हैं
अभिशाप बन गया बादलों का यह झुण्ड
पल भर में मर-घाट बना देती है
और देखते ही देखते घर की खुशियाँ
मातम में बदल जाती है
न जाने पहाड़ को किसकी नजर
लागी है ?
कहीं पहाड़ पर इनकी नजर तो नही लगी
पहाड़ में खनन माफियाओं के जागने से
पहाड़ की चट्टानों को बम से उड़ा देने से
बहती नदियों को रोक, बाधों के बध जाने से
पहाड़ की संस्कृति, सभ्यता का हनन करने से
पहाड़ से प्लायन, भूमि बंजर कर देने से
सायद इन्हीं की नजर लगी होगी
न जाने पहाड़ को किसकी नजर
लागी है ?