Friday, August 31, 2012

डर लगता है


सच्च कहूं डर लगता है
आप से आपके प्यार से
अक्षर लोग प्यार के नाम पर
धोके के शिवा
रुत्वाई  छोड़ जाते हैं
बहुत से जालिम देखे
नाम तो प्यार का  देते हैं
मगर काम सैतनों की कर जाते हैं
सामने से प्यार का मस्का
पीछे से दुश्मनी का खंजर
ये दुनियां की फितरत बन गयी है
किस पर विस्वास करूँ
किस पर न करूँ
सकल से तो सभी भोले लगते हैं
सच्च कहूं डर लगता है
आप से आपके प्यार से

Tuesday, August 28, 2012

याद आता है पहाड़


याद आता है वो पहाड़ ,
छोड़ आया अपना पहाड़

वो पहाड़ का सौन्दर्य,
वो पहाड़ की प्राकृतिक छटा ,
यो पहाड़ का वातावरण,
याद आता है वो पहाड़,
छोड़ आया अपना पहाड़।

वो पहाड़ के रौल-मौल,
वो पहाड़ के गाड-गधेरे,
वो कल-कल-छल-छल बहते झरने,
याद आता है वो पहाड़,
छोड़ आया अपना पहाड़।

वो पहाड़ के उबड़-खाबड़ खेत,
वो खेतों के टेड़े-मेड़े मेंट,
वो पहाड़ की हरियाली,
याद आता है वो पहाड़,
छोड़ आया अपना पहाड़ ।

वो पहाड़ के बार-त्यौहार,
वो पहाड़ के हिसाव-किलमोड़,
वो पहाड़ की कोयल मधुर ध्वनि,
याद आता है वो पहाड़,
छोड़ आया अपना पहाड़।

बीता पहाड़ में बच्चपन मेरा,
वो मेरा उपद्रव करना,
वो गांव की मित्र-मंडली,
अब बस एक यादें बनकर रहा गये,
याद आता है वो पहाड़,
छोड़ आया अपना पहाड़ ।

पं. भास्कर जोशी

Tuesday, August 21, 2012

किसी ने देखा ? मेरा वो सपनों का भारत


किसी ने देखा ?
मेरा वो सपनों का भारत
जिसे कहते थे लोग
सोने की चिड़िया
अब न जाने कहाँ छुट गया
मेरा वो  सपनों का भारत ।

जिस देश में था
भाई चारा सबसे बढकर
हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई
थे आपस भाई-भाई
अब न जाने कहाँ खो गया
मेरा वो सपनों का भारत ।

जिस देश बहती स्वच्छ निर्मल धारा
गंगा-यमन-सरस्वती
कर दिया असुद्ध धाराओं को
डाल दिए गट्टर के ढकन में
अब न जाने कहाँ लुप्त हो गये
मेरा वो सपनो का भारत ।

नीलाम कर दिया बिच चौराहे में
भ्रष्ट इन भ्रष्टाचारियों ने
लुट-मार-क्षीण कर दिया भारत को
भर लिए अपने कोठरे
कैद कर लिया सोने की चिड़िया को
अब ढुढुं तो  कहाँ ढुढुं ?
किसी ने देखा ?
मेरा वो सपनों का भारत
किसी ने देखा ?
मेरा वो सपनों का भारत

स्वरचित- पं भास्कर जोशी

Monday, August 6, 2012

संकट मेरे पहाड़ पर

टूट पड़ा है संकट 
मेरे पहाड़ पर 
न हसने को जी चाहता है 
न खाने को 
सुनी खबर पहाड़ की 
हडबडाहट सी मच गई 
इसे में क्या समझूँ ?
प्रकृति का मार कहूँ 
या हमारी किस्मत 
किसको दोषी समझूँ ?
देव भूमि देवों की 
कहते हैं उत्तराखण्ड
कहाँ गये वे देव ?
जिन्हें पूजा करते 
माष त्यौहारों में 
न दिखा उन्हें 
अपने रोते बिलखते बच्चों को 
कहाँ छुप गये तुम 
सामने क्यूँ नही आते 
क्यूँ कहर ढाते हो 
मेरे पहाड़ पर 
क्यूँ हसी खुसी दुनियां में 
विराम लगा दिया तुमने ।
स्वरचित -पं. भास्कर जोशी

Sunday, August 5, 2012

अपनी भी एक पहचान हो


अक्षर मैं  सोचता हूँ
अपनी भी एक पहचान हो
हर रस्ते पर मेरा नाम हो
जिस चौराहे से निकलूं
उस चौराहे पर मेरा नाम हो
सपने तो खूब देखता हूँ
दुःख तब होता है
जब निराशा हाथ लगती है
हर वक्त तलाश करता हूँ
कोई तो ऐसी खूबी  होगी
जिस से में अपने को पहचान सकूँ
कैसे मैं अपने को साबित करूँ
इस बढ़ते  हुए मुकाबलों का
इस धरा पर भटक रहा हूँ
अपनी पहचान बनाने को
हर राह पर अटकलें हैं
मंजिल भी धुंधली दिखती है
कौन सा राह पकडूँ ?
जिस से मुझे मेरी पहचान बन जाये
जिसमें  मुझे मेरी मंजिल मिल जाये ।
स्वरचित- पं. भास्कर जोशी

Wednesday, August 1, 2012

में करूँ तो क्या करूँ


में करूँ तो क्या करूँ
जब भी कुछ करना चाहूँ
बंधाएं आन पड़ती हैं
जब भी भला करने की सोचूं
तो अक्षर बुरा बन जाता हूँ
हर बार की तरह
इस बार भी सोचा
एक नेक काम कर लूँ
पर अर्चने
रास्ता रोक लेती हैं
कैसे निजात पाऊं
इन दुविधाओं से
आँखों से आसूं
मन में चुभते बातें
अंगारों की तरह
लिपटते हैं जहन में
कैसे छुटकारा दिलाऊं
स्वरचित - भास्कर जोशी
 

गेवाड़ घाटी