Thursday, December 31, 2015

2015 जान जाने कैगो

घूम फिर बे आजि जनवरी ऐगो
नई सालक 2016 कलेंडर दिगो।
2015 जान जाने कैगो
भुलिया झन याद करने रया कैगो।

साल भरक गणना करिया
के भूल चूक हैगेछि याद करिया।
2016 में गलती झन दोहराया
यस 2015 कलेंडर कैगो।

आपणा कें याद धरिया
फोन-सौन-ठोंन करने रया
हंसिया-खेलिया, द्वड मौट है जाया
यस 2015 कलेंडर कैगो।

बुजुर्गों सेवा करला, आशीर्वाद फई जो
दिन दुगुण, रात चौगुण तरक्की करो।
ईजा बौज्यु सेवा करो
यस 2015 कलेंडर कैगो

जान जाने त म्यर नसीहत याद धरिया
सब आपणे छिं ककेँ दुःख झन दिया
ख़ुशी द्यला, खुश होला, बरकत ह्वेली।
यस 2015 कलेंडर कैगो। -प.भ.जो.पागल

Tuesday, December 29, 2015

मेरी ठेकुली



कुमाउनी गीत

म्यर बाना मधुली मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,
काँ हरे गेछे मेरे ठेकी
ठिकुली ठेकी,

वार चायो, पार चायो
नि देखि तेरी गौर-फनार मुखडी,
तिगणि चान चने म्यर कमरे पड़गे टस्की
ठिकुली ठेकी,
कपन अलाषी रछे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

धात लगौन लगौने मेरो
गौवा यो चिरोडी गो
पट्ट लेसी गे मेरी अवाजा
ठिकुली ठेकी,
को कुण लुकी रछे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

वल कुड़ी पल कुड़ी
धुरकिणे में रेंछे तू
एक जगां नि टिकनि तेरी ठौरा
ठिकुली ठेकी,
धूरका-धुरूक कहाँ हैरे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

गांव और पलायन का रोना धोना


गांव-गांव नही रहे अपितु खँडहर हो गये। जी हाँ आप बिलकुल सही समझ रहे हैं। भारत के अधिकांश गांवों की कहानी कुछ यही कहती हैं। पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लकर दक्षिण तक के गांव ख़ाली होते जा रहे हैं। गांवों में लोग रहने को तैयार नही हैं। सभी शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। भले ही शहर के एक कोने के एक कमरे में भेड़ बकरियों की तरह घुट कर जियें, लेकिन रहना शहर में ही है।

गांव की सुन्दर प्राकृतिक हवा, पानी को छोड़, शहर के प्रदूषण में रहना अपने को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं लेकिन गांव में वे अपने को असहाय समझने लगे हैं। एक दूसरे की देखा देखि में बाकि गांव के लोग भी गांव छोड़कर शहर की ओर रुख कर रहे हैं गांव में बने आलिशान महलों को खँडहर बनाने के लिए छोड़ रहे हैं ।

पलायन की गर बात करें तो सबसे अधिक उन राज्यों पर पड़ा है जहाँ अभी तक सुख सूविधा के लिए लोग वंचित हैं, विशेषकर उत्तराखंड, हिमांचल पहाड़ी क्षेत्रों के अलावा बिहार, छतीसगढ़, झारखण्ड जैसे राज्य पलायन का रोना रो रहे हैं। पलायन का दर्द क्या है यह उन गांवों में जाकर उन खंडहारों से पूछना पड़ेगा कि ऐसी दुर्दशा किसने, कैसे और क्यों हुई? ख़ाली खंडहर घरों में बताने के लिए तो आपको लोग मिलेंगे नही, हाँ आपको वहां के घर, वहां के पेड़, पौंधे, हवा, पानी आपको एहसास जरूर करायेगी की इनके साथ पराया जैसा बरताव क्यों हो रहा है।

अगर मैं ये कहूँ कि यह सिर्फ पलायन की मार एक गांव या एक क्षेत्र का है तो यह गलत होगा क्योंकि यह अधिकांस भारत के अन्य गांवों के साथ अन्याय होगा, जो पलायन की चपेट में आकर रोना रो रहे हैं। यही बात अगर उत्तराखंड की करें तो पिछले एक या दो दशक से पहले गांव अपने अच्छे खासे हालत में थे। एकाएक उनके साथ ऐसा क्या हुआ कि गांव के गांव खाली होने शुरू हो गए? इस प्रश्न पर मंथन करना बहुत जरुरी है।

200-300 परिवारों का एक गांव में आज सिर्फ गिने चुने 30 या 40 परिवार ही रह गए हैं बाकि के शेष परिवारों के घरों में ताले लटके हुए हैं। जो व्यक्ति गांव में रहा है जिसने गाँव को जिया है वह  घरों की ऐसी जरजर हालत देख एकाएक आँखों से आँसुओं की धार को रोक नहीं पाएंगे। गांवों की हालत यह है कि जो परिवार जैसे तैसे अपना जीवन गांव में बिता रहे थे, आज वे भी अपने घरों के केवाड़ में ताला लगाने को मजबूर हैं। वे भी शहर का रुख कर रहे हैं। कई घरों की हालत इतनी बत्तर हो चुकी है कि कभी भी टूट कर गिर सकते हैं। हाल यह है कि उन घरों की देख रेख करने वाला कोई नही।

अब भी  गांव में बचे कुछ लोग अपनी किस्मत आजमा रहे हैं इसी आस पर कि कोई तो उनकी सुध लेने को आएगा।वे लोग अपनी निर्धनता के कारण गांव नही छोड़ सकते हैं, उनके पास इतना पैसा नही है कि वे लोग शहर जाकर रह सके । कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होने अपना पूरा जीवन बचपन से लेकर जवानी और अब इस बुढ़ापे तक का जीवन गांव में रहकर ही जिया है, अब अंत के दिनों में वे अपने गांवों में ही रहना पसन्द करते हैं। वे लोग नही चाहते कि इस उम्र में शहर जाकर घुटन की जिंदगी जिया जाय। उनका कहना यही है कि अब मरेंगे तो अपने गांव में, शहर की चकाचोंध तुम्हें ही मुबारक ।

कुछ लोगों का गांव में रहना मजबूरी सी हो गयी है। ये वे लोग हैं जो सरकारी कर्मचारी हैं जैसे-शिक्षक, वन विभा व अन्य सरकारी संस्थानों के कर्मचारी हैं। इनमें कई सरकारी कर्मचारी ऐसे है जो अपने गांव में रह तो रहे हैं लेकिन उनके बच्चे, उनका परिवार शहर में रह रहा हैं जिस दिन इन्हें छुट्टी मिलती है उस दिन ये अपने परिवार के साथ छुट्टी बिताने चले जाते हैं। या यूँ कहिये ये लोग सिर्फ अपनी नौकरी-पेसे के लिए गाँव में रह रहे हैं।

गांवों में रहे-सहे कुछ ठेकेदार कुछ नेता बिरादरी के लोग जो कि गांवों में अपना फन फैलाए बैठे है। जो लोग गांवों से पलायन कर गए हैं उनकी जमीनों पर इनकी टेडी नजर हैं उन जमीनों से पत्थर मिट्टी जो हाथ लगे बेच रहे हैं कोई रोकने टोकने वाला नही। जैसा चाहे वैसे मनमाने तरीके से फल फूल रहे हैं। बैठे बिठाये करोड़ों का माल अन्दर बहार हो रहा है।

आज वे ही लोग गांव में रह रहे हैं जिनकी या तो मजबूरियां रही होंगी या फिर वे लोग जिनका धंधा-पानी अच्छे से फल फुल रहा हो। बाकि बचे गांव के लोग पलायन कर गए हैं, कई और गाँव के लोग पलायन करने की तैयारी में हैं। गरीब परिवार गांव छोड़ने पर मजबूर हैं गांव का जीवन कष्टदाई तथा दूभर होने लगा है। आस-पड़ोस के खाली घरों को देखकर उनका जीवन खाली खाली सा लगने लगा है गांवों में एक कहावत अक्सर कही जाती है “खाली घर और खंडहर भूतों का घर होता है”। गांवों का यह हाल देख कर बाकि के लोग अब छोटे छोटे शहरों में, जहाँ चंद लोगों का जमघट हो, वहां रहना उनके लिए एक मात्र विकल्प बचा है |

        गांवों से पलायन की अगर बात करें तो वर्ष 1991 से 2001 के बीच 7 करोड़ 30 लाख ग्रामीण अपने मूल-निवास स्थान से कहीं और जाने के लिए विवश हुए हैं। इसमें से अधिकतर 5 करोड़ 30 लाख ग्रामीण किसी अन्य गांव में जाकर बसे हैं, जबकि एक तिहाई से भी कम याने कि 2 करोड़ के आसपास ग्रामीणों ने शहरों का रुख किया। यदि 1991 से 2001 के बीच का निवास-स्थान को आधार माने तो 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा, जोकि देश की जनसंख्या का 30 फीसदी है। प्रथम जनगणना 1951 के समय में ग्रामीणों की आबादी 83 प्रतिशत एवं शहरी 17 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना में यह गांवों में घटकर 68 प्रतिशत और शहरों में बढ़कर 32 प्रतिशत हो गयी।पलायन का एक कारण यह भी रहा कि गांवों के कुटीर उद्योगों का पतन, भूमि हीन किसान, ऋणग्रस्तता, सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा का पतन। शिक्षा व्यवस्ता पर एक नजर डालें तो  हाल यह है कि न स्कुल हैं न ही पढ़ाने को टीचर। भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है बहार की दुनियां क्या है, कैसी है इन सबसे वे लोग बेखबर हैं। कई गांवों का हाल कुछ अजीबोगरीब है। सरकारी योजनाओं के तहत सरकारी स्कुल खोले तो गए हैं लेकिन उन स्कूलों में  पढने के लिए बच्चे  हैं मगर टीचर नही हैं। कई स्कूलों में हालात ऐसे भी देखने को मिले हैं जहाँ एक टीचर है और पढ़ने के लिए 2 बच्चे। कई गांव में और भी बुरा हाल है  पढ़ने के लिए न ही बच्चे हैं न ही टीचर। सरकारी योजना के तहत जहाँ-तहां स्कुल खोल दिये हैं मगर   उन  गांव के लोग उस स्कुल को बाराती घर के रूप में प्रयोग करते हैं। कुलमिलाकर शिक्षा व्यवस्था एक दम चौपट है।

         वहीँ  दूसरी तरफ कुटीर उद्योगों पर नजर दौडाएं तो हालात और भी बुरे हैं। ग्रामीण लोग आजीविका के लिए दर दर भटक रहे हैं यदि गांवों में छोटे-छोटे कारखाने, उद्योग वगैरह आजीविका के लिए काम मिल जाता तो पलायन की इतनी बढ़ी समस्या उत्पन्न नही होती। राज्य व केंद्र सरकारों से मदद भी अगर मिली होती तो थोड़े बहुत कुटीर उद्योगों से ग्रामीणों का जनजीवन सुचारू रूप से चलता रहता पर ग्रामीणों के उद्योगों पर सरकारों ने कभी ध्यान दिया ही नहीं। वहीँ केंद्र सरकार स्मार्ट सिटी के नाम से  विकास के नाम पर दम ख़म भर ही है। अगर सही।माइने में सरकारें विकास करना चाहती हैं तो पहले गांवों से छोटे छोटे कुटिर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा।तभी देश की आर्थिक स्थिति और मजबूत होगी।साथ ही इस तरह के पलायन से सांस्कृतिक संघर्ष को तो जन्म देती ही है बल्कि नैतिक मूल्यों का भी अवमूल्यन होता है। गांवों में रोजगार के वैकल्पिक अवसरों का आभाव है। उच्च शिक्षा के प्राप्ति के लिए भी हमारे देश में पलायन का मुख्य कारण रहा है पलायन का एक मुख्य कारण भी रहा है, वह है सामाजिक विषमता तथा शोषण। बहरहाल वजह कोई भी हो लेकिन सीमा से अधिक पलायन हमारे सामाजिक तथा राष्ट्रिय तानेबाने के लिए हानिकारक हो सकता है।

धरती माँ

प्यारी सी
दुलारी है वो।
नटखट सी
खिलखिलाती है वो
हंसती है तो
जग को महका देती है  वो
खेलती है तो
संग प्रकृति भी ठुमके लगाती है।
रोती है तो
जग में तांडव मचा देती है वो
छेड़े गर कोई उसे तो
आग के गोले बरसा देती हैं वो
पूजा करे उसकी कोई तो
खनिजों का अमबार लगा देती है वो।
खंजर घोंपे अगर कोई तो
खाक ए सुपुर्द कर देती है वो ।
देख भाल करें उसकी तो
सीने से लगाकर स्वर्ग की अनुभति करा देती है वो।
ऐसी ही है मेरी
प्यारी सी दुलारी सी
नटखट सी मेरी धरती माँ। 

हमका भी कुर्सी देई दो

एक मौका हमका भी
एक बार कुर्सी  हमका भी
कब से है सत्ता की भूख
बस एक मौका हमका भी देइ दो

पंदर बरस से प्यासे हैं
भूख भुझी न प्यास भुझी
फिरभी मौके के जुग्गत में हैं
बस एक मौका हमका भी देइ दो

एक बैटिंग करे दूजा करे फील्डिंग
हम मुक दर्शक बन बैठे बाउंड्री पार
सीख गए देखा-देखी हम भी बैट पकड़ना
बस एक मौका हमका भी देइ दो

कभी बीजपी कुम्भ घोटाला करे
तो आपदा कोष खाये कांग्रेस
उसकी गोद में हम बैठे जिसकी चले सरकार
बस एक मौका हमका भी देइ दो

अब तो फिट हैं हम भी दौड़ में
दौड़ेंगे जी जान लगाकर
पक्ष विपक्ष जो मिल जाए
बस एक मौका हमका भी देइ दो।

उत्तराखण्ड देन है हमारी आंदोलन की
हमारे संघर्षों का परिणाम है उत्तराखंड
एक बार कुर्सी हमका भी चाहिए
बस एक मौका हमका देई दो।

Thursday, December 24, 2015

बखते की बलें

बेई ब्याव में दगडीए दगै ब्योली देखें जैरछी। दगड में दगडीएक इज लै छी । दगडीए इज ब्योलि परिवार थें सवाल जवाब पूछने कछा-
दगडीए इज -के के कारोबार कर लीं तुमर चेली ।
ब्योली इज- घरपनक कम कर लीं पै।
बरक इज -खां पाकुण आंछो नि आन ।
ब्योली इज- रसोई में तो कम जें पै उसी अटक-बिटक में काम करनें छू
बरक इज- और के के काम शिखी छू तुमर चेलिल ।
ब्योली इज- सिलाई और कंप्यूटर कोर्स करी छू येल।
(मैं बहुत देर बटी उन लोगों बात गौर हैं बे सुनणोयी कछा। मन मन में हैन्सी ले उणेछी। चलो बात-वात सब पक्की है गेई। म्यर दगडी म्यर मुख चाही होय कि पागल ज्यू जी के कौल आपण राय साय द्याल। मी मन मन में हंसण रौछी। दगडी कणी संका है पड़ी की पागल ज्यू हैंसण किले रेई )
दगडी - पागल ज्यू के बात है गे तुम किल हैंसण छा
मैं - कुछ ना यार बस इसके हैन्सी उणे ।
दोस्त - फिर ले के बात हैगे ब्योलि में के खोट तो नहा
मैं - अरे यार तस के बात निछ । बस मी तो जो पूछ ताज चल रछि बस वी सोचण छी कि भविष्य में कुछ अलग माहौल हुणि छ बस वी कल्पना करण छी ।
दगडी - कस माहौल पंडितज्यू ?
मैं - ऐल बर जाणेयी ब्योली देखेहें कुछ सालुं बाद चेली एँल बर देखें हैं तै। तब चेली-बेटी सब नौकरी वाल हैंल और च्याल उभें बेरोजगार। आई तक च्याल करांक ल्यूणेयी बरयात बाद में चेल करांक ल्येन । उ टाइम पर जब चेली करांक बर कें देखेहें जैंल तब चेली तरफ बटी पुछेंल बर वाहुं सवाल जबाब -
चेली तरबे - के के कारोबार कर ल्यूं तुमर च्यल
च्यल करांक- घरपने सब काम कर ल्यूं पे
चेली तरबे - खां बनूण, भाना-कुना, कपड धूंण-धांण कर ली छो तुमर च्यल ।
च्यल करांक- होय सब कर ल्यूं हमर च्यल । सब काम सिखाई छ येल। शिलाई, धुलाई, भाना-कुना, गोर-भैंसुं दूध धुलौंण सब काम जाणु हमर नान। बहुते सिद्ध छ हमर नान के कमी नेह इमी।
च्यल इज -.....तो बात पक्की समझूँ.....
चेली बौज्यु - हो होय यसे बर चैन पड़ रछि हमकेँ ।।
(बर्यातक डिस्कस हूंण भैगो तब बरियात में च्यलॉ कें छेड़ छाड़ दिंल् कबेर कोई नि लिजाल। बरियात में बरेति चेली बेटी हैल्)
च्यले इज- बरियात कदु लाला
चेली बौज्यु - सौ एक हैं जेंल पै।
च्यले इज - शरेबि नानी झन ल्याया । पी खै बेर झकोरा झकोर करनी त।
चेली बौज्यु- नानी ज्वान जबान हाय त उमर में यूँ नि करला तो हम जी के करुल।
च्यलक इज- जे ल कर्ला समाय बे करिया बल । बस हमर यां लौण्ड मौडु कें झन छेड़िया बल।अगर कतिके उंच नीच है गई तो हमर गौं सणि चुप नि बैठो फिर।
चेली बौज्यु - चिंता न करो तस के निहौल हमर तरफ बटी बे फिकर रओ। अछ्या पै हिटणु अब ब्यक दिन मुलाक़ात हेली अब
च्यलक् इज -अछ्या उने रया।
यह पागल भास्कर जोशी द्वारा काल्पनिक सोच है इसे वास्तविक न समझें। और इसे अपने वास्तविक जीवन में दोहराने की कोशिश तो कतई न करें। वरना इसके जिमेदार आप खुद हौंगे।- प.भ.जो.पागल

Monday, December 14, 2015

पहाड़ी व्यंजन बनाने की विधि

1- झोइ बनाने की विधि

पागल पहाड़ी के साथ जाने झोइ बनाने की विधि-
क्या आपको झोइ बनाने की विधि मालुम है?
अगर नही है तो जरूर जानें -
झोइ बनाने के लिए सामग्री में छांछ, लहशन, मेथी, एक जड़ मू, और थोडा गेहूं का आटा और कच्चे हरे धनिये के पत्ते।
कढ़ाई को चूले में चढ़ाएं गरम होने पर दो चमच्च तेल डालिये, जब तेल गरम हो जाए तो मेथी का तड़का लगाईये।मेथी जब हल्का लाल हो जाये तो लहशन के के टुकड़े डालिये इसे भी हल्का लाल होने दें ।
 अब चूले की आंच धीमा कर नियमानुसार आटे को हलकी आंच में हल्का भूरा होने तक भून लीजिये। जब आटा भून जाये तो आपको आटे की पकने की महक सुनैंन-सुनैन खुशुब आने लगेगी। आटा भून जाने के बाद सामग्री के अनुसार छाछ डाल दीजिये। नियमानुसार हल्दी, हरी मिर्च, और नमक का प्रयोग करें,
अब आपके पास एक मूवक जड़ बचा है उसे साफ कर उसके चार बड़े बड़े पीस बनाइये। उसके बाद सिलबट्टे में लेजाकर मू के टुकड़ों को थेच् दीजिये, अब उसे उबलते हुए झोइ में डाल दीजिये। झोइ को अब कम से कम 15 मिनट तक पकने दें। 15 मिनट में आपकी पहाड़ी स्पाइसी झोइ तयार। तैयार होने के बाद अब अंत में कच्चे हरे धनिये को बारीक़ काट कर उसे झोइ में ऊपर से डाल दें । और यह आपकी स्पाइसी पहाड़ी झोइ तैयार।
नोट: कई लोग गेहूं के आटे की जगह बेशन का उपयोग करते हैं जबकि बेशन से वह कड़ी या फिर बेषणक डुबक बनते हैं और आपको शुद्ध पहाड़ी झोइ बनानी है तब ऐसे में बेशन का उपयोग कदापि न करें । -पं. भास्कर जोशी

2- गुड़ झोइ बनाने की विधि 

ठण्ड बहुत है कुछ दिन में और ठण्ड बढ़ने की उम्मीद है ऐसे में गुड़ झोइ मिल जाए तो आनंद आ जाये। ठण्ड के दिनों में यह बहुत कारगर होती है अथवा गरम होती ही साथ ही ताकतवर भी।
पागल पहाड़ी के साथ जाने गुड़ झोइ बनाने की विधि-
सामग्री- 100 ग्राम घी, 200 ग्राम गुड़, 50-70 ग्राम गेहूं का आटा, भुजकोर, लोहे की कढ़ाई, कितोलि, डाडू, पणियाँ,
चूल्हे पर विशेष ध्यान दें इसके बिना गुड़ झोइ नही बन पायेगी।
बनाने जी विधि- गुड़ को थोडा भुजकोर में कोर लीजिये, फिर उसे कितोलि में दो गिलाश पानी के साथ डालकर चूल्हे में चढ़ा दें। ध्यान रहे चूले के निचे आग भी जलनी चाहिए । कुछ ही देर में आपका गुड़ पिघल जायेगा। 5 मिनट उसे और पकने दें उसके बाद उसे उतारकर कुछ समय के लिए अलग रख लें।
अब आप कढ़ाई को चूल्हे पर चढ़ाएं । 100 ग्राम घीं कढ़ाई में डालें, घीं को थोडा गरम होने दें। अब गैंस या चूल्हे की आंच थोडा कम कर दीजिये। कढ़ाई में मात्रा अनुसार 50-70 ग्राम गेहूं का आटा डालें। ध्यान रहे आटे की मात्रा अधिक न हो नतर पिसियक हल्लू बनजायेगा। हल्की आंच में पणियां से बराबर आटे को हिलाते रहें जबतक वह ललांग-ललांग न हो जाए याने की हल्का भूरा रंग। जब ऐसा होगा तब उसकी सुनैंन सुनैन खुशबु आपतक आने लगेगी।
अब आपने केतली में जो गुड़  पकाया है उसे पके हुए आटे में मिला लीजिये। डाडु से उसे थोडा तेज हाथ चलायें नही तो ढ़िन बनने की अधिक संभावनाएँ होती हैं ध्यान रहे उसे अधिक गाढ़ा न होने दें जरुरत पढ़ने पर थोडा पानी और बढ़ा सकते हैं आपको गुड़ झोइ  को पीने लायक बनाना है जिसे घुटुक मारकर पिया जा सके। पानी डालने के बाद उसे 10 मिनट तेज आंच में पकाएं। और अब आपकी गुड़ झोइ बनकर एकदम तयार है।
इसी तरह आप मडुवे की बाड़ि भी बना सकते हैं -
मिलते रहेंगे अगले पकवान के साथ एक पहाड़ी भूले विसरे व्यंजन लिए- पं. भास्कर जोशीपागल


3-भट के डुबुके

पहाड़ी भट्ट के डुबुके बनाने की विधि
कल सन्डे याने इतवार का दिन है भट्ट के डुबुके खाने हौं तो आइये जाने पागल पहाड़ी के साथ भटक डुबुक और भात बनाने की विधि|

सामग्री :- चार मुट्ठी पतले भट, दो मुट्ठी चावल, दो छोटे डाडू तेल, मेथी दाना, हल्दी, मिर्च, नमक, हरा धनियाँ, कढाई, डाडू इत्यादि

महत्वपूर्ण बात : चूले का विशेष ध्यान रखें इसके बिना पकना असम्भव है गैंस बराबर चैक कर लें आधे में हाथ रुकना डुबुके में खलल उत्पन्न हो सकता है|


बनाने की विधि : परिवार अनुसार पतले भट (चार मुट्ठी भट) शाम को सोने से पहले भीगा दें, यदि पतले भट न भी हो तो ऐसे में मोटे गोल वाले भट को ही भीगा लें,  उसी के साथ दो मुट्ठी चावल भी भिगाने डाल दें, रात्ती पर बेर्रे उठकर सिलबट्टे में पीस लें | ध्यान रहे मिक्सी का प्रयोग कतई न करें, सिलबट्टा न हो तो एक दिन के लिए मुझसे ले जाएँ, बाद में वापस भी कर देना ठहरा, वैंच -पेंच ठहरा हो|भट को पीस कर किसी एक बर्तन में रख लें जिसमें सारा अटा जाये छोटे बर्तन में रखने पर फोकी जायेगा|

भट पिसने के बाद चूल्हा जलाएं, एक बर्तन डेग या तौली में पानी गरम करने रख दीजिये, पानी गरम हो जाए तो उसे अलग रख दें, अब कढाई को चूले पर चढ़ाएं, फिर कढाई में दो डाडू तेल डालें, अब तेल को थोडा गरम होने दें, गरम होने के बाद  मेथी का तड़का लगायें, अब आपने जो भट पीसे हैं उसे कढाई में उड़ेल दें, उसी के पीछे मात्रा अनुसार पानी भी उड़ेल दें, अब उसे कुछ देर हिलाते रहे, जब तक कि उमाव जैसा न आये|

डुबुक में उमाव आने के बाद चूल्हे की आँच धीमा कर दें, अब मात्रा अनुसार नमक, हरीमिर्च बारीक़ काटकर डालें, और बहुत कम हल्दी बिलकुल नाम मात्र ही डालें| अब उसे हल्की आंच में पकने दें और बीच बीच में हिलाते रहे| नही  तो तली बटी कढाई में ताव लग जायेगा| थोडा बहुत ताव लगने भी दें जिससे कि डुबुके में भाद्याऊ  दूध जैसी खुसबू आने लगेगी तो समझ जाइए डुबुके तैयार है जब डुबुक बन जाए तो हरा धनियाँ बारीक काटकर डुबुके में डाल दें |
अब आपका  स्पाइसी भट के डुबुके तैयार हैं |

दुसरे चूले में अपने परिवार के मात्रा अनुसार रोज की तरह भात पका लें| भात तो आपको पकाना आने वाला ही ठहरा|


4-   मासक चैंस और भात

पागल पहाड़ी के साथ जाने मास की चैंस बनाने की विधि।

सामग्री- साबुत उड़द (माँस), तेल, नमक, हरी मिर्च, हल्दी, जखिया, धनिया, टमाटर, प्याज, घी , हींग, इत्यादि |
बर्तन: कितोली, सिलबट्टा, डाडु, पणीयां, लोहे की कढ़ाई, सिल्वर का डेग आदि|

महत्वपूर्ण बात - चूल्हा चौका की सही से जाँच पड़ताल कर लें, सिलबट्टे को सही से धो लें। आपके घर में संगव बहुत होते हैं , सावधानी जरुरी है। नही तो स्वाद में खलल उत्पन्न हो सकता है।

बनाने की विधि-  परिवार की जनसँख्या अनुसार साबुत माँस लें। और उसे सिलबट्टे में पीस लें। पीसने में थोड़ी कठनाई जरूर होगी क्योंकि क्वर्रे मॉस पीसने में यथाहं उथाहं को भाजने लगते हैं इसलिए हलके हाथ से पहले माँस को दई लें,  फिर उसे पीसें, आसानी होगी। मास को पीस लेने के बाद उसे किसी बर्तन में रखें। अब प्याज टमाटर को बारीक़ काट कर अलग रख दें।

चूल्हा जलाएं । चूल्हे में एक कितोली पानी चढ़ा दें। पानी को उमाय लें। उसके बाद उसे अलग रख दें| अब चूल्हे में कढ़ाई चढ़ा दें। कढ़ाई में तेल डालें। अब पीसी हुई माँस को कढाई में डालें| चूल्हे की आंच धीमी कर पणियां से हलके हाथ खिरोय्ते रहें जबतक की उसका रंग थोडा भुर भुर किसम का  न हो जाए| जब हल्का भूरा हो जाये तो कितोली का गरम पानी मात्रा अनुसार कढाई में उड़ेल दें। डाडू से थोडा तेज हाथ से उसे खिरोयें नही तो ढिन बनने की समभावना होती है | पानी की मात्रा अधिक न हो वरना चैंस छिर्री जस जायेगा | पानी डालने के बाद अब उसे हल्की आंच में थोड़ी देर पकने दें |

इधर दूसरा चुल्हा जलाएं उसमें डेग को चढ़ा दें| डेग में दो चमच घीं डालें, घीं गर्म होने पर जखिये का तुणुक लगायें| जैसे ही जखिया तडबड़ाने लगे तो बारीक कटा हुआ प्याज डाल दें | चूल्हे की आंच धीमी कर दें और प्याज को हलके भूरे होने तक कहूँनते रहें भूरे होने पर टमाटर डालें, डाडू से उसे बराबर हिलाते रहे, टमाटर गल  जाने के बाद दुसरे चूल्हे में चढ़ाया गया चैंस को देखते हुए मात्रा अनुसार नमक, हरी मिर्च, धनियाँ हल्दी डालें, नाम मात्र दो कणिक हिंग लें और उसे डाडू में गर्म पानी के साथ घोल लें, घोलने के बाद उसे मसाले के साथ मिला दें.. मसाला तैयार हो जाने पर उसे माँस की चैंस में मिला दें, डाडू से उसे दो चार बार घुमा दें ताकि मसाले सही से घुल जाए. अब धीमी आंच में पञ्च मिनट तक उसे और पकने दें..अब आपका ठेठ पहाड़ी मासक चैंस बनकर तैयार|

भात रोज की तरह परिवार की जनसँख्या को देखते हुए नियमानुसार बनायें..
हो सकता है मासक चैंस के साथ भात अतिरिक्त खा सकते हैं इसलिए भात के लिए  कितोली में पानी गरम कर के रखें नही रो रस्यार को खुण खुण भान देखने को मिल सकते हैं इसलिए व्यवस्था पहले से बनाकर रखें- ठेठ पहाड़ी पकवान के साथ आपका पागल पहाड़ी
©भास्कर जोशी पागल


अवसरवादी

हरदौल वाणी अख़बार  13-12-2015 के ताजा अंक में प्रकाशित मेरी नई रचन "अवसरवादी" को प्रकाशित करने के लिए संपादकीय आदरणीय श्री  Devi Prasad Gupta श्री जी, भाई Lalit Mohan Rathaur भाई जी का  बहुत बहुत धन्यवाद।
#अवसरवादी
हरदौल वाणी - १३-१२-२०१५ 
जी मैं तो हूँ अवसरवादी
करता हूँ अपनी मनमानी
गधों की पीठ पर बैठ
करता हूँ में सवारी
जी मैं..........
जी मैं खाता बहुत हूँ
पर किसी को खाने देता नही
चाहे वह माल पुए हों
या हो फिर थपड़
जी मैं.......
 जी मैं सुर्ख़ियों में आए दिन रहता हूँ
कैमरा बच नही सकता मुझसे
चाहे वह मेरी नौटंकी से हो
या हो फिर मौफ्लार खाँसी
जी मैं.........
नुक्कड़ नाटक से लेकर जंतर मंतर तक
धरने से लेकर आंदोलन तक
मैंने कुर्सी पाने की जिद्द ठानी थी
जब मिल गयी तो अब खाने की मेरी बारी है।
जी मैं..........पं. भास्कर जोशी
पागल पहाड़ी

Wednesday, December 9, 2015

भारत माँ की संताने

सोमवार 25-10-2015 हरदौल वाणी में प्रकाशित सर्व-धर्म समभाव पर रचित कविता "भारत माँ की संताने" को हरदौल वाणी में स्थान देने के लिए  आदरणीय संपादक श्री जी (Devi Prasad Gupta जी) एवं भाई Lalit Mohan Rathaur जी का बहुत बहुत धन्यवाद।

भारत माँ की सन्ताने

जागो हे जागो, देश वासियों जागो
मेरे हिन्दुस्तानियों, ऐ वतन वासियों जागो
यहाँ न कोई हिन्दू,मुस्लिम, सिख,इसाई,
बढ़कर है हम हिन्दुस्तानी
भारत माँ की संताने हैं हम,
मानवता की एक पहचान बनें

अपनों का रक्त बहाकर,
खुश कैसे रह सकते हैं
मिलकर मनाएं ईद दीवाली,
खेलें खुशियों संग होली
देश भी आपना भेष भी अपना,
फिर काहे अपनों से लडे लड़ाई
भारत माँ की संताने हैं हम,
मानवता की एक पहचान बनें।

याद करो अंग्रेजों की बरबर्ता,
भारत माँ के पूतों को लहू लुहान किया
मिलकर लड़े थे जो अपनों के खातिर,
 उन सपूतो में जाति-पाति का भेद किया
ऐसे वीरों की इस धरती को,
जाति-पाति की बेड़ियों में मत बांधो।
भारत माँ की संताने हैं हम,
मानवता की एक पहचान बनें।

मंदिर-मस्जिद-चर्च-गुरूद्वारे का
हम सब मिलकर सम्मान करें,
आपसी रंजीसें छोडो,
आओ अपनों से नाता जोड़ें।
बांधे थे एक डोरी में हमको,
उस डोरी को और मजबूत करें
भारत माँ की संताने हैं हम,
मानवता की एक पहचान बनें।

मेरा पागलपन

गुण तो सागलों में होते हैं
यह पागल तो अवगुणों की खान हैं ।
गुण होते तो पागल न होता
अवगुण हैं इसीलिए पागल हूँ ।

लक्षण

रंग अगर डाले कोई तो
रंगीन हो लिया करता हूँ
दो बोल मीठा गर बोले कोई तो
शहद पर मधुमखी बन चिपक जाता  हूँ

नजरें चुराए अगर कोई तो
सिसोण झपका देता हूँ
बुरी नजर गढ़ाए गर कोई तो
डांसी ढुंग बरसा देता हूँ

सुन ले ठेकुली तू भी
कब तक आँख मिचोली खेलोगी
पागल हूँ पागलपन की हद्द तक जाऊंगा
हार कभी न मानी थी, न कभी मानूँगा
पागल हूँ जिस कोने में छुपी होगी
उस कोने से ढूंढ़ निकलालुंग 

जोकपाल

आशाओं की आशा
बाबा आशाराम
रामों में राम
बाबा रामपाल
पालों में पाल
बाबा जोकपाल
और जोकपाल के मुखिया
बाबा केजरीवाल
केजरीवाल के दाता
अन्ना लोकपाल।

गेवाड़ घाटी