Saturday, November 30, 2013

कुमाउनी गीत : ठिकुली ठेकी,

म्यर बाना मधुली मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,
काँ हरे गेछे मेरे ठेकी
ठिकुली ठेकी,

वार चायो, पार चायो
नि देखि तेरी गौर-फनार मुखडी,
तिगणि चान चने म्यर कमरे पड़गे टस्की
ठिकुली ठेकी,
कपन अलाषी रछे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

धात लगौन लगौने मेरो
गौवा यो चिरोडी गो
पट्ट लेसी गे मेरी अवाजा
ठिकुली ठेकी,
को कुण लुकी रछे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

वल कुड़ी पल कुड़ी
धुरकिणे में रेंछे तू
एक जगां नि टिकनि तेरी ठौरा
ठिकुली ठेकी,
धूरका-धुरूक कहाँ हैरे मेरी ठेकी
ठिकुली ठेकी,

Thursday, November 21, 2013

मन की जनक्रांति

वह जानता हैं सबकुछ फिर भी खामोश हैं
जिस दिन उसने अपनी ख़ामोशी तोड़ी
उस दिन देश द्रोही, भ्रष्टाचारियों की खैर नही
इंतजार है बस, सही समय का
होगा उस दिन नया सवेरा
मुठी में होगा  वक्त का पहिया
उस दिन अंग-अंग में भडग उठेगी ज्वाला
चुन चुन कर हिसाब मागेगा
हर एक अत्याचार का बदला लेगा
वह जानता हैं ............

Friday, October 25, 2013

देश की गंभीर समस्या

देश में हर ओर तमासा हो रहा,
बेतुकी शोर मचा हुआ।,
कहीं से एक जोर की आवाज उठी,
और लोगों का हुजूम तमासे को खड़ा हो गया ॥

ठग विद्या का प्रचार खूब हो रहा,
आपस में ही ठगना आरम्भ हुआ।
कहीं से इक ठग की आवाज उठी,
और कई ठगों का संगठन-संगठित हो गया ॥ 

लुट-मार-बलत्कार सरे आम हो रहा,
गुनहगार धडल्ले से घूम रहे।
क़ानूनी-हथकंडे का डर-भर रहा नही, 
और बिन भय के कई गुनहगारों का समूह तयार हो रहे।।

नेता देश को दीमक की भांति चाट रहे,
लूटने को हर दिन नई रणनीति बना रहे।
कैसे प्रतिदिन नया घोटाला हो रहे,
और ऐसे ही गद्दार नेता, हर घोटाले को सफल बना रहे।।

कैसी प्रजा है इस देश में,
यह अब तक समझ में न आया ?
जब तक अपने पर आपबीती न होती,
तब तक इन्शान सोया ही रहता ।।

Wednesday, October 9, 2013

घोड़ी दिल्ली जाएगी

कुछ समय पहले की बात है । पहाड़ में एक परिवार लड़की देखने गया था।   लड़के को लड़की पसंद आ गयी और लड़की को लड़का । अब दोनों परिवार  के बिच बातें शुरू हो गयी।
लड़की का पिता :- लड़का कहा जॉब करता है ?
लड़के के पिता :- जी हमारा लड़का दिल्ली में काम करता है।
लड़की का पिता :-लड़का किस कम्पनी में काम करता है ?
लड़के के पिता :-लड़का फलने कम्पनी में काम करता है।
लड़की का पिता :-शादी के बाद हमारी लड़की कहाँ रहेगी ?
लड़के के पिता :-जहाँ हमारा लड़का रहेगा वहीँ आपकी लड़की भी रहेगी।
चलो सब कुछ बात हो गयी कुछ समय बाद दोनों की शादी भी हो ही गयी। अब दोनों लड़का-लड़की,  पति-पत्नी के बंधन में बध गये।
शादी के बाद लड़का दिल्ली जाने को तयार हो ही रहा था कि  उसकी पत्नी ने कहा में भी आपके साथ चलूंगी। अब लड़के को कुछ समझ में नही आया तो उसने आपने माँ बापू जी से पूछा की मैं अपनी पत्नी को साथ ले जा सकता हूँ ?  माँ बापू जी ने कहा अभी तो तुम दोनों की शादी हुई है लड़की ने अभी  हमारी जमीं, खेती,  जयदात नही देखि है  अभी तू अकेले ही जा वरना गांव वाले क्या कहेंगे। लड़का गाँव वालों के भय से अकेला ही  दिल्ली को चला गया और अपनी पत्नी को बोला  छ: महीने बाद  तुम्हे ले जाने आऊंगा। पत्नी परेशान हो गयी। अब उसे घर का सारा काम करना होता है सास ससुर की सेवा साथ-साथ खेतों में भी काम करना पड़ता था जो उसे पसंद नही,  इन सब कामों से वो छुटकारा चाहती थी। छ: महीने बीत जाने के बाद  लड़का वापस आया पत्नी खुश की साफ झलक रही थी की  अब  तो दिल्ली जाना ही है। माँ बापू ने बेटे से कहा बेटा हम भी गांव में अकेले हैं कुछ और दिन बहु को यही गांव में रहने दे हमरी भी सेवा पानी हो जाएगी। बेटा भी क्या करे वह फिर आपने काम के लिए दिल्ली लौट गया।  बहु से अब रहा नही गया। उसे रोज खेतों में काम करना व फिर सास ससुर  की सेवा करनी पड़ती थी जो की उससे रहा नही गया । बहु ने ठान ली की अब दिल्ली जाकर ही दम लुंगी। एक दिन बहु डलिये में कुदाल, दराती ले खेत पर निकल गयी और देख रही थी गाँव का कोई इधर से गुजर तो नही रहा। जैसे ही कोई गांव की एक महिला उस रस्ते से गुजर ही रही थी की बहु ने बिहोश होने का नाटक शुरू कर दिया। बड़ी मुशिकिल से चार लोग खेत से उठाकर घर लेकर आये बहु को पानी पिलाया तो ठीक हो गयी। दुसरे दिन जैसे ही फिर खेत के लिए निकल ही रही थी कि  घर पर ही बिहोस होने का शिलशिला जारी कर दिया। बिचारे  सास ससुर भी क्या करे पराई लड़की जो हुई तुरंत बेटे को घुमाया फ़ोन और सारी बात बता दी। बेटा भी दौड़ते-भागते घर पहुंचा। माँ बापू ने सारा वृतांत बताया की जैसे ही बहु काम करने जाती है यह बिहोश हो जाती  है । बेटा परेशान हो गया। पति  बेचार क्या करे उसे तो पता नही की उसकी पत्नी ये सब dilli जाने के लिए नाटक कर रही है वह घबराकर अपनी पत्नी को डॉ. के पास ले गया डॉ ने सरे चैकप किये पर डॉ को भी कुछ समझ में नही आया,  डॉ ने कहा सायद कमजोरी या कोई अन्दर ही अन्दर इन्हें बात सता रही है डॉ ने एक दवाई की पर्ची और बोल अपनी पत्नी को दवाई समय पर दे देना लड़का भी क्या करे। अपनी पत्नी को घर ले आया। पति के पास छुटियाँ थी नही तीन दिन के बाद उसे फिर वापस जाना था। और पत्नी ने अपना फैसला कर लिया था इस बार साथ जाकर ही छोडूंगी। दुसरे दिन की सुबह हुई  पत्नी खेत में जाने के लिए डलिया पकड़ा ही था कि वह फिर बिहोश होने का नाटक करने लगी। लड़का फिर परेशान हो गया गांव में किसी ने  समझाया की कंही भुत प्रेत का चक्कर तो नही। लड़के ने सोचा सायद हो भी सकता है  उसने उस दिन रात में पूछ करने वाले पुछ्यार का इंतजाम किया। पूछ करने वाला आदिमी जैसे ही अपने आशान पर बैठा की पत्नी ने अपना नाटक फिर शुरू कर दिया और बिहोश हो गयी। होश में लाने के बाद पूछ करने वाले ने  पूछा -
(बहु अपनी नाटक में थी और पूछ करने वाले व्यक्ति इस बात से अंजान था)
पुछ्यार :-  बता कौन है तू ?
बहु:- मैं देवी हूँ
पुछ्यार :- इसे क्यूँ परेशान किया है ?
बहु:- मैं किसी को कोई परेशान करने नही आई हूँ
पुछ्यार :- तो किस लिए आई है
बहु :- सवार घोड़ी दिल्ली जाएगी, दिल्ली जाकर ही घोड़ी ठीक हो जाएगी ये मेरे वचन है
परिवार के सभी लोग बहु को देवी समझ और बहुत का नाटक सही दिशा में जा रहा था।
घर वाले सभी राजी हो गये सभी ने हाँ भर दी कि घोड़ी दिल्ली ही जाये।
अब क्या था गांव में अन्धविश्वास की कमी तो है नही और बहु खुश वारे के न्यारे के न्यारे हो गये ।
दुसरे दिन लड़के को दिल्ली के लिए जाना ही था अब उसे अपने साथ अपनी पत्नी को भी ले जाना पड़ा।
अब सब कुछ ठीक हो गया पत्नी का बिहोस होने का नाटक खत्म हो गया।   गांव में माँ बापू अकेले थे।  बच्चों की याद तो हर किसी को आती ही है जब भी वे अपने बेटे को फ़ोन करते थे तो बहु फिर बिहोशी का  नाटक नाटक कर देती थी कहीं सास ससुर गांव में ना बुलाले और यही शील शिला चलता रहा । क्यूंकि घोड़ी को तो दिल्ली में ही रहना था।
प्रस्तुतकर्ता पं. भास्कर जोशी 'पागल'

Saturday, September 21, 2013

व्यथा पहाड़ की

मैं अपनी व्यथा सुनाऊं तो किसे सुनाऊ
अपनी दर्द के दास्ताँ कहूँ तो किससे कहूँ
तुम सुनने को राजी नहीं और किससे कहूँ
सुनता मेरी कौन है  ।

चारों तरफ सुनसान रास्ते
और सन्नाटे से पसरा पहाड़ है ।
मैं समझाऊं तो किसे समझाऊं
सुनता मेरी कौन है।

जहाँ  चहल-पहल  थी घरों में कभी
आज वे ही घर खण्डहर में तबदील हो गये ।
मैं घर बसाऊं तो किसका बसाऊं
सुनता मेरी कौन है।

जिन रास्तों पर लोगों की भरमार थी कभी
आज उन रास्तों पर जानवरों का डेरा है ।
मैं आवाज दूँ तो किसे दूँ
सुनता मेरी कौन है।

जिन खेतों में लदालद फसल उगती थी कभी
आज उन्ही खेतों में जंगली घास का बसेरा है।
मैं फसल उगा भी दूँ तो किसके लिए
सुनता मेरी कौन है।

आज भी जिन बस्तियों में चन्द लोग दीखते  हैं अभी
वे भी झोला बांध भाभर की ओर चलने को तैयार हैं
मैं रुकने को कहूँ तो किससे कहूँ
सुनता मेरी कौन है।

पलायन पहाड़ से रुकता नहीं
हर एक दिन कई घरों में ताले लग जाते हैं ।
आबाद करूँ तो किसे करूँ
सुनता मेरी कौन है।

जिस पहाड़ ने तुम्हें सहारा दिया
आज उसी पहाड़ को  छोड़ चले तुम।
अकेला पन सहन नही होता मुझसे भी
तुम होते हो तो पहाड़ों में भी जगमगाहट होती  ।
जब तुम ही साथ छोड़ चले मेरा
तो भला मैं किस काम की ।
मैं  कहूँ तो किससे कहूँ
सुनता मेरी कौन है  ।

कास एक बार सुन लेते दर्द मेरा भी
तो सायद पहाड़ इस कदर सुना न होता ।
मैं सुनाऊ तो किसे सुनाऊ
सुनता मेरी कौन है  ।
कहूँ तो किससे कहूँ
सुनता मेरी कौन है  ।

Wednesday, September 11, 2013

लौट चले भारत की ओर

होगा एक दिन
फिर से नयाँ  सवेरा
लौटेगा वह
अपनी संस्कृति-विरासत की ओर
जगेगी नई उम्मीदों  की किरण
फिर से होगी
खुशहाली यहाँ
हर नर-नारी
अपने  मर्यादा में होंगे
लज्जा-शर्म जिनके गहने होंगे
होगा मान सम्मान
हर धर्म जाति  का
फिर से लौटेगा वह
अपनी पूर्व संस्कृति-सभ्यता की ओर
आओ लौट चले भारत की ओर 

Saturday, September 7, 2013

जाग हे ! मानव

जाग
हे !
मानव
उठ  निद्रा  से
कर उदार में
सूरज सा
किरण
ला सवेरा
हिन्द में ।
काल रात्रिनी
निशाचरि
महंगाई
भ्रष्टाचारी
रूप लेकर
है डसने आई ।

Thursday, August 29, 2013

देश की समस्या

लुट लिया है नेताओं ने,
भारत की अपार धन संपदा
फिर भी पेट न भरा सौदागरों का,
अब जनता का खून चूस रही ।

सड रहा  है अनाज गोदामों में
जिसका  कोई सदुपयोग नही
हो रहे माला-माल चोर-लुटेरे
और जनता को अंगूठा देखा रहे ।

किसानो  की कृषि भूमि को
हड़प कर ली देश के दामादो ने
डरा-धमका रहे  बेबस किसानो को
और साथ दे रहे सरकारी मुलाहाजिमे ।

Wednesday, July 31, 2013

पहाड़ भी रोता है

कब-कब  नहीं  रोया पहाड़
हर दिन हर पल हर क्षण रोता है पहाड़

जब तुमने अपने केवड़ पर ताले ठोखे
खेत-खलियानों को बंजर कर डाले
और तुम जिसदिन पहाड़ से प्लायन कर गये
उस दिन भी रोया था पहाड़ ।

विकाश के नाम पर पहाड़ के अंग-अंग में
कुदाल, संभल छैनी सब चला डाला
एक पल भी यह न सोचा
पहाड़ को भी दर्द हुआ होगा
उस दिन भी रोया था पहाड़ ।

पहाड़ के सीने में बांधों का बोझ बांध डाला
फिर एक के बाद एक बांधों का शिलशिला चला डाला
पहाड़ कब तक सहन करता बांधों बोझ
क्रोध से अपने  ही गोद में हजारों का बलिदान चड़ा डाला
उस दिन भी रोया था पहाड़ ।

कब-कब  नहीं  रोया पहाड़
हर दिन हर पल हर क्षण रोता रहा पहाड़ । 

Tuesday, July 30, 2013

म्यर पहाड़ पहाड़ जस निरेगोय
पहाड़ पहाड़ियों कारण बंजर हैगोय
कुड़ी, बड़ी सब बांज  है गयी
धार, नौ ले सब सुख पड़  गयी
म्यर पहाड़ पहाड़ जस निरेगोय -पं. भास्कर जोशी

Thursday, July 25, 2013

पहड्क कौतिक आज ले बार बार याद एँ

आज आपुण पहाड़क म्योल (म्यौव, कौतिक) याद उने। बहुत साल पैलिके बात छ जब हम नान छि लगभग 10 या 12 साल हम लोगुं उमर छि तब ।हमर यां अल्माड जिल में मासी सोमनाथक कौतिक बड़े भरी लागूं, खूब चहल पहल हें यां सोमनथक कौतिक 7 दिन तक चलूँ । हर साला मई मेहण में दोहर सोमवार बटी शनिवार तक यो म्योल लगी रूं। भिड़े मारी ठसा-ठस भरी रौन्छी।  पैली दिन इतवार रात  हैं सल्ट म्यल लागूं, सल्ट बटी नगाण, निशान लिबे मासी में ऊनि रात में खूब नाच गीत हुंची। तब दोहर दिन सोमनथक कौतिक लग्छी। अब जो कौतिक लागूं बेरस, न लोगुं रूचि दिखाई दीं, न कौतिक, कौतिक जस लागूं। आज बटी 10 या 15 साल पैली तक खूब कौतिक्यारों भीड़-भाड़ लाग्छी। तब हम लोग नान्ने भे। घर वाल हमुकें सोमवार दिन कौतिक में जाण निदिछि। सोमवार हें कौतिके रस्म वड घेंटण रिवाज निभौनी हाय ये विल हम लोगुं कें जाण नि दिछि। मंगलवार हैं फिर कौतिक शुरू सब आपुण कुटुम्भ परिवार लिबे 3 या 4  बजी लगभग  कौतिक देखें हिट दिछि। जब हम नान तिन कौतिक में जहाँ तैयार हुन्छी तब सब हमुकें 10 -5 , 10 -5 रुपें सब घर परिवार वाल दिछि। हम लोगुं जेब ठसा -ठस कम से कम 100 -150 रुपें इक्कठ कर लिछी ।  कौतिक जैबर खूब मस्ती करछी जेब में पैंस छने छि जे मन कर से खाय। फिर ले जेब में 20 -30 रुपें बचे बे धरछी कि आजी ३-४ दिने कौतिक छू । जब दोहर बार उल तब खर्च करुल । वे बाद एक दिन छोड़ बे फिर हम कौतिक देख हें हिट दिछि  । उधीन घर वाल हमुकें एक पैंस नि दिछि आपु जेब में जतु डबल छि वी लिबेर कौतिक नहें जनि भाय। अब हम आपु दगडियों दगे तली मली चक्कर पर चक्कर लागूण पे छि उधीन के खाय पी ना किलेकी जेब में 20,  30 रुपें छि खर्च करणे बात नि भे । जब हम मय्ल देखणाय तब एक हमुहेंबे छौट नान आपु इज हें जिद्द करणोय कि मिहें मुरूल खरीद  हम सब दगडी उगें देखिये हाय बहुत देर बटी । छौट नान मुखड में अंशु तहौड नाख़ में सिंगाड़े धार लागी बिच बाजार में डडा- डाड मारी बे अणकसी करी भेय । तब उन छौट नान आपु इज छे कुनो
नान - (थोड जिद्द और  डाड ले दगड में) ओइ क ओइ मीही मुरूल ली ले क 
इज - के हौ किले बौइ रछे भो ल्युल तिहें मुरूल 
नान - ना अल्ले ले 
इज - भो ल्युल को एल डबल निछी 
नान - (गाड़ी रोडक बिच्च-बीच में लम्पसार हैबे) ले मीही आल्ले ले मुरूल नतर में आज घर नि जुल 
इज - (सब लोग देखि भाय छौट  नान और इज कें  इजल चरों तरफ देख बे शर्मे मारी  कै दी ) चल पे चल ली ले मरुल को वाल लिले ।
नान - (खुसी, डाड ले दगड में) हूँ हूँ हूँ यो वाल ल्युल ।
जब छौट नान कै मुरूल मिल फिर उ खुसी हौय फिर उ आपु घर हें हिट दी और  हम लोग ले आपु आपु घर हें चल दी| आज ले उ दिन बार बार याद ऊनि ।
पं० भास्कर जोशी

Thursday, July 11, 2013

पहाड़ सुन्न छू

आज फिर  म्यर पहाड़ सुन्न छू
चारों तरफ अफरा-तफरी मची छू
घर-घर में लोग बिलबिलान हैगिन
गौं-गाड़क लोग घर बटी बेघर हैगिन ।

पाणी ले यस तबाही मचायी
मैसुं कुड़ी-बाड़ी सब समाय लिगोइ
जीवन भरी हांट-भांट टोडी कमाई
पाणी, पाणी जस बह लिगोइ ।

पहाडू पनै मैंस डर-डरान  हैगिन
कभते यो धार कभते पली धार भाजन हैगिन
न जाण  कभे बदल फटो द्यो तौहड़ में
यो सब देख-सुणी  बे पहाड़ लोग डर-डरान हैगिन ।

पाणी ले हमर पहाड़ यस गाज गाडो
बदरी-केदार समसान घाट बड़ेहालो
लोग आपण-आपणा कें ढुंढणी
और पाणी ले पहाड़े कमाऊ पूत बहै हालो ।

आज फिर म्यर पहाड़ सुन्न छू .............

Friday, June 28, 2013

पहाड़ मेरी विपदा

पहाड़ मेरी विपदा में छू
असहाय, लाचार छु
विकाशक  नाम पर
 नेतानु छलावा छू
नेतानुल जाग जागं धन्ध खोली
लुटी  खासोड़ी है पहाड़
 विकाश विकाश नाम पर
नेतानुल बेचीं-खाई  पहाड़

Sunday, June 16, 2013

तू पत्थर का पत्थर ही रहा

ऐसा क्या किया था
जो तूने कहर पर कहर ढाया
मेरे उत्तराखंड पर
क्यूँ विनाश की लड़ी लगा दी
वहां बसे लोगों पर
क्या वहां बसे लोग
तुझे देखाई नही पड़ते ?
 सीधे-साढ़े भोले-भाले, मन के सच्चे
क्या अब इन लोगों की तुझे जरुरत नही ?
पिछला घाव भरा नही कि
फिर तूने घाव हरे कर दिए
रोते बिलखते उन बच्चों कि
क्या उनकी भी ध्वनियाँ
तुझे सुनाई नही पड़ती ?
तिल-तिल तडपा-तडपा कर मारना
लगता है तेरी फिदरत बन गई
ठीक ही कहते हैं तू सोया ही रहता है
हाँ हाँ तू सोया ही रहता है
क्या फर्क पड़ता है तुझे
कोई जिए या मरे तुझे क्या फर्क पड़ा है
तू तो चैन की साँस ले रहा होगा
तुझे ये सब कहाँ दिखाई देता है
क्यूँ तुझे रोते बिलखती आवाजें
सुनाई नही पड़ती
 हमने तुझे कहाँ-कहाँ नही पूजा
निर्जीव पत्थर में भी तुझे भगवान समझकर  पूजा
और तू पत्थर का पत्थर ही बना रहा
तू पत्थर का पत्थर ही रहा  ।

Tuesday, May 28, 2013

बचपन की धुंधली यादें

कितना खुशनुमा था बचपन का पल
हँसता-खिल उठता हूँ उस पल में
याद करता हूँ बचपन को अपने
दुनियां भर की ख़ुशी मिल जाती उस पल में ।

ऐसे ही याद गार लम्हें बचपन के
आज भी याद आते हैं पल-पल में
खो जाता हूँ बचपन के उन पलों में
याद कर जी लेता हूँ पल-पल में ।

आज भी याद है उन दिनों की
स्कुल जाया करते थे हम सभी
तब बस्ता नहीं, झोला होता था कन्धों पर
झोले में होता, कलम दवात और पाटी ।

घर से निकलने से पहले
पाटी पर कोयले से चमक बनाते
दवात में घोल, खडमिट्टी का भरते
छोटी बांस की डंडी से नयाँ कलम बनाते ।

गुरूजी नित्य हमें पढना लिखना सिखाते
स्वर, व्यंजन, गिनती व पहाड़े का ज्ञान कराते
सहपाठी सभी, पाटी में लिखने का प्रयत्न करते
प्रतिदिन गुरूजी हमसे स्वर, व्यंजन का गुणगान कराते ।

गुरूजी की प्यार भरी डांठ से
दहाड़े मार रोदन करने लगते
आँखों से अश्रु के झरने बह उठाते थे
गुरूजी टॉफी देकर शांत किया करते थे ।

खेलते-कूदते स्कुल से घर को आना
खिल-खिलाकर अपने व लोगों को हँसाना
दौड़-भाग कर मित्रों संग मस्ती करना
जिस संग रास न आवे उस संग कट्टी कर देना ।

पेड़ों पर रस्सी लटकाकर झुला बनाना
खेल-कूदने में मित्रों संग मदमस्त हो जाना
दिन हो या रात उसकी की भी सूझ-बुझ न रहती
अपनी बचपन की दुनियां कुछ ऐसे ही थी ।

कैसे भूल सकता हूँ बचपन के उन पलों को
कैसे गुजर गया  बचपन के सुनहरे पल
क्षण भर भी देर न लगी समय बीतने में
कैसे निकल गया बचपन मेरा ?

प्रकृति कुछ ऐसा चक्कर चला दे
फिर से चला जाऊं बचपन में अपने
खिल-खिलाकर अपना व जग को हंसाऊं
नए सिरे से फिर अपना बचपन  जी पाऊं ।

Wednesday, May 8, 2013

अपनापन

जाने अंजाने में ही सही
याद कर लेना हमें
जब कभी भी
जरूरत पड़े तुम्हें
बिन संकोच के
आपना समझकर
कह देना तुम
यह भूल कर भी
मत सोचना कभी
अब भी आपके हैं हम
चाह कर भी कभी
निराश न करेंगे तुम्हें
हमारे दरवाजे
निश्छल-निष्कपट
हर वक्त खुले पाओगे तुम।
तुम अपने थे मेरे
और अपने ही रहोगे
गर गलती से भी गलती
हो गयी हो हम से
बैर मत रखना तुम
एक भूल की सजा
इस कदर न देना
जिससे टूट-बिखर जाऊँगा मैं
अपना छोटा या बड़ा
जानकर मुझको
क्षमा कर देना तुम
क्षमा कर देना तुम  -भास्कर जोशी

Monday, May 6, 2013

बांज कुड़ी

बैठी छी दगडिया खोय में,
कुड़ी हाल देखण छी मैं,
द्वारुं में ताई लागी,
धेइ में पिपौ डाव जामी,
यो छू दाज्यू बांज कुड़ी हाल।

पाखक धुरी मेंजी,
आमक डाव जामी,
पाखक बंधार में,
बानरूं कतार लागी,
भ्यार भतेर नाच लगे राखी,
यस  छू दाज्यू बांज कुड़ी हाल।

के बखत रौनक छी कुड़ी में,
तब बानर नै आदिम रुन्छी यो कुड़ी में,
उखो बगल पर सजाई डाली में,
नान तिन किलकार हौन्छी यां,
आज सन्नाटा छाई रे यां,
यो छू दाज्यू बांज कुड़ी हाल ।

ताल गोठ एक कुण में चुल हौन्छी,
दोहर कुण में भैंस,गोर, बाकर हुन्छी,
धिनाई छल छलाने कोहोड़ी भरी रुन्छी,
दै, दूध, घ्यून बहार लागी रुन्छी,
आज गोर भैन्सुं किल पर ले ध्युड लगगो,
यो छू दाज्यू बांज कुड़ी हाल ।

जब चेली बेटियों ब्या-बरियात हौन्छी,
ईष्ट मित्रों बहार लागी रौन्छी,
पास पडोशी गौ-गाड मदद गार हौन्छी,
मिल झूली बे सबे काम करछी,
कतु भौल माहौल बनी रुन्छी,
आज कस निशार लागी छू यां,
यो छू दाज्यू बांज कुड़ी हाल ।

बार-बार बांज कुड़ी सवाल पुछणों,
कधीन आल उ दिन जब कुड़ी आबाद हौल,
आगन में नान-तिनाक किलकारी गुन्जेली,
गोरु,बाछा, भैंस, बाकर धिनाई बहार हैली,
कब यो बांज कुड़ी, आबाद घर हौली दाज्यू,
कब यो बांज कुड़ी, आबाद घर हौली दाज्यू।

Thursday, May 2, 2013

भारत से इण्डिया

देशी में हाहाकार मची है
जनता सहमी सी दुपक रही है
देश परिवर्तन पर परिवर्तन कर रहा है
और भारत परिवर्तन से  इण्डिया हो गया है

देश में बहुत से बदलाव हुए हैं
कानून में  बदलाव किये गये हैं
भारत देश ऐसे बदला गया है
कि भारत बदलकर इंडिया हो गया है

नारी-नारी को सम्मान मिला
शिक्षा मिली, नारी को बढ़ावा मिला
आज नारी पर एसा ग्रहण लगा
कि भारत, न होकर इण्डिया हो गया

बदलता युग, बदलता समय
नयाँ आयाम होना जरुरी था
भारत देश को इतना बदल दिया गया
कि भारत से इण्डिया हो गया

पूर्व संस्कृति, पूर्व सभ्यता का खण्डन हुआ
नई विदेशी संस्कृति-सभ्यता से जोड़ा गया
भारत देश में न रही शर्म, न रही लज्जा
देखते ही देखते भारत से इण्डिया हो गया ।

Saturday, April 27, 2013

समझे गाँधी को ?

लो भाई सभी चल दिए
गाँधी बनने को
आज गाँधी बनना
कितना आसान हो चला है प्यारे

आज सभी गाँधी बन बैठे
सर पर टोपी पहने बैठे
सत्य अहिंसा का पाठ पढ़ने
कितना आसान हो चला है प्यारे

जिस किसी को देखें
वह सत्य, अहिंसा की बात करता है
जो कभी सत्य को जाना
जो कभी अहिंसा के मूल को पहचाना
फिर भी गाँधी बन बैठा है प्यारे

मैं जानना चाहता हूँ -
क्या समझ गये गाँधी को
कितना समझे सत्य, अहिंसक गाँधी को
गाँधी की राजनीति करना
सत्य, अहिंसा के अभिनय से लोगों को ठगना
ये तो गाँधी नहीं है प्यारे

मन में द्वेष, छल-कपट भरा है
जन भावनाओं से खेल रहा है
हिंसा से मैला तन-मन फैला रहा है
फिर भी अपने को गाँधी कह रहा है
क्या यही गाँधी है ? प्यारे

बंधू, गाँधी तो वह आंधी है
जो सत्य के मार्ग पर चलता हो
अहिंसा पर विश्वास करता हो
जन समूह का शैलब ले खड़ा हो
वही आंधी, गाँधी है प्यारे

जो बना गरीबों का मसीहा
किया जिसने क़र्ज़ अदा माँ धरती का
वही "" से गगन "" से धरती से गाँधी बना
जो लय बनाकर गगन और धरती के साथ चला
उसी का नाम गाँधी है प्यारे

आज यदि सच में गाँधी जी होते
रक्त के अश्रु छलक उठते गाँधी के
सायद फिर गाँधी ये कभी नहीं कहते
मैं गाँधी हूँ प्यारे
मैं गाँधी हूँ प्यारे

Saturday, April 6, 2013

बिखरे बिखरे से


(1) अफशोस है अपने लब्जों से मुझे
      जाने  कितनों के दिल दुखाये होंगे मैंने ।
      जो भी अल्फाज निकले जुबां से मेरे
      जड़ बनकर उगल दिए सारे मैंने ।

(2)   सब लोग  भूल गये हमें जाने कहाँ चले दिए  हम,
       थे तो भू-धरा पर ही फिर भी अनजान हो गये हम ।


(3)  चल रे मुशाफिर चलता जा
      पल भर का आनंद लेताजा
      दुःख- सुख, जीवन का है पहिया
     जिन्दगी की डगर पर हँसते-गाते चलता जा।

(4)- जाते जाते हमें भूल मत जाना
       अगले मोड़ पर हम ही मिलंगे |

(5)    कह कर गए थे वो हमसे 'फिर' मिलते रहेंगे
        अब लगता है कि वो हमें 'फिर' में ही टाल गये।

(6) याद याद आती है उनकी अक्षर गायब रहते हैं
     फिर भी उनके आने का इंतजार हर वक्त करते हैं


(7)  जब कभी भी देखता हूँ उन्हें चेहरे पर मुश्कान खिल उठती है
       देखते हैं वो हमें तिरछी नज़रों से, और  हम  घायल..............।

(8)  मैं जहाँ कहीं भी रहूँ आपको पकड़ क्र रखूँगा
       छुट गये गर आप हमसे फिर आप जैसा न मिलेगा हमें ।

(9)  वो दुपके से आकर कान में कुछ कह गये हमसे
      प्यारी सी अंगडाई ली और हम नींद से जाग गये ।

(10) बहुत हुआ अब तो आ भी जाओ ,
        और कितना तडपाओगे हमको।
        दिन  बीत गया अँखियाँ तरस रही है तुम से
       कब तक यूँ ही आंख मिचोली खेलोगे हमसे ।

(11) अगर मगर की दुनियां ने हमें खूब दिया नाचय
      वाह रे निंदक संवारे हम पर ही खेल आजमाय ।

(12)  दुनियां की इस रेस में, हम भी शामिल हो गये
         हम भागे क्यूँ थे अब भी इस से अनजान है ।

(13) एहसास था हमें तुम लौटकर आओगे जरुर
       मगर आने में तुमने बहुत देर कर दी

(14)  राहों पर चलते चलते
       अक्सर ठोकर लग ही जाती है
       सभल गये तो दुनियां चल पड़ी
      गिर गये तो ये दुनिया और गिर देती है

(15)  वर्षों से ढुंढ रहा हूँ तुम्हें
        बड़ी सिद्दत के बाद दीखे  हो
         बस अब एक कदम दूर हूँ तुमसे ।

(16) सिर्फ एक बार हंसकर, कहकर तो देखा होता
       मैं अपनी जिन्दगी का जीवन, तुम्हारे नाम कर देता  ।

(17 ) बस जाऊं तुम्हारे मदमस्त निहारे इन नैनन में
        फिर एक नीर की बूंद भी टपकने न दूँ इन नैनन से ।

(18) तब लूटकर ले गये भारत की अमुल्य खजाने को लुटेरे
       यह प्रचालन आज भी जारी रखा है इन सफ़ेद सौदागरों ने
        करोड़ों की पूंजी विदेशी सरजमी में जमा कर डाला
        न थके सौदागर भारत के संपत्ति को बेचते-बेचते ।

(19) गरीबी की मार से बिलखता देख उस युवा पीढ़ी को,
        जो दो वक्त की रोटी के लिए दर बदर की सीढ़ी चढ़ता रहा ।
        फिर भी नशीब में न मिलती दो वक्त की रोटी  भूख मिटाने को,
       वहीँ देश के सौदागर नेता चले बयानों से भूख मिटने को।।

(20)  देश के भ्रष्ट नेता चले, भ्रष्टाचार का तलवार लिए । 
      गरीबों की गरीबी मिटा न सके, तो गरीब ही मिटने चले । 

Monday, April 1, 2013

मेरे पहाड़ की वेदना ।

देखता हूँ अपने पहाड़ को
आंखे झलक उठती हैं
मानो ऐसा प्रतीत होता है
कि मेरा पहाड़ मुझ से कहना चाहता है
जो कभी मैं अपने
प्रकृति सौन्दर्य पर
न्योंछावर होती थी
कभी कोयल की
मधुर आवाज से
संगीत का मधुर
गुन गान करती थी
आज वही पहाड़
वीरान पड़ा है
वे बंजर घर जो कभी घर हुआ करते थे
जिसमें बसते थे दर्जन भर लोग
घर में गूंज उठती थी किलकारियां
उन घरों की खिडकियों  से
आवाजें आया करती थी
इस बाखली से उस बाखली तक
अपने घरों की खिडकियों से
आवाज लगाकर
पड़ोसियों से बात किया  करते थे
आज वही घर वही बाखलियाँ बंजर पड़े हैं
मानो ऐसा प्रतीत होता है
आज हमारा पहाड़ रो रो कर
ये एहसास दिल रहा रहा है
तुम बिन में सुना सुना हूँ
तुम हो तो मैं भी हूँ
तुम नही तो मैं कैसे ?
अब भी वक्त है प्यारे
सवांर दे इस पहाड़ को
फिर से हरा भरा बना दे
बस तू ही तो एक सहारा है
अब सहन नही होता
ये वीरान और  सूनापन
अब सब कुछ
तुझपे ही निर्भर करता है
बस बहुत हुआ अब
आ अब लौट भी आ
संवार दे मुझको
फिर से मैं खिल उठूँ
फिर से मधुर स्वर गुन गुना सकूँ
बस यही चाहत है मेरी
अब लौट भी आ
आ अब लौट भी आ ।

Friday, March 22, 2013

फिल्मों के टाइटल से कुछ व्यंग

दिल वाली दुल्हनियां ले जायंगे
नयाँ रास्ता
आपके खातिर
न घर के न घाट के
नयाँ पड़ोशन
नौ दो ग्यारह
हम दिल दे चुके सनम
दिल तो पागल है
घर आया मेरा परदेशी
दाल में कुछ काला है
मैंने दिल तुझको दिया
गरीबों का दाता
पहले नजर का पहल प्यार
शादी कर के फस गये यार
हाँ मैंने भी प्यार किया
क्यूंकि में झूट नही बोलता
तुमको नही भूल पायंगे
कल किसने देखा
तेरी मेरी कहानी
फिर भी दिल है हिंदुस्तानी
भास्कर जोशी

Monday, March 18, 2013

दुर्बलता का भारत


कहाँ जा रहा है
भारत देश हमारा?
कहाँ लुप्त हो रही
संस्कृति हमारी ?
कहाँ छोड़ आये हम
अपनी धार्मिकता ?
आज दिन प्रतिदिन
हाय  मची है चारों ओर
देश में हीनता-दुर्बलता
घटने का नाम न लेती
चौतरफा हडकंप मची  है
 हर नारी आज द्रौपती बनी है
न जाने क्या होगा इस नारी का ?
जिस भारत वर्ष में
होती थी नारी की पूजा
अब  वही भारत देश बना
उसी नारी का लुटेरा
हर नगर चौराहे पर बैठा दुसाशन
ताक रहा असहाय नारी को
राज गद्दी पर बैठा धृष्टराज
बढ़ा रहा है अत्याचारी-दुराचारी को
आज न कृष्ण यहाँ न राम यहाँ
न सूर्यवंशी न चन्द्र वंशी
क्या कोई भी छत्रिय
इस धरातल पर जीवित न रहा ?
लज्जा शर्म से खड़ा
यह  भारत देश हमारा
वह भारत देश न रहा
जहाँ होती थी नारी की पूजा
दीखते थे संस्कार वहां
मिलता था सम्मान वहां
वहीँ बसते थे राम रहीम कृष्ण सदा ।

बस बहुत हुआ

जाने भी दो अब ,
बहुत हुवा  तमासा,
तुम्ही को अपना साझाकर ,
पाया था हमने ।
हमें क्या पता था ,
तुम गैर थे  गैर ही रहे ,
हम तो फ़ोकट में ,
आस बिठाये बैठे थे ।
हमने तो तुम्हें अपने ,
पलकों पर बैठा रखा था ,
ऐसी भी क्या बात हुई ,
जो मेरे सारे अरमान तोड़ दिये।
टूट गया सपना मेरा ,
सोचा था तुम्हें पालिया ,
जब हुआ सच का सामना ,
सब कुछ बिखरा-बिखरा पाया ।

Friday, March 15, 2013

हिटो पहाड़ जूंला (गीत)
























हिटो दाज्यू हिटो भुला, आपुणा पहाड़ जूंला।
बारो मांस रंग-रंगीलो के भलौ मान्युं छा ।

वार डाना पार डाना, हरियाली का छोरा ।
खेती पाती डावा बोटी, कोयले बुलाण कसी।
पितरों की पितर भूमि, म्यर पहाड़ देव भूमि ।
हिटो दाज्यू हिटो भुला, आपुणा पहाड़ जूंला............

ठंडी हवा ठंडो पाणी,बोट्यों की छ्वाणी।
तीज त्यौहार बारो मास, कौतिकों की रन-बन ।
देवों की देव भूमि, म्यर पहाड़  स्वर्ग भूमि ।
हिटो दाज्यू हिटो भुला,आपुणा पहाड़ जूंला............

म्यर पहाड़ डान-काना में, देवी बसी छन ।
दूनागिरी नैनादेवी मनसा देवी, सबे बसी छन ।
देवी-देवताओं कर्म भूमि, उत्तराखण्ड धर्म भूमि।
हिटो दाज्यू, हिटो भुला, आपुणा पहाड़ जूंला............

पं. भास्कर जोशी

Thursday, March 14, 2013

कलम दवात और पाटी


कलम दवात और पाटी,
कितना खुशनुमा था वो पल ,
याद कर अपने बचपन को ,
हंस खिल उठता हूँ ,
उस पल में ,
सारी दुनियां की ख़ुशी ,
मिल जाती थी उस पल में ,
एसे ही कुछ यादगार लम्हें ,
आज भी याद आते  है ,
पल-पल में ,
वो भी एक दौर था ,
जब स्कुल जाया करते थे  हम ,
कंधे में झोला ,
झोले में होता,
कलम, दवात  और पाटी ।

Thursday, March 7, 2013

मेरे कुमाउनी व्यंग


भास्कर के कुमाउनी व्यंग - बेई ब्याव में आपु दोस्त दगै दोस्त लिजी ब्योली  देखें जैरछी। दगड में म्यर दोस्त इज (माँ)  लै छी । दोस्त इज पूछने कछा-

दोस्त इज -के के कारोबार कर लीं तुमर चेली ।
ब्योली इज- घरपनक कम कर लीं पै।
दोस्त इज -खां पाकुण आंछो नि आन ।
ब्योली इज- रसोई में तो कम जें पै उसी अटक-बिटक में काम करनें छू
दोस्त इज- और के के काम  शिखी छू तुमर चेलिल ।
ब्योली इज- सिलाई और कंप्यूटर कोर्स करी छू येल।
(मैं बहुत देर बटी उन लोगों बात गौर हैं बे सुनणोयी कछा। मन मन में हैन्सी उनेय कछा । चलो बात-वात सब पक्की है गेई ।  म्यर दोस्त म्यर मुख चाही होय की पंडित जी हैंसण किले रेई  )
दोस्त - पंडितज्यू के बात तुम किल हैंसण छा
मैं - कुछ ना यार बस इसके हैन्सी उणे ।
दोस्त - फिर ले
मैं - अरे यार जो पूछ ताज चल रछि बस वी सोचन छी भविष्य में कुछ अलग माहौल हौल ।
दोस्त - कस माहौल पंडितज्यू ?
मैं - ऐल चायल जाणेयी ब्योली देखेहें कुछ सालुं बाद चेली एँल बर देखें हैं तब चेली-बेटी सब नौकरी वाल हैंल चाय्ल उभें बेरोजगार और आई तक च्याल करांक ल्यूने बरयात बाद में चेल करांक ल्येन । उभे चेली करांक जेंल बर कें देखेहें ।   तब पुछेंल चेली करांक बर वालुंह -
चेली तरबे - के के कारोबार कर ल्यूं तुमर च्यल
च्यल करांक- घरपने सब काम कर ल्यूं पे
चेली तरबे - खां बनूण, भाना-कुना, कपड धूंण-धांण कर ली छो तुमर च्यल ।
 च्यल करांक- होय सब कर ल्यूं हमर च्यल ।

Tuesday, February 26, 2013

जीवन जीना है

जीवन की पगडण्डी पर
चलना इतना आसन नहीं
हर पग पग पर
मायूसी और कठनाई है
जीने की हर राह
टूटती बिखरने लगती है
स्वप्नों का मंजिल
यूँ ही धरा रह जाता है
मानो जीवन की यही लाचारी है
फिर  सोचता हूँ
क्या यही जीवन जीना है
मायूसी,लाचारी, कठनाई को देख
क्यूँ भागा-भागा फिरता रहता है
है अगर बन ठान्ने  की
मायूसी को हथियार बना
कठिनाई को आसान बना
ना मुड़ना तू फिर पीछे कभी
सतत जीवन जीने का
सुफल सद्गुण राह बना ।

गेवाड़ घाटी