Monday, April 1, 2013

मेरे पहाड़ की वेदना ।

देखता हूँ अपने पहाड़ को
आंखे झलक उठती हैं
मानो ऐसा प्रतीत होता है
कि मेरा पहाड़ मुझ से कहना चाहता है
जो कभी मैं अपने
प्रकृति सौन्दर्य पर
न्योंछावर होती थी
कभी कोयल की
मधुर आवाज से
संगीत का मधुर
गुन गान करती थी
आज वही पहाड़
वीरान पड़ा है
वे बंजर घर जो कभी घर हुआ करते थे
जिसमें बसते थे दर्जन भर लोग
घर में गूंज उठती थी किलकारियां
उन घरों की खिडकियों  से
आवाजें आया करती थी
इस बाखली से उस बाखली तक
अपने घरों की खिडकियों से
आवाज लगाकर
पड़ोसियों से बात किया  करते थे
आज वही घर वही बाखलियाँ बंजर पड़े हैं
मानो ऐसा प्रतीत होता है
आज हमारा पहाड़ रो रो कर
ये एहसास दिल रहा रहा है
तुम बिन में सुना सुना हूँ
तुम हो तो मैं भी हूँ
तुम नही तो मैं कैसे ?
अब भी वक्त है प्यारे
सवांर दे इस पहाड़ को
फिर से हरा भरा बना दे
बस तू ही तो एक सहारा है
अब सहन नही होता
ये वीरान और  सूनापन
अब सब कुछ
तुझपे ही निर्भर करता है
बस बहुत हुआ अब
आ अब लौट भी आ
संवार दे मुझको
फिर से मैं खिल उठूँ
फिर से मधुर स्वर गुन गुना सकूँ
बस यही चाहत है मेरी
अब लौट भी आ
आ अब लौट भी आ ।

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