Tuesday, September 4, 2012

"ठीटों" की याद आज भी आती है

आज भी याद है कैसे भूल सकते हैं बच्चपन । स्कुल से छुट्टी के दिन की प्रतीक्षा करते थे कि रविवार आये । याद है अभी भी छुट्टी का दिन था मैं घर से 7 - 8 कट्टे लेकर जंगल की ओर निकल पड़ा । "ठीट" ढूढने इतना दूर निकल गया की मैं रास्ता भी भूल गया असोज का महिना था जंगल की घास इतनी बड़ी थी की रस्ते का पता ही नही लग पा रहा था  । सोचा पहले जिस कम के लिए आया हूँ वो काम पूरा कर लूँ । ठीटों की तलाश शुरू कर दी, मैं एक रौल (छोटा गधेरा ) में के पास पंहुचा । मुझे इतने ठीट मिल गये तो मैं ख़ुशी से पागल हो गया । अब क्या था जी मैंने कट्टे भरने शुरू कर दिए जितने भी कट्टे लाया था सभी वहीँ पर भर गये । अब चिंता होने लगी में इन्हें कैसे ले जाऊं । फिर थोडा देर बैठकर विचार किया कैसे उपाय निकाला जाय चारों ओर नजर घुमाई तभी मुझे एक चिड के पेड़ में सुखी लकड़ी पर एक टंगी हुई रसी दिखाई पड़ी सोचा ये काम भी कर लूँ मैं फिर उस लकड़ी को तोड़ने में लग गया काफी मुसीबतों के साथ आखिर कार प्रयास सफल रहा में उस लकड़ी को तोड़ने में सक्षम रहा । फिर में उसे उसी स्थान पर ले आया जहाँ पर मेरे ठीटों से भरे हुए कट्टे रखे थे । अब मन थोडा विचलित हो गया मैं डरने लगा क्यूँ की में बहुत दूर निकल आया । कुछ देर सोचने के बात में एक उंछे पत्थर पर चढ़ा और वहां से रस्ते की तलास जारी की । दूर मुझे एक बड़ा सा पत्थर दिखाई पड़ा वो पत्थर में गाय चराते वक्त हमने उसमें खूब खिचड़ी पकाई थी । उसी को लक्ष बनाते हूँ एक कट्टा ठीटे और तोड़ी हुई लकड़ी को घसीटते हुए उस पत्थर तक पहुँच ही गया । सभी कट्टों को उस पत्थर पर इक्ट्ठा कर फिर मैं एक-एक कर आशानी के साथ घर ले गया । आज भी मुझे वो दिन याद आते हैं ।

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