Saturday, September 21, 2013

व्यथा पहाड़ की

मैं अपनी व्यथा सुनाऊं तो किसे सुनाऊ
अपनी दर्द के दास्ताँ कहूँ तो किससे कहूँ
तुम सुनने को राजी नहीं और किससे कहूँ
सुनता मेरी कौन है  ।

चारों तरफ सुनसान रास्ते
और सन्नाटे से पसरा पहाड़ है ।
मैं समझाऊं तो किसे समझाऊं
सुनता मेरी कौन है।

जहाँ  चहल-पहल  थी घरों में कभी
आज वे ही घर खण्डहर में तबदील हो गये ।
मैं घर बसाऊं तो किसका बसाऊं
सुनता मेरी कौन है।

जिन रास्तों पर लोगों की भरमार थी कभी
आज उन रास्तों पर जानवरों का डेरा है ।
मैं आवाज दूँ तो किसे दूँ
सुनता मेरी कौन है।

जिन खेतों में लदालद फसल उगती थी कभी
आज उन्ही खेतों में जंगली घास का बसेरा है।
मैं फसल उगा भी दूँ तो किसके लिए
सुनता मेरी कौन है।

आज भी जिन बस्तियों में चन्द लोग दीखते  हैं अभी
वे भी झोला बांध भाभर की ओर चलने को तैयार हैं
मैं रुकने को कहूँ तो किससे कहूँ
सुनता मेरी कौन है।

पलायन पहाड़ से रुकता नहीं
हर एक दिन कई घरों में ताले लग जाते हैं ।
आबाद करूँ तो किसे करूँ
सुनता मेरी कौन है।

जिस पहाड़ ने तुम्हें सहारा दिया
आज उसी पहाड़ को  छोड़ चले तुम।
अकेला पन सहन नही होता मुझसे भी
तुम होते हो तो पहाड़ों में भी जगमगाहट होती  ।
जब तुम ही साथ छोड़ चले मेरा
तो भला मैं किस काम की ।
मैं  कहूँ तो किससे कहूँ
सुनता मेरी कौन है  ।

कास एक बार सुन लेते दर्द मेरा भी
तो सायद पहाड़ इस कदर सुना न होता ।
मैं सुनाऊ तो किसे सुनाऊ
सुनता मेरी कौन है  ।
कहूँ तो किससे कहूँ
सुनता मेरी कौन है  ।

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