Saturday, May 28, 2016

खंडहर की पीड़ा

जब भी
उन खंडहर
वीरान पड़े
घरों को देखता हूँ
तो उसकी चीखें
सुनाई पड़ती है
दर्द भरी दाँसता
कानों में गूँजती है
बचा लो मुझे
बचा लो।
लड़खड़ाई उधड़ती दीवारें
ठंड गरमी की मार
साल दर साल
इंतज़ार में तुम्हारे
पुकारती, आवाज़
मेरे कानों तक
बचा लो मुझे
बचा लो।
अध मरे हालत में
कंप कँपाती हुई
दर्द के क़हर से
अपने रखवालों को
आवाज़ देती
ओ मेरे लाल
बचा लो मुझे
बचा लो।
कल तक इसी आगन में
बच्चों की किलकारियाँ थी
खेले कूदे, नाचे गाये
मौज की मस्ती थी
शादी की गूँज थी
अपनो का भरा पूरा संसार था
न जाने किस
मनहुस की नज़र लगी
मेरा दामन सूना पड़ गया
घर-घर न रहा
वीरान, सन्नाटे से भरा
बस वही एक अकेली
आवाज देती
बचा लो मुझे
बचा लो।
मेरी "धात"
क्यों किसी के कानों तक नहीं जाती
क्यों उन्हें मेरी पीड़ा का अहसास नहीं होता
मेरी फ़िक्र किसे है
कौन करे रक्षा
कौन मुझ बदनशिब की सुध लेगा
फिर भी वह इंतज़ार में है उसके
कोई तो आएगा
जो उसे संवरेगा
वह आज भी
इंतज़ार कर रही है तुम्हारा ।
तुम आओगे ना!
तुम आओगे!

भास्कर जोशी
9013843459
photo:नेट से डाउनलोड

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