Thursday, May 12, 2016

धूँ धूँ कर जल रहा पहाड़

लो जी आजकल हर मीडिया चैनल पर उत्तराखंड पहाड़ी क्षेत्र फिर सूर्खियों में है लेकिन इसबार राजनीतिक कारणों से नहीं बल्कि आग की वजह से है। इसबार यह आग की लपटें केंद्र सरकार तक जा पहुँची। लेकिन समझने वाली बात यह है कि पहाड़ी क्षेत्रों में यह आग कोई नई बात नहीं है। मैंने जबसे होश संभाला है तब से यह आग हर साल, इन्हीं महीनों में लगती हुई देखी है बल्कि हम उस द्वरान आग बुझाते भी थे। इस गरमी के मौसम में पहाड़ एक बार नहीं जलता बल्कि तब तक जलता है जबतक कि बारिश नहीं होती। यह आग दो या तीन दफ़े भी लग सकती है । और यह हर साल की आग है। लेकिन केंद्र सरकार को इसबर आग दिखाई दी इसबात के लिए ख़ुशी मनाऊँ या दुःख यह  आप ही तय करें।

सबसे मज़ेदार की बात तो यह है कि मीडिया को भी इसबार उत्तराखंड की आग आख़िर कार दिख ही गयी। वरना हर साल की तरह इसबर भी पहाड़ चुपके से धु धूँ कर जल रहा होता। एनडीआरएफ़ की टीम आग को बुझाने में लगी है कुछ हद तक क़ाबू करने में सफल भी रही है लेकिन अबतक आधे से अधिक पहाड़ का हिस्सा जलकर राख हो चुका है। वन कर्मचारी भी बिचारे कहाँ तक बचा पाते हैं गाँव  के बुज़ुर्गों  से अक्सर एक कहावत सुनते हुए आए है "आग और पानी से भला कौन बच पाया है" यही हाल उत्तराखंड पहाड़ी क्षेत्रों का भी है। जब पानी बरसता है तब आफ़त की बाढ़ आती है और जब आग लगती है तो पहाड़ को जलाकर राख कर देती है।

पहाड़ में आग का मुख्य कारण है चीढ ke पेड़। चीढ के पेड़ों का अतिक्रमण होना यह पहाड़ के लिए सबसे बड़ा संकट बनता जा रहा है पहाड़ को उजाड़ने में चीढ के पेड़ों का विशेष योगदान है। वह पानी के जल स्रोतों को तो नष्ट करता ही है साथ ही साथ चीढ के सूखे हुए पत्ते विनाशकरी आग की लपटों को भी जन्म देती है। चीड के पेड़ों से अगर सबसे जादा फ़ायदा किसी को है तो वह है राज्य सरकार को। क्योंकि चीड से निकलने वाला लीसा उनके राज कोष में जाता है लीसे से राजनेता, ठेकेदारों की अच्छी ख़ासी मोटी कमाई होती है। इसलिए भी राज्यसरकार उन चीड के पेड़ों को नष्ट नहीं कर सकती है या यूँ कहें की चीड के पेड़ रहें तो ठेकेदार रहें, नेता रहें  और सरकार फले फुले। एसे में भला इस कमाऊ पूत पेड़ को सरकार नष्ट क्यों करे। भले ही पहाड़ आग की लपटों में जलकर ख़ाक ही क्यों न हो जाए।

अगर पहाड़ में चीड के पेड़ की जगह बाँझ के जंगल बसाए होते तो सायद पहाड़ यूँ आग के लपटों में घिरा ना होता। इस आग की लपटों में ना जाने कितने जंगली जानवर पशु पक्षी जलकर ख़ाक हो जाते हैं। ख़ास बात यह है कि एनजीटी को इतने सालों से पता नहीं लगा कि पहाड़ में आग भी लगती है। कहीं न्यूज़ रिपोर्ट में पढ़ा था कि एनजीटी ने उत्तराखंड और हिमाचल को नोटिश भेज है। तो क्या इतने वर्षों से एनजीटी सोई हुई थी या किसी ने इनकी आँखों में पर्दा डाल दिया था।

यदि एनजीटी सच में पहाड़ को बचाना चाहती है, पर्यावरण को शुद्ध रखना चाहती है तो पहाड़ से चीड के पेड़ों को नष्ट कर बाँज, बुरांश आदि जैसे पेड़ों को लगाना होगा। वरना हर वर्ष की भाँति पहाड़ यों ही धूँ धूँ कर जलता रहेगा। या फिर एनजीटी सिर्फ़ फ़ाइल बनाते रहे। या सिर्फ़ काग़ज़ी कार्यवाही ही करते रहे। क्योंकि जमनी हक़ीक़त तो कुछ और ही कहती है।
भास्कर जोशी
9013843459

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