Tuesday, January 10, 2017

स्वच्छ भारत मिशन पर दो टूक



लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री मोदी जी का वह भाषण तो आप सभी को याद होगा ही। भाषण में उन्होंने कहा था -भारत की गरीब जनता उस गंदगी से बीमार होती है जो आपके घर गली में बिखर रहता है। उस गंदगी से यदि एक व्यक्ति भी बीमार पड़ता है तो एक व्यक्ति बीमार नहीं होता बल्कि उसके साथ उसका पूरा परिवार उस बीमारी की चपेट में आ जाता है। आने वाले 2017 में महात्मा गांधी की 150 जयंती पर भारत को स्वच्छ बनाने का जो आह्वाहन किया था उस आह्वान पर पूरा देश प्रधानमंत्री जी के साथ खड़ा नजर आया, साथ ही वे स्वयं भी बाल्मीकि बस्ती में जाकर झाड़ू फेरते हुए नजर आये।

लाल क़िले के आह्वाहन के बाद भारत की अधिकांश आबादी प्रधानमंत्री जी के उस आह्वाहन से जुटने लगी । एक के बाद एक-एक कर बड़ी हस्तियां जुड़ते नजर आये। यहाँ तक की उन्हें ब्रांडएम्बेस्टर तक बना लिया गया। फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी बड़ी हस्तियां इस अभियान से जुड़ने पर अपने आपको खुशकिस्मत समझ रहे थे। बीजेपी के कार्यकर्त्ता तो दो कदम और आगे बढ़कर आये। वे लोग पहले खुद ही घास पत्ते फैलाते दिखे और फिर उसपर झाड़ू फेरते नजर आये।

यह शिलशिला यही तक नहीं थमा। भारत की कई सामाजिक संस्थाएं जो प्रधानमंत्री के उस स्वच्छ भारत अभियान से प्रेरित होकर गली गली मुहल्ले में जाकर गंदगी को दूर करने में मदद करने लगी। कई युवा साथी अपने मंडली को इकट्ठा कर साफ़ सफ़ाई करने के लिए आगे आए। वह भी इस विश्वास के साथ की भारत स्वच्छता की ओर बढ़ रहा है। आज भी वे लोग इसी जोश से कार्य कर रहे हैं कि कभी तो लोग बदलेंगे, कभी न कभी देश स्वच्छ होगा।

इतना सब कुछ कहे जाने व् सामाजिक संस्थाओं, छोटे छोटे संगठनों के कार्य करने के बाद भी गंदगी ज्यों की त्यों है। पहले दिन समाजिक संस्थाएं व संगठन सफाई करती  हैं तो दूसरे दिन फिर वहीँ गंदगी नजर आती है। इतने लोग आम जनता को सुधारने में लगी हैं फिर भी जनता सुधरती नहीं दिखी। आखिर क्यों ? इस सवाल का जवाब हम सभी को अपने अंदर ढूँढना चाहिए कि हम सुधर क्यों नहीं रहे ?

 हम हमेशा आम जनता की बात कहते पर असल में आम जनता हम ही हैं यह हम भूल जाते हैं। गंदगी साफ करने वाले सामाजिक संस्थाओं की परेशानी का कारण सिर्फ जनता ही नहीं है बल्कि, नगर पालिका व् केंद्र सरकार भी उनकी सबसे बड़ी परेशानी बनी हुई है। क्योंकि कई बार यह भी सुनते हुए पाया गया है कि नगर पालिका के आला अधिकारी उन्हें धमकाते हैं और उनके काम में दख़ल ने देने की सलाह दे डालते हैं। यही शिकायत लेकर जब वे विश्वाश के साथ राजनीतिक पार्टी दफ़्तर में जाते हैं तब पार्टी के लोग उन्हें अपने झंडे तले ही मदद करने की बात कहते हैं साथ इसके कि बिना उनकी पार्टी झंडा लिए वे उनकी सरकारी मदद नहीं करेंगे। ये तो वही वाली बात हो गयी 'रसगुल्ला बनाए कोई और खाए कोई और।

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