Wednesday, February 22, 2017

सार्थक ही उमेश पन्त है

नेकी कर दरिया में डाल का किस्सा तो बहुत सुना है पर आज समाज बहुत बदल चुका है । आज समाज का एक बहुत बड़ा तबका समाज सेवी बनने का ठप्पा लगाने के लिए कोई बड़े मंच के, बड़े नोट देकर उस संस्था से जुड़कर, नौटंकी  समाज सेवी होने दम्भ भरने लगता है। नेकी कर दरिया में डाल का किस्सा अब सिर्फ किताबों लिखा हुवा रह गया है सायद एक या दो लोग ऐसे भी होंगे जो आज भी नेकी कर दरिया में डाल में विश्वास रखते होंगे ।

मैं जब से दिल्ली में आया हूँ बहुत से सामाजिक संस्थाओं से जुड़ा और धीरे धीरे उनसे फिर दुरी भी बनाने लगा। क्योंकि वे अधिकांश संस्थाएं खाउ खुजाऊ देखि। अधिकतर संस्थाएं लोगों से समाज सेवा के नाम पर चंदा लेती है पर जमीनी कार्य एकदम जीरो होता है या कोई बढ़ी संस्था है तो वह अपना पल्ला छोटे छोटे संस्थाओं में बाँट देती है पश्चात् इसके कि सारा योगदान अपने नाम का ठप्पा लगवा देते हैं । इन सबके बीच बहुत से अनुभव प्राप्त हुए।

आज से पांच साल पहले की बात है जब सार्थक प्रयास संस्था के संयोजक उमेश पन्त दाज्यू से मिलना हुवा तब उनका दूसरा वार्षिकोत्सव होना था। धीरे धीरे उनके काम और व्यवहार से परिचित हुवा। दिनों दिन उनकी प्रसंसा सुनने को मिलती रही है ।
सार्थक प्रयास संस्था गरीब असहाय  परिवार के बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की निमित्त से कार्य जो शुरू पन्त जी व् अन्य साथियों ने किया था वह सूरज की किरणों की तरह फैलता गया । शुरुवात वसुंधरा के 40 बच्चों से की थी । फिर यह संस्था आगे बढ़ती गई । चौखुटिया में 60 बच्चों की देखरेख करने लगी।आगे यह परवान चढ़ता गया तो केदारनाथ तक जा पहुंची। केदारनाथ में अभी 20 बच्चों की देख रेख सार्थक प्रयास कर रही है। इसके साथ ही हर साल के आखरी पड़वा पर जब पूरा देश 31st के नाम पर झूम रहा होता है  तब सार्थक प्रयास की पूरी टीम फुटपात पर कंम्बल बांटने निकल पड़ती है। शिलशिला यहीं तक नहीं रुकता।

आपको याद होगा 2013 का वह आपदा का मंजर । तब भी सार्थक प्रयास उन इलाकों में कई किलोमीटर कंधे पर सामान लादकर उन पीड़ितों तक जा पहुंची जहां लोग भूख प्यास से तड़प रहे थे । सार्थक प्रयास के इसी जज्बे को देखकर मेरी भी इच्छा हुई की इनके पीछे पूंछ की लटक जाऊं, लेकिन अभी पूंछ हाथ लगी नहीं परन्तु पीछे पीछे से दगड लगने की कोशिश में रहता हूँ।

पन्त जी को देखकर बड़ा ही ताज्जुब भी होता है कि एक बहु अन्तराष्ट्रीज नौकरी को छोड़ वह ऐसे असहाय बच्चों की सेवा में उतर आये। साथ ही जब भी पन्त जी से बात होती है उनसे मेरा एक ही प्रश्न होता है कि आप कर कैसे लेते हैं? और पन्त जी का एक ही जवाब होता है "अपने लिए तो सभी जीते है पर मजा तभी आता है जब दूसरों के लिए जियें "।  पन्त जी की यह बात मेरे घर कर गयी । पन्त जी के साहस, त्याग, परिश्रम की जितनी भी तारीफ करूँ सायद वह कम होगा।
भास्कर जोशी

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