Sunday, August 5, 2012

अपनी भी एक पहचान हो


अक्षर मैं  सोचता हूँ
अपनी भी एक पहचान हो
हर रस्ते पर मेरा नाम हो
जिस चौराहे से निकलूं
उस चौराहे पर मेरा नाम हो
सपने तो खूब देखता हूँ
दुःख तब होता है
जब निराशा हाथ लगती है
हर वक्त तलाश करता हूँ
कोई तो ऐसी खूबी  होगी
जिस से में अपने को पहचान सकूँ
कैसे मैं अपने को साबित करूँ
इस बढ़ते  हुए मुकाबलों का
इस धरा पर भटक रहा हूँ
अपनी पहचान बनाने को
हर राह पर अटकलें हैं
मंजिल भी धुंधली दिखती है
कौन सा राह पकडूँ ?
जिस से मुझे मेरी पहचान बन जाये
जिसमें  मुझे मेरी मंजिल मिल जाये ।
स्वरचित- पं. भास्कर जोशी

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