Monday, May 11, 2015

किसानों की अनदेखी कब तक

            एक तरफ फसल क्षति के सदमे से किसानों का मारने का सिलसिला जरी है तो दूसरी ओरओर केंद्र और राज्य सरकारें अपनी राजनैतिक्ता को सिद्ध करने के लिए एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाने का सिलसिला जरी रखे हैं । ऐसे में किसानों की सुद कौन लेगा ? एक ओर प्रकृति की मार से फसल की पैदावार नष्ट हो गई तो दूसरी ओर राजनीतिक दलों की अनदेखी। किसान अपना दुखड़ा रोए तो किसके सामने ? केंद्र व राज्य सरकारें यह सब जानते हुए भी किसानों के लिए अब तक कुछ खास नही कर पाई है । 
                   भारत को कृषि प्रधान कहा जाता है और यहाँ की 80 फीसदी आबादी खेतों पर ही निर्भर करती है इसके बाबजूद देश में यह क्षेत्र सबसे पिछड़ा है। किसानों की हालिया रिपोर्ट आने के बाद भी किसानों की समस्याओं पर ध्यान देने की फुर्सत न तो सरकार को है न ही किसी राजनीतिक पार्टी को। पर हाँ उनकी आत्महत्या के मामले में विपक्षी पार्टियों के लिए सरकार पर हमला करने का हथियार जरूर बना है। 
            एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो) के मुताबिक हर 30 मिनट में एक किसान आत्महत्या करता है, यानि अन्नदाता की भूमिका निभाने वाला किसान अब अपनी जान भी बचाने में असमर्थ है। केंद्रीय ख़ुफ़िया विभाग ने भी हल में किसानों की आत्महत्या के बढ़ते मामलों पर एक रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, उसमें कहा गया कि किसानों की आत्महत्या की वजह प्राकृतिक भी है और कृत्रिम भी। इनमे आसमान बारिश, ओलावृष्टि, सिंचाई की दिक्कतों, सूखा और बाढ़ को प्राकृतिक वजह की श्रेणी में रखा गया था, साथ ही कीमतें तय करने की नीतियों और विपणन सुविधाओं की कमी को मानवनिर्मित बताया गया है, लेकिन इस रिपोर्ट में कहीं भी इस बात का कोई जिक्र नहीं था कि आखिर समस्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है!
11 मई 2015 हरदौल वाणी
सरकारी आंकड़ों पर यदि नजर डालें तो किसानों की समस्या बद से बत्तर होती जा रही है। एनसीआरबी के मुताबिक, वर्ष 1995 से 2013 के बीच तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वर्ष 2012 में 13,754 किसानों ने विभिन्न वजहों से आत्महत्या की थी और 2013 में 11,744 किसानों ने आत्महत्या की। वर्ष 2014 मई भी आत्महत्या की दर में तेजी आई है। अंग्रेजी अख़बार 'द टाइम्स ऑफ़ इंडिया' खबर के मुताबिक महाराष्ट्र में ही 1921 किसानों ने आत्महत्या की थी। हालाँकि अभी सरकारी आंकड़ों की रिपोर्ट आनी बल्कि है। न्यूज चैनल बीबीसी के मुताबिक इस वर्ष जनवरी से मार्च तक महारष्ट्र के विदर्भ में अब तक 601 किसानों ने आत्महत्या की है। वहीँ पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने बेमौसम बरसात में कम से कम 35 किसानों की खुदकुसी की बात स्वीकार की थी। बंगाल, राजस्थान, गुजरात,मध्यप्रदेश, और तमिलनाडू का भी यही हल है। इन राज्यों में साल दर साल आत्महत्या के मामले बढ़ रहे हैं। 
              कहने को केंद्र सरकार ने मुआवजे का एलान किया है,पर किसानों को कब और कितना मिलेग यह कुछ समय बाद साफ नजर आएगा। अब तक किसानों की पीड़ा न राज्य सरकारें समझ पाई हैं न ही केंद्र सरकार। ऐसा नही है कि केंद्र सरकार व राज्य सरकारों को पता नही, बल्कि वे लोग संसद सत्र के दौरान किसानों की बात हमेशा से बराबर आवाज उठाते रहे हैं , पर जमीनी हकीकत यही है कि किसानों को कभी सही समय पर उचित मुआवजा नही मिल सका। यहाँ तक की उत्तर प्रदेश की सरकार ने किसानों के साथ 61-62 रूपये का चैक देकर जो मजाक किया है उसकी भी अनदेखी नही की जा सकती। किसानों को लेकर केंद्र व राज्य सरकारें कितनी संवेदनशील हैं यह अभी तक स्पष्ट नही हो पाया है। अगर राज्य सरकारों का किसानों के प्रति यही हाल रहा तो किसानों की आत्महत्याओं की सुर्खियां बनी रहेंगी। रही सही कसर केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर किसानों की कमर तोड़ रही है।
                केंद्र सरकार कॉरपोरेट जगत को जमीं देने के लिए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में नए संशोधन कर लोकसभा में पूर्ण बहुमत से पास कर लिया, अब राज्यसभा में पास करने के लिए बड़े आतुर है। ताकि उद्योग पतियों को किसानों की ज़मीन लेने में किसी भी प्रकार से कष्ट उठाना न पड़े, भले ही किसानों को अपनी पैतृक जमीन से वंचित होना पड़े। जो उपजाऊ जमीन पीढ़ी-दर-पीढ़ी से किसानों का भरण पोषण करते रही अब उसे उस भू-माता से वंचित किया जायेगा। केंद्र सरकार दोगुना, तीनगुना मुआवजा व नौकरी जैसे प्रलोभन देकर किसानों को रिझाने का प्रयत्न कर रही , ताकि किसान अपनी भू-माता को उद्योगपतियों के हवाले कर दें। जो उपजाऊ जमीन किसानों को कई पीढ़ियों से पालती आ रही है और न जाने आगे कितनी पीढ़ियों को पालेगी। तब ऐसे में प्रश्न उठता है कि मुआवजे व नौकरी से किसान अपनी कितनी पीढ़ियों को पाल सकेगी?
                   भारत को सिंचित करने वाला किसान दोराहा पर लटका हुवा है। एक तरफ खाई तो दूसरी और कुआं, यानि दोनों ओर मौत। सरकारें छोटा-मोटा मुआवजा देकर या राहत पॅकेज का एलान कर अपने दायित्व से मुक्त हो जाती हैं। नतीजा समस्या जस की तस बनी रहती हैं और आत्महत्या का चक्र जारी रहता है आखिर अन्नदाताओं के आत्महत्या का सिलसिला कब तक चलता रहेगा?
पं. भास्कर जोशी

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