Wednesday, April 6, 2016

घन्तर-8 : मेलों पर मँडराता संकट पर भीकू दा से प्रेस वार्ता -7

घन्तर-8

मेलों पर मँडराता संकट पर भीकू दा से प्रेस वार्ता -7

क्या भीकू दा आजकल दिखाई नहीं दे रहे। कहाँ व्य्स्थ हैं आप ?

क्या बताऊँ भुला गरमी बढ़ने लगी है कभी कभी तो पारा चार सौ डिग्री से ऊपर चढ़ जाता है। लेकिन यहाँ फ़िकर कौन करे । सभी अपने अपने दाव पेंच लगा रहे हैं पर मत्था अपना गरम होता है वे नौटंकी करते हैं हमें लुभाने की पर नमक मिर्च व जीरे का तड़का लगाए बिना भी नौटंकी में मज़ा कहाँ रहता है ।

असल बात क्या है भीकू दा? आज आप बात को गोल गोल घुमा रहे हैं

भुला बात गोल गोल नहीं घूम रही है बल्कि स्पष्ट है आज पहाड़ों के मेले कौतिकों की महत्त्वता ख़त्म होती जा रही है। इसका कोई एक कारण नहीं है कई कारण हैं जिसके वजह से इन कौतिकों का जड़ से नष्ट होता हुवा दिखाई दे रहा है।

बल भीकू दा लोग तो मेलों को बचाने के लिए रंगा रंग कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं ताकि मेले फिर से जीवित हो सके

आपको क्या लगता है? जिन मूल कारणों से अपने पहाड़ों में मेले किए जाते थे उन मूल कारणों पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है स्पष्ट कहूँ तो अष्टमी नवमी के मेलों में लोग देखने के लिए इस लिए आते । कि जो बलि दी जाती थी उसे देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। अधिकांश पहाड़ के मेलों में पशुबली देकर मेले की शुरुआत होती थी उस बलि को देखने के लिए लोग दूर दूर से आकर मेले का लुफ़्ट उठाते थे साथ ही घर से  जुड़े सामानों की ख़रीद परोख़ करते थे। जबसे पहाड़ों के मेलों में बलि प्रथा बंद हुई है तब से मेलों की रौनक़ ग़ायब है अब आप कहेंगे कि पशु बलि देना क्या ठीक होगा? और मेरा जवाब होता- नहीं। क्योंकि किसी निर् अपराध जीव हत्या करना अच्छा कैसे माना जा सकता है बलि के नाम पर की गयी जीव हत्या पाप का भागी है। बलि नहीं दिए जाने पर उसका स्वागत करते  हैं।

 भीकू दा आपने तो असमंजस में डाल दिया एक ओर कहते हो बलि होती तो पहाड़ों के मिले हरे भरे होते और वहीं दूसरी ओर कहते हो बलि देना पाप है बलि नहीं होनी चाहिए?

आप स्वयं सोचिए पहाड़ों में अधिकांश मेले किस पर आधारित हैं! पशु बलि पर ना। कुछ ही गिने चुने मेले हैं जिनमें बलि नहीं दी जाती हो या फिर समय समय पर उन मेलों में बदलाव किये गया। कई मेले तो एसे भी हैं जहाँ इंसानी ख़ूनी झड़प होती थी आज भले ही उन मेलों में रश्म अदाई की जाती हो। इसलिए जिन मेलों में पशु बलि दी जाती रही हो उसे अचानक से आप रोक दें तो उस मेले का क्या होगा। यह एकदम मेलों का फीका पड़ जाना है। अभी उत्तराखंड के कई मेलों में इसका प्रभाव देखने को मिल रहा है । सरकारें सिर्फ़ अपनी वाह वाहि बटोरती हैं। हर बार की तरह एक ही बयान आता है कि मेले व संस्कृतियों को बचाने के लिए हम प्रयासरत हैं। क्या किसी ने सरकार या एम पी, एम एल ए से सवाल पूछने की कोशिश की । कि अब तक आपने कितने नए मेलों का आयोजन किया या कितने मेलों  में भागीदारी की। उत्तराखंड के मेले जो अभी तक बचे हुए हैं वह स्थानीय लोगों की बदौलत  बचे  हैं जो सांस्कृतिक कार्यक्रमों व सेलेब्रेटियों को लाकर रंगा रंग कार्यक्रम करवाकर जैसे तैसे मेलों में जान फूँक रहे है। वरना आज पहाड़  के मेले अपना अस्तित्व  खो बैठते । ऊपर से गाँवों का ख़ाली होना घरों  में ताले लटकना दुर्भाग्य है पलायन की चिंता ......?

जारी है भिकूदा के साथ प्रेस वार्ता अगले सवाल जवाब के साथ
भास्कर जोशी पागल
9013843459

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