Tuesday, May 5, 2020

पलायान की घर वापसी

प्रवासियों के लिए आसान नहीं होगा, गांव में जिंदगी जीना।
कई दशकों से उत्तराखंड का पलायन का दंश झेल रहा था। लेकिन दो दशकों से लगातार पलायान की रफ़्तार में दुगनी बढ़ोत्तरी देखने को मिली। घर, बड़ी बड़ी बाखली खाली होने लगे थे। आलीशान घरों में ताले लटकाने की दौड़ में उत्तराखंड के जिलों में प्रतिष्पर्दा देखने को मिल रही थी। कई गांव तो ऐसे भी जिनमे एक भी घर  आबाद नहीं था। पूरा का पूरा गांव खाली हो गए। लाखों की तादाद में उत्तराखंड के लोग शहरों का रुख करने लगे। रोजगार सबसे पहली प्राथमिकता रही। शिक्षा, स्वास्थ्य ने तो कमर तोड़कर रख दी। यह तक की उत्तराखंड सरकार ने पलायान आयोग का गठन भी किया। हालांकि यह सिर्फ कागजों और फाइलों के साथ साथ सरकार के चाय पीने व अल्मारी ठूसने तक सिमट कर रह गया। कहें तो "ढांक के तीन पात"।

सरकार ने कई स्कीमें भी चलाई, स्वरोजगार लेकर सरकारों ने बारी बारी से प्रवासियों को बुलाने क्व लिए कई योजनाओं की घोषणाएं भी की। उनमें से एक घोषणा भांग की खेती भी थी। इसी भांग की खेती' ने तूल पकड़ लिए। और सरकार को जनता से मुहं की खानी पड़ी। लेकिन प्रवासीय तब भी घर वापसी को तैयार नहीं हुवे। क्योंकि वे जानते थे। सरकार के भरोसे रहे तो भूखे पेट सोना पड़ेगा। दाने दाने को मौताज होना पड़ेगा। यही कारण रहा कि वे शहरों में भेड़ बकरियों की तरह घुट कर रहने लगे। कम से कम रोटी का जुगाड़ तो कैसे न तैसे हो ही जायेगा। बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य की भरपूर साधन से भरपूर शहर में कुछ न कुछ तो जुगाड़ हो ही जायेगा। मगर गांव में क्या है? लेकिन इतने वर्षों के बाद भी न यह सरकारों को दिखाई दिया न ही पलायान आयोग को।

खैर मज़बूरी में  ही सही पर आज कई लाख उत्तराखंडी अपने गांव का रुख इस कोरोना काल में कर रहे हैं। जिसकारण से गांव छोड़ा था वही कारण आज शहर भी बन गए। रोजगारी बंद, शिक्षा बंद, स्वास्थ्य ठप। ऊपर से महामारी का खतरा अलग से। ऐसे स्थिति में गांव याद आना लाजमी है। रआखिर शहर में रहे तो रहे कैसे? नौकरी के लिये गांव से शहर आये। वही नौकरी से हाथ धो बैठे। बिगड़ते हालात को देखते यह भी समझ में आ गया कि आगे नौकरियाँ मिलने का चांस बहुत कम है। आखिर करे भी तो करें क्या? संभवत: ऐसे में गांव की ओर रूख करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचता। इसे प्रकृति का बैक गेर कहें तो उचित होगा। लेकिन गांव लौट रहे प्रवासियों के लिए गांव में पुनः शुरू करना एवरेस्ट फतह करने जैसा होगा। 
भास्कर जोशी

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