Tuesday, December 29, 2015

गांव और पलायन का रोना धोना


गांव-गांव नही रहे अपितु खँडहर हो गये। जी हाँ आप बिलकुल सही समझ रहे हैं। भारत के अधिकांश गांवों की कहानी कुछ यही कहती हैं। पूरब से लेकर पश्चिम तक और उत्तर से लकर दक्षिण तक के गांव ख़ाली होते जा रहे हैं। गांवों में लोग रहने को तैयार नही हैं। सभी शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। भले ही शहर के एक कोने के एक कमरे में भेड़ बकरियों की तरह घुट कर जियें, लेकिन रहना शहर में ही है।

गांव की सुन्दर प्राकृतिक हवा, पानी को छोड़, शहर के प्रदूषण में रहना अपने को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं लेकिन गांव में वे अपने को असहाय समझने लगे हैं। एक दूसरे की देखा देखि में बाकि गांव के लोग भी गांव छोड़कर शहर की ओर रुख कर रहे हैं गांव में बने आलिशान महलों को खँडहर बनाने के लिए छोड़ रहे हैं ।

पलायन की गर बात करें तो सबसे अधिक उन राज्यों पर पड़ा है जहाँ अभी तक सुख सूविधा के लिए लोग वंचित हैं, विशेषकर उत्तराखंड, हिमांचल पहाड़ी क्षेत्रों के अलावा बिहार, छतीसगढ़, झारखण्ड जैसे राज्य पलायन का रोना रो रहे हैं। पलायन का दर्द क्या है यह उन गांवों में जाकर उन खंडहारों से पूछना पड़ेगा कि ऐसी दुर्दशा किसने, कैसे और क्यों हुई? ख़ाली खंडहर घरों में बताने के लिए तो आपको लोग मिलेंगे नही, हाँ आपको वहां के घर, वहां के पेड़, पौंधे, हवा, पानी आपको एहसास जरूर करायेगी की इनके साथ पराया जैसा बरताव क्यों हो रहा है।

अगर मैं ये कहूँ कि यह सिर्फ पलायन की मार एक गांव या एक क्षेत्र का है तो यह गलत होगा क्योंकि यह अधिकांस भारत के अन्य गांवों के साथ अन्याय होगा, जो पलायन की चपेट में आकर रोना रो रहे हैं। यही बात अगर उत्तराखंड की करें तो पिछले एक या दो दशक से पहले गांव अपने अच्छे खासे हालत में थे। एकाएक उनके साथ ऐसा क्या हुआ कि गांव के गांव खाली होने शुरू हो गए? इस प्रश्न पर मंथन करना बहुत जरुरी है।

200-300 परिवारों का एक गांव में आज सिर्फ गिने चुने 30 या 40 परिवार ही रह गए हैं बाकि के शेष परिवारों के घरों में ताले लटके हुए हैं। जो व्यक्ति गांव में रहा है जिसने गाँव को जिया है वह  घरों की ऐसी जरजर हालत देख एकाएक आँखों से आँसुओं की धार को रोक नहीं पाएंगे। गांवों की हालत यह है कि जो परिवार जैसे तैसे अपना जीवन गांव में बिता रहे थे, आज वे भी अपने घरों के केवाड़ में ताला लगाने को मजबूर हैं। वे भी शहर का रुख कर रहे हैं। कई घरों की हालत इतनी बत्तर हो चुकी है कि कभी भी टूट कर गिर सकते हैं। हाल यह है कि उन घरों की देख रेख करने वाला कोई नही।

अब भी  गांव में बचे कुछ लोग अपनी किस्मत आजमा रहे हैं इसी आस पर कि कोई तो उनकी सुध लेने को आएगा।वे लोग अपनी निर्धनता के कारण गांव नही छोड़ सकते हैं, उनके पास इतना पैसा नही है कि वे लोग शहर जाकर रह सके । कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होने अपना पूरा जीवन बचपन से लेकर जवानी और अब इस बुढ़ापे तक का जीवन गांव में रहकर ही जिया है, अब अंत के दिनों में वे अपने गांवों में ही रहना पसन्द करते हैं। वे लोग नही चाहते कि इस उम्र में शहर जाकर घुटन की जिंदगी जिया जाय। उनका कहना यही है कि अब मरेंगे तो अपने गांव में, शहर की चकाचोंध तुम्हें ही मुबारक ।

कुछ लोगों का गांव में रहना मजबूरी सी हो गयी है। ये वे लोग हैं जो सरकारी कर्मचारी हैं जैसे-शिक्षक, वन विभा व अन्य सरकारी संस्थानों के कर्मचारी हैं। इनमें कई सरकारी कर्मचारी ऐसे है जो अपने गांव में रह तो रहे हैं लेकिन उनके बच्चे, उनका परिवार शहर में रह रहा हैं जिस दिन इन्हें छुट्टी मिलती है उस दिन ये अपने परिवार के साथ छुट्टी बिताने चले जाते हैं। या यूँ कहिये ये लोग सिर्फ अपनी नौकरी-पेसे के लिए गाँव में रह रहे हैं।

गांवों में रहे-सहे कुछ ठेकेदार कुछ नेता बिरादरी के लोग जो कि गांवों में अपना फन फैलाए बैठे है। जो लोग गांवों से पलायन कर गए हैं उनकी जमीनों पर इनकी टेडी नजर हैं उन जमीनों से पत्थर मिट्टी जो हाथ लगे बेच रहे हैं कोई रोकने टोकने वाला नही। जैसा चाहे वैसे मनमाने तरीके से फल फूल रहे हैं। बैठे बिठाये करोड़ों का माल अन्दर बहार हो रहा है।

आज वे ही लोग गांव में रह रहे हैं जिनकी या तो मजबूरियां रही होंगी या फिर वे लोग जिनका धंधा-पानी अच्छे से फल फुल रहा हो। बाकि बचे गांव के लोग पलायन कर गए हैं, कई और गाँव के लोग पलायन करने की तैयारी में हैं। गरीब परिवार गांव छोड़ने पर मजबूर हैं गांव का जीवन कष्टदाई तथा दूभर होने लगा है। आस-पड़ोस के खाली घरों को देखकर उनका जीवन खाली खाली सा लगने लगा है गांवों में एक कहावत अक्सर कही जाती है “खाली घर और खंडहर भूतों का घर होता है”। गांवों का यह हाल देख कर बाकि के लोग अब छोटे छोटे शहरों में, जहाँ चंद लोगों का जमघट हो, वहां रहना उनके लिए एक मात्र विकल्प बचा है |

        गांवों से पलायन की अगर बात करें तो वर्ष 1991 से 2001 के बीच 7 करोड़ 30 लाख ग्रामीण अपने मूल-निवास स्थान से कहीं और जाने के लिए विवश हुए हैं। इसमें से अधिकतर 5 करोड़ 30 लाख ग्रामीण किसी अन्य गांव में जाकर बसे हैं, जबकि एक तिहाई से भी कम याने कि 2 करोड़ के आसपास ग्रामीणों ने शहरों का रुख किया। यदि 1991 से 2001 के बीच का निवास-स्थान को आधार माने तो 30 करोड़ 90 हजार लोगों ने अपना निवास स्थान छोड़ा, जोकि देश की जनसंख्या का 30 फीसदी है। प्रथम जनगणना 1951 के समय में ग्रामीणों की आबादी 83 प्रतिशत एवं शहरी 17 प्रतिशत थी। 2011 की जनगणना में यह गांवों में घटकर 68 प्रतिशत और शहरों में बढ़कर 32 प्रतिशत हो गयी।पलायन का एक कारण यह भी रहा कि गांवों के कुटीर उद्योगों का पतन, भूमि हीन किसान, ऋणग्रस्तता, सामाजिक, आर्थिक और शिक्षा का पतन। शिक्षा व्यवस्ता पर एक नजर डालें तो  हाल यह है कि न स्कुल हैं न ही पढ़ाने को टीचर। भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है बहार की दुनियां क्या है, कैसी है इन सबसे वे लोग बेखबर हैं। कई गांवों का हाल कुछ अजीबोगरीब है। सरकारी योजनाओं के तहत सरकारी स्कुल खोले तो गए हैं लेकिन उन स्कूलों में  पढने के लिए बच्चे  हैं मगर टीचर नही हैं। कई स्कूलों में हालात ऐसे भी देखने को मिले हैं जहाँ एक टीचर है और पढ़ने के लिए 2 बच्चे। कई गांव में और भी बुरा हाल है  पढ़ने के लिए न ही बच्चे हैं न ही टीचर। सरकारी योजना के तहत जहाँ-तहां स्कुल खोल दिये हैं मगर   उन  गांव के लोग उस स्कुल को बाराती घर के रूप में प्रयोग करते हैं। कुलमिलाकर शिक्षा व्यवस्था एक दम चौपट है।

         वहीँ  दूसरी तरफ कुटीर उद्योगों पर नजर दौडाएं तो हालात और भी बुरे हैं। ग्रामीण लोग आजीविका के लिए दर दर भटक रहे हैं यदि गांवों में छोटे-छोटे कारखाने, उद्योग वगैरह आजीविका के लिए काम मिल जाता तो पलायन की इतनी बढ़ी समस्या उत्पन्न नही होती। राज्य व केंद्र सरकारों से मदद भी अगर मिली होती तो थोड़े बहुत कुटीर उद्योगों से ग्रामीणों का जनजीवन सुचारू रूप से चलता रहता पर ग्रामीणों के उद्योगों पर सरकारों ने कभी ध्यान दिया ही नहीं। वहीँ केंद्र सरकार स्मार्ट सिटी के नाम से  विकास के नाम पर दम ख़म भर ही है। अगर सही।माइने में सरकारें विकास करना चाहती हैं तो पहले गांवों से छोटे छोटे कुटिर उद्योगों को बढ़ावा देना होगा।तभी देश की आर्थिक स्थिति और मजबूत होगी।साथ ही इस तरह के पलायन से सांस्कृतिक संघर्ष को तो जन्म देती ही है बल्कि नैतिक मूल्यों का भी अवमूल्यन होता है। गांवों में रोजगार के वैकल्पिक अवसरों का आभाव है। उच्च शिक्षा के प्राप्ति के लिए भी हमारे देश में पलायन का मुख्य कारण रहा है पलायन का एक मुख्य कारण भी रहा है, वह है सामाजिक विषमता तथा शोषण। बहरहाल वजह कोई भी हो लेकिन सीमा से अधिक पलायन हमारे सामाजिक तथा राष्ट्रिय तानेबाने के लिए हानिकारक हो सकता है।

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