अलकनंदा पत्रिका के वर्ष 43 अंक 1 जुलाई याउर हरदौल वाणी सोमवार 18 जुलाई के अंक में प्रकाशित मेरी कविता आँसुओं का सैलाब
आँसुओं का सैलाब
बह उठी आँसूँ की धारा
ज्वलंत, रौद्र, पीड़ा से भरे
ज़ख़्मों की पीड़ा न सह सकी प्रकृति
आँसुओं की प्रलय धारा बह उठी।
क़हर बरपा रहे हैं आँसूँ उसके
न समझ सके दर्द उसका कोई
नर अत्याचारों के चरम पर पहुँचकर
प्रकृति को रोने पर मजबूर किया
सिने पर बम बाँध उसके
विकास का नाम दे दिया
चोट लगी, कहरा उठी
निकल पड़े आँसू भयावह रूप लेकर
नदी रूपी रक्त प्रवाह को बाँधकर
बना दिए आधुनिक बाँध तुमने
भार से उसके छटपटा- तिलमिला उठी
टूट गये सब, सब्र के बाँध उसके।
सबकुछ तो दिया था प्रकृति ने तुम्हें
फिर क्यों सिने पर ख़ंजर गाढ़ दिया
विकास नहीं विनाश को दावत दी है तुमने
तुम्हारे कृत्यों का भुगतान प्रकृति को करना ही था।-भास्कर जोशी
आँसुओं का सैलाब
बह उठी आँसूँ की धारा
ज्वलंत, रौद्र, पीड़ा से भरे
ज़ख़्मों की पीड़ा न सह सकी प्रकृति
आँसुओं की प्रलय धारा बह उठी।
क़हर बरपा रहे हैं आँसूँ उसके
न समझ सके दर्द उसका कोई
नर अत्याचारों के चरम पर पहुँचकर
प्रकृति को रोने पर मजबूर किया
सिने पर बम बाँध उसके
विकास का नाम दे दिया
चोट लगी, कहरा उठी
निकल पड़े आँसू भयावह रूप लेकर
नदी रूपी रक्त प्रवाह को बाँधकर
बना दिए आधुनिक बाँध तुमने
भार से उसके छटपटा- तिलमिला उठी
टूट गये सब, सब्र के बाँध उसके।
सबकुछ तो दिया था प्रकृति ने तुम्हें
फिर क्यों सिने पर ख़ंजर गाढ़ दिया
विकास नहीं विनाश को दावत दी है तुमने
तुम्हारे कृत्यों का भुगतान प्रकृति को करना ही था।-भास्कर जोशी
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