बल भिकुदा आजकल हमारी शिक्षा और स्वास्थ व्यवस्था एकदम निक्कमी हो गयी है।
ना भुला यह निक्कमी नहीं हुई है बल्कि हमारी सरकारी शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्ता आई सी यु के वेंटिलेटर पर आखरी सांस गीन रही है। हालत ऐसी है कि अब दम तोडूं या तब दम तोडूं। स्कूलों व हॉस्पिटलों की जर जर हालत है। अगर किसी को भर्ती करवाएं तो न जाने वे हॉस्पिटल या स्कूल कब सर पर टूट गिरे। घर से निकले तो थे शिक्षा या इलाज करवाने पर खुद ही ऊखल में सर डाल बैठे। ऐसी स्थिति है स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था की।
बल भिकुदा कुछ तो सुधार की करने की आवश्यकता है। अगर सुधार नहीं किया गया तो उन गरीब बच्चों को क्या होगा?
हाँ यह तो है क़ि गरीब परिवार व उनके बच्चों के लिए यह सबसे बड़ी परेशानी का कारण तो है। उन्हें न तो शिक्षा सही से मिलती है न ही इलाज । उन्हें सिर्फ चुनाओं का मुद्दा बनाया जाता है। जब तक एक शिक्षा व्यवस्था और एक स्वास्थ्य व्यवस्था लागू नहीं होती तब तक इस देश में गरीबों की हालत सुधरने वाली नहीं।
बल भिकुदा समाज चारों और बटा हुवा है ऐसे में यह एक समान व्यवस्था कैसे संभव है?
हाँ भुला यहाँ आज सभी अपनी अपनी दुकान खोलकर बैठे हुए हैं । शिक्षा में अलग अलग धर्म के लोग दूकान खोले बैठे है तो कई बिजनेश लेकर। एक तालीम व्यवस्था पर तो कोई बात ही नहीं करता । हिंदुओं की दूकान अलग , मुस्लिमों की दूकान अलग, सिख, ईसाई, जैन , बौद्ध आदि सब दूकान खोले बैठे हैं। अगर एक व्यवस्था की बात करते हैं सभी धर्म एक दूसरे पर या सरकार पर इल्जाम लगा देते हैं कि हमारी परंपरा को सरकार नष्ट करना चाहती है। और फिर दंगे शुरू।
जब देश आजादी की मांग कर रहा था तब महात्मा गांधी ने नई तालीम शुरू की थी। जिसका मकसद यही था कि भारत में एक शिक्षा व्यवस्था हो । जिसमें धर्म आड़े न आये। यह शिक्षा व्यवस्था किसी भी धार्मिक भावना को भड़काने की नहीं थी बल्कि सभी एक शिक्षा व्यवस्था के दायरे में आये इसलिए नई तालीम शुरू की थी। नई तालीम का भार सौंपा गया था महादेव भाई को। कई धर्म के लोगों ने इसपर तब भी उंगुलियां उठाई थी। आज भी अगर सभी धर्म जाती के लिए एक व्यवस्था करें तो कई धर्म गुरुओं को मिर्च लग सकती है एसा सम्भव है। यदि भारत देश सच में गरीबों की उन्नति चाहता है विकास करना चाहता है तो देश में एक शिक्षा एक स्वास्थ्य पर काम करने की जरूरत है।
बल भिकुदा स्वास्थ्य व्यवस्था और शिक्षा व्यवस्था तो आज कॉरपोरेट का रूप ले रही है ऐसे में यह कैसा संभव है?
बिकुल मैं जब आज छोटे छोटे बच्चों को देखता हूँ तो उनका बचपन देखकर बड़ा दुःख होता है कहीं न कहीं लगता है कि उन बच्चों का बचपन अन्धकार में हैं वे किताबों के बोझ तले दबे हुए हैं। अभी कुछ दिन की ही बात है मेरे दोस्त का बेटा अभी दो साल का है। एल केजी में एड्मिशन दिलाने ले गया था पर जब वह स्कुल में गया तो उसके हाथ पांव सरग लग गए। स्कूल की फीस और स्कुल की शर्तें देख भौंचक्का रह गया। दो साल का बच्चा क्या पढ़ेगा उसे कितनी समझ होगी। पर जब एड्मिशन की फीस 30000 (तीस हजार ) बताई तो हाथ पांव फूल ही जायेंगे । उसके बाद से स्कुल की शर्त । शर्त यह थी कि माँ पिता को टेस्ट देना होगा। ताकि जब होमवर्क दिया जाय तो माँ बाबा हल करके देंगे। अगर सब माँ बाप को ही करना है तो स्कुल में शिक्षक क्या करेंगे । उन्हें किस बात की इतनी फ़ीस।
वहीँ स्वास्थ्य की बात करें तो अभी दो हप्ते पहले हमारे साथी का पूरा परिवार दुर्घटना ग्रस्त हो गया। जिसमें काफी जानमाल का नुकसान हुवा पर जो बच गए उन्हें एक हॉस्पिटल ने बड़ा ही अच्छा खासा चुना लगा दिया। दुर्घटना ग्रस्त लोगों के हाथ पांव टूटने पर सिर्फ पट्टी बाँधी और एक आदमी का बिल बना दिया दो लाख का जबकि प्लास्टर लगवाने के लिए दूसरे हॉस्पिटल के लिए रेफर कर दिया।
आज शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य व्यवस्था बिजनेश की दिशा में आगे बढ़ चुके हैं ऐसे में सरकारी शिक्षा व्यवस्था और् स्वास्थ्य व्यस्था को कोई पूछ नहीं रहा है। सरकारी व्यवस्था एकदम मरणासन की स्थिति में । सरकार को अगर भारत की स्थिति को सुधरना है तो उसे कॉरपोरेट जगत की कमर तोड़कर एक समान व्यवस्था करनी होगी।
बिलकुल भिकुदा आपकी बातों में सचाई नजर आती है। अब देखते हैं कि जनता इसे किस नजर से देखती है।
भिकुदा की "एक शिक्षा एक स्वास्थ्य" नीति को आप किस नजर से देख है यह आप पर छोड़ते हैं आप अपने विचार जरूर दें ।
पभजो
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